Wednesday, March 13, 2024

ध्यान में डूबा हो जब अंतर

एक बार एक व्यक्ति किसी संत के पास गया और दुख से मुक्ति का मार्ग पूछा। संत ने कहा, ध्यान, उसने कहा कुछ और कहें, संत ने दो बार और कहा, ध्यान ! ध्यान ! जब हम स्कूल में पढ़ते थे, अध्यापक गण हर घंटे में कहते थे, ध्यान दो, ध्यान से पढ़ो।घर  पर माँ बच्चे को कोई समान लाने को कहे तो पहले कहेगी, ध्यान से पकड़ो। सड़क पर यदि कोई ड्राइवर गाड़ी ठीक से न चलाये, तो कहेंगे, उसका ध्यान भटक गया। इसका अर्थ हुआ ध्यान में ही सब प्रश्नों का हल छिपा है।ध्यान हमारी बुद्धि की सजगता की निशानी है। जब बुद्धि सजग हो तो भूल नहीं होती। इसी तरह  जब मन ध्यानस्थ होता है तो सहज स्वाभाविक प्रसन्नता तथा उजास चेहरे पर स्वयमेव छाये रहते हैं, उनके लिए प्रयास नहीं करना पड़ता. मन से सभी के लिए सद्-भावनाएँ उपजती हैं. यह दुनिया तब पहेली नहीं लगती न ही कोई भय रहता है. ध्यान से उत्पन्न शांति सामर्थ्य जगाती है और सारे कार्य थोड़े से ही प्रयास से होने लगते हैं. कर्त्तव्य पालन यदि समुचित हो तो अंतर्मन में एक अनिवर्चनीय अनुभूति होती है, ऐसा सुख जो निर्झर की तरह अंतर्मन की धरती से अपने आप फूटता है, सभी कुछ भिगोता जाता है, जीवन एक सहज सी क्रिया बन जाता है कहीं कोई संशय नहीं रह जाता.


Friday, March 8, 2024

शुभता को मन करे वरण

संतजन कहते हैं, जो अपने लिये सत्यं, शिवं और सुन्दरं के अलावा कुछ नहीं चाहता, प्रकृति भी उसके लिये अपने नियम बदलने को तैयार हो जाती है. जो अपने ‘स्व’ का विस्तार करता जाता है, जैसे-जैसे अपने निहित स्वार्थ को त्यागता जाता है, वैसे-वैसे उसका सामर्थ्य बढ़ता जाता है. अस्तित्त्व पर निर्भर रहें तो कोई फ़िक्र वैसे भी नहीं रह जाती क्योंकि वह हर क्षण हमारे कुशल-क्षेम का भार वहन करता है. जैसे एक नन्हा बालक अपनी सुरक्षा के लिये माँ पर निर्भर करता है, हमारे सभी कार्य यदि हम उस पर निर्भर रहते हुए करेंगे तो उनके परिणाम से बंधेंगे नहीं. हम जो भी करें उसका हेतु सत्य प्राप्ति हो तो सामान्य कार्य भी भक्ति ही बन जाते हैं. एक मात्र ईश्वर ही हमारे प्रेम का केन्द्र हो, जो कहना है उसे ही कहें. अन्यों से प्रेम हो भी तो उसी के प्रति प्रेम का प्रतिबिम्ब हो. परमात्मा की कृपा जब हम पर बरसती है तो अपने ही अंतर से बयार बहती है. तब अंतर में तितलियाँ उड़ान भरती हैं. अंतर की खुशी बेसाख्ता बाहर छलकती है. ऐसा प्रेम अपनी सुगन्धि अपने आप बिखेरता है. दुनिया का सौंदर्य जब उसके सौंदर्य के आगे फीका पड़ने लगे, उस “सत्यं शिवं सुन्दरं” की आकांक्षा इतनी बलवती हो जाये, उसके स्वागत के लिए तैयारी अच्छी हो तो उसे आना ही पडेगा. अंतर की भूमि इतनी पावन हो कि वह उस पर अपने कदम रखे बिना रह ही न पाए. रामरस के बिना हृदय की तृष्णा नहीं मिटती. परम प्रेम हमारा स्वाभाविक गुण है, उससे च्युत होकर हम संसार में आसक्त होते हैं. कृष्ण का सौंदर्य, शिव की सौम्यता, और राम का रस जिसे मिला हो वही धनवान है. जिस प्रकार धरती में सभी फल, फूल व वनस्पतियों का रस, गंध व रूप छिपा है वैसे ही उस परमात्मा में सभी सदगुण, प्रेम, बल, ओज, आनंद व ज्ञान छिपा है, संसार में जो कुछ भी शुभ है वह उस में है तो यदि हम स्वयं को उससे जोड़ते हैं, प्रेम का संबंध बनाते हैं तो वह हमें इस शुभ से मालामाल कर देता है, दुःख हमसे स्वयं ही दूर भागता है, मन स्थिर होता है. धीरे धीरे हृदय समाधिस्थ होता  है. एक बार उसकी ओर यात्रा शुरू कर दी हो तो पीछे लौटना नहीं होता...दिव्य आनंद हमारे साथ होता है और तब यह जीवन एक उत्सव बन जाता है.


Saturday, March 2, 2024

पावन हो हर कर्म हमारा

हम देखते हैं कि व्यवहार क्षेत्र में पहले मन में विचार या भाव जगता है फिर क्रिया होती है; पर अध्यात्म क्षेत्र में यदि पहले कोई भी पवित्र क्रिया की जाये तो भाव अपने आप पवित्र होने लगते हैं. श्रवण या पठन क्रिया है पर श्रवण के बाद मनन फिर निदिध्यासन होता है. इंद्रदेव हाथ के देवता हैं, सो हमारे कर्म पवित्र हों जो भाव को शुद्ध करें. मुख के देव अग्नि हैं, अतः वाणी भी शुभ हो. मानव तन एक वेदिका के समान है जिसमें प्राण अग्नि बनकर प्रज्ज्वलित हो रहे हैं।प्राणाग्नि बनी रहे इसलिए प्राणों को हम भोजन की आहुति देते हैं.  देह रूपी वेदी दर्शनीय रहे, पवित्र रहे इसलिए सात्विक आहार ही लेना उचित है. मन का समता में ठहरना अर्थात अतियों का निवारण ही योग है. ऐसा योग साधने से मन प्रसन्न रहता है और भीतर ऐसा प्रेम प्रकटता है जो शरण में ले जाता है. शरणागति से बढ़कर मुक्ति का कोई दूसरा साधन नहीं है।


Monday, February 12, 2024

एक प्रेम ऐसा भी हो

किसी न किसी रूप में प्रेम का अनुभव सभी को होता है, पर उसे शाश्वत बनाने की कला नहीं आती । यह कला तो कोई सद्गुरू ही सिखाते हैं।अध्यात्म ही वह साधन है जिसे अपना कर मन में प्रेम का अखंड दीपक जलाया जा सकता है। ऐसा प्रेम होने के लिए कोई अन्य सम्मुख हो, इसकी भी ज़रूरत नहीं, एक बार मन में प्रकट हो जाये तो सारी सृष्टि के प्रति और उसके आधार परम परमात्मा के प्रति वह सहज ही बहता है। इस प्रेम में प्रतिदान की आशा भी नहीं होती, केवल देने का भाव ही रहता है। संसारी प्रेम में पीड़ा है, ईर्ष्या है, चाह है, अधिकार की भावना है, जो प्रेम के शुद्ध स्वरूप को विकृत कर देती है, आध्यात्मिक प्रेम स्वयं को स्वयं तृप्त करता है इसलिए इसमें मिली पीड़ा भी आनंदकारी होती है, मीरा के ह्रदय की पीड़ा उसके गीतों में ढलकर अमर हो जाती है।तुलसी के प्रेम का बिरवा मानस के रूप में युगों युगों तक मानव को सुवास देता रहेगा।टैगोर के प्रेम गीत उसी अमर प्रेम के चिह्न हैं। 

Tuesday, January 16, 2024

श्रद्धावान लभते ज्ञानम

संत कहते हैं, मन में श्रद्धा स्थायी हो जाये तो आनंद स्वभाव में बस जाता है.  मीरा के पैरों में ही घुंघरू नहीं बंधे थे, उसके दिल के भीतर भी बजे थे। सागर की गहराई में एक ऐसी दुनिया है जहाँ सौंदर्य बिखरा हुआ है, हमें उस पर यक़ीन नहीं होता। आश्चर्य की बात है कि इतने संतों और सद्गुरुओं रूपी गोताखोरों को देखकर भी नहीं होती. कोई-कोई ही उसकी तलाश में भीतर जाता है, जबकि भीतर जाना अपने हाथ में है, अपने ही को तो देखना है, अपने को ही तो बेधना है परत दर परत जो हमने ओढ़ी है उसे उतार कर फेंक देना है. हम नितांत जैसे हैं वैसे ही रह सकें तो सदा सहजता ही है। हम सोचते हैं कि बाहर कोई कारण होगा तभी भीतर ख़ुशी फूटी पड़ रही है पर सन्त कहते हैं भीतर ख़ुशी है तभी तो बाहर उसकी झलक मिल रही है हमें भीतर जाने का मार्ग मिल सकता है पर उसके लिए उस मार्ग को छोड़ना होगा जो बाहर जाता है एक साथ दो मार्गों पर हम चल नहीं सकते. बाहर का मार्ग है अहंकार का मार्ग, कुछ कर दिखाने का मार्ग भीतर का मार्ग है, समर्पण का मार्ग, स्वयं हो जाने का मार्ग !  


Friday, January 12, 2024

उसके पथ का राही है जो

हमारे पास हर पल एक पथ होता है, जिस पर चलकर हम उस परम से एक हो सकते हैं। वह सदा सर्वदा उपलब्ध है। हम स्वभाव वश, संस्कार वश या अपने प्रारब्ध के अनुसार कहीं और चल देते हैं। वह हमसे कभी बिछुड़ा नहीं, उसे अपने से जुदा मान लेते है, फिर व्यर्थ  ही अन्धेरों में ठोकर खाते हैं। ध्यान की वह ज्योति नित्य निरंतर भीतर है। कर्मशील मन हो तो उसके लिए कुछ भी असंभव नहीं है।जीवन में कैसी भी परिस्थति हो, ईश्वर का वरदान है। जैसे कुम्हार मिट्टी के पात्र को आकार देते समय कभी सहलाता है कभी आहत करता है; ईश्वर भी ‘स्वयं’ को गढ़ने के लिए हर उपाय अपनाता है। वह ‘स्वयं’ को अपने सुंदरतम रूप में देखना चाहता है। कोई उसके साथ सहयोग करता है तो उसे फूलों के पथ से ले जाता है और जो विरोध करता है उसे काँटों के पथ से ! मंज़िल पर दोनों मिल जाते हैं, क्योंकि लक्ष्य सभी का एक ही है। एक न एक दिन सभी को वह लक्ष्य पाना है।


Monday, January 8, 2024

जिस पल जागा मन मतवाला

परमात्मा ने इस सृष्टि का निर्माण अपने अनंत आनंद को बाँटने के लिए ही तो किया है। गुरु जब शक्तिपात करते हैं मन के भीतर से जन्मों के कितने ही संस्कार बह कर निकल जाते हैं। अश्रु के सहारे हमारे सुख-दुख का अतिरेक बह जाता है। मन जब शांत होता है तब आत्मा का प्रतिबिंब उसमें स्पष्ट दिखता है, वह अनंत का अनुभव करता है। वह आनंद बँटना चाहता है। स्वप्न में हम सुख-दुख दोनों का अनुभव करते हैं। मन एक मायानगरी का निर्माण कर लेता है। सुख का आभास होता रहे तो स्वप्न चलता रहता है, समय का भान नहीं होता, फिर अचानक कुछ ऐसी बात घटती है जो हमें विचलित कर देती है तो हम जाग जाते हैं और राहत की श्वास लेते हैं कि यह मात्र स्वप्न ही था। इसके बावजूद भी स्वप्न का असर कुछ देर तक बना रह सकता है। जागृत में भी यदि सब कुछ ठीक चल रहा है, हमारे अनुकूल है तब तक हम हम भीतर नहीं मुड़ते हैं। परमात्मा  को नहीं पुकारते, जब दुख बढ़ जाये तब आर्त्त पुकार उठती है और आत्मशक्ति बढ़ाने की तरफ़ कदम बढ़ता है। जैसे स्वप्न मिथ्या है, वैसे ही जागृत भी मिथ्या है। इसे देखने वाला साक्षी सत्य है, जो सदा जागृत है, नित्य है, मुक्त है। वह स्वयं को भूल जाता है और और कभी देह, मन, बुद्धि के साथ एक होकर स्वयं को वही मानने लगता है। देह के पास अपनी शक्ति है, मन के पास मनन की व बुद्धि के पास निश्चय की शक्ति है पर आत्मा के होने से ही वे इसका अनुभव कर पाते हैं।