Tuesday, May 31, 2011

ईश्वर और मन


अप्रैल २००० 
पल भर भी सजग न रहें तो मन झट नीचे के स्तरों में चला जाता है. यह प्रयास रहे कि मन उद्ग्विन न हो, ऐसा नहीं कि जोर-जबरदस्ती की जाये, सहज स्वाभाविक स्थिति में यदि मन रहेगा तो शांत रहेगा. आतुरता तो हम ऊपर से ओढ़ लेते हैं, कोई बात मन से न निकलती हो तो जानना चहिये कि सजगता खो गयी. हर क्षण भूत या भविष्य का चिंतन न कर वर्तमान को सही परिप्रेक्ष्य में देखकर जागृति का अनुभव किया जा सकता है. एक सीमा तक ही बुद्धि हमारा साथ देती है, उसके बाद तो ईश्वर का ही आश्रय है. इस जग का जो भी नियंता है, वही हमें आत्म ज्ञान दे सकता है. आत्मा परमात्मा का ही प्रतिबिम्ब है, प्रतिबिम्ब में परिवर्तन करने के लिये वस्तु में परिवर्तन लाना होगा. ईश्वर से प्रेम करना, उसका चिंतन करना ही उसके गुणों को हममें प्रतिबिम्बित करेगा. वह आनंद स्वरूप है सो हमारी मनोदशा भी सहज सुखपूर्ण ही रहेगी.

Monday, May 30, 2011

ध्यान


मार्च २०००
ध्यान के लिये कई बातें जरूरी हैं, सबसे पहली तो अध्यात्मिक ज्ञान की पिपासा फिर सांसारिक बातों से उदासीनता, स्वाध्याय, सत्संग और नियमितता. नियत समय पर नियत विधि से लगातार जब ध्यान करेंगे तब परिणाम मिलेगा लेकिन परिणाम की आकांक्षा न रखते हुए ध्यान करना है. श्रद्धा दृढ़ न होने पर रास्ता बहुत लम्बा लग सकता है. जिस मार्ग पर बुद्ध, नानक, कबीर, महावीर चले थे उसी मार्ग पर चलना है, जाहिर है रास्ता बहुत कठिन है पर असम्भव नहीं. मन को संयत करना अभ्यास व वैराग्य से ही संभव है, जैसा कृष्ण ने कहा है. अपने कर्तव्यों का पालन( शरीर, घर-परिवार, समाज  के प्रति) करते हुए संसारिक लोभ व आकर्षणों से मुक्त रहने का प्रयास करना होगा, मध्यम मार्ग अपनाते हुए मानसिक विकारों को (क्रोध, लोभ, मोह तथा इच्छाएं), एक-एक कर दूर करते जाना होगा. मन जितना मुक्त होगा ध्यान उतना ही संभव होगा. किसी प्रकार की कोई अपेक्षा न रहे, सचेत रहना है. ईश्वर का ध्यान-भजन करते-करते ध्यान स्वयंमेव सिद्ध होने लगेगा. 

Saturday, May 28, 2011

निस्वार्थ सेवा

मार्च २००० 
निस्वार्थ सेवा हमें साधारण मानव से ऊपर उठाती है, सेवा का सुयोग आने पर उसका लाभ उठाना ही चाहिए, यह हमारी आध्यात्मिक परीक्षा का समय भी होता है. आत्मा के अखंड शांति स्रोत से जुड़े रहने पर सहज ही यह हो सकता है. हो सकता है इसमें हमें कष्ट भी उठाना पड़े, पर यह पीड़ा भी आनंदकारी होगी,  हृदय की अशांति का कारण नहीं. उसके लिए कई अन्य कारण हो सकते हैं जैसे अन्यों को जज करने की प्रवृत्ति, शासन करने की प्रवृत्ति, स्वयं को देह या मन मानने का अज्ञान. तन या मन की अस्वस्थता भी हमारे शुद्ध स्वरूप को प्रभावित नहीं कर सकती, वह अस्पृश्य है.

Friday, May 27, 2011

विपश्यना


मार्च २०००
मन की गहराईयों में जाकर सारे विकारों को दूर करने का नाम ही ‘विपश्यना है’. लेकिन मन के भीतर जाएँ कैसे, पहले विचारों को कम करना होगा, और वह तब संभव होगा जब जीवन में शील व सदाचार होंगे. आहार सात्विक होगा. सहज स्वाभाविक साँस को देखते रहना भी मन को एकाग्र करने का एक सरल उपाय है. सुख-दुःख, हानि-लाभ आदि में सम रहने से भी हृदय सहज ही शुद्द रहता है तथा भावनायें उद्दात हो जाती हैं. निस्वार्थ भाव से जब हृदय ज्ञान प्राप्ति की आकांक्षा करता है तो ईश्वर की कृपा होने लगती है. नियति यही चाहती है कि हर व्यक्ति उस ध्येय को प्राप्त करे जिसे पाकर मनुष्य कृत-कृत्य हो जाये, हमारे जीवन में आने वाली सभी परिस्थितियां हमें जाने-अनजाने सजग करने के लिये ही आती हैं, ईश्वर सा धैर्य शाली कोई नहीं वह अनंत काल तक हमारी प्रतीक्षा करने के लिये तैयार है. 

Thursday, May 26, 2011

इच्छा


मार्च २००० 

मन में जब कोई इच्छा उत्पन्न होती है तो जब तक वह पूरी न हो जाये कैसी खलबली सी मची रहती है, किसी दूसरे काम को हाथ में लेने का उत्साह भी नहीं रहता, अर्थात कामना पूर्ति में पराधीनता है, जड़ता है, ऐसा मन दर्पण की भांति कैसे अंतर की पवित्रता को दर्शा सकता है, मन खाली हो तो सहज ही स्वतंत्रता तथा चेतनता का अनुभव करता है. अब मन को खाली कैसे किया जाये, नाम जप इसमें सहायक है जो अपनी रूचि के अनुसार किया जा सकता है. किन्तु नियमित साधना की आवश्यकता है क्योंकि अच्छे कार्य यदि छूटेंगे तो व्यर्थ के कार्य होने लगेंगे और उनमें लगने पर अच्छे कार्यों का रस जाता रहेगा. 

Wednesday, May 25, 2011

चैतन्य


मार्च २००० 
“अपने मूल स्वरूप को पहचान कर अंतहीन सुख के साम्राज्य को पा सकने की हममें क्षमता है. संसार बदल रहा है, नश्वर है, लेकिन अपना आप जो चेतन है, नित्य है, अपरिवर्तनशील है, उसी चैतन्य को पाना ही जीवन का ध्येय है”. ये बातें हमें हर जगह सुनने को नहीं मिलतीं लेकिन जीवन को सार्थक ढंग से जीने के लिये, अपने कर्तव्यों का बोध जागृत रखने के लिये, हृदय में सहनशीलता, त्याग व आत्म विसर्जन की उद्दात भावनाओं के स्फुरण के लिये इनको सुनते रहना अति आवश्यक है. ये जहाँ मन को उहापोह से मुक्त रखती हैं, वहीं उसे एकाग्र रखने में भी सहायक हैं.
हमारे पूर्वजों ने जीवन के उद्देश्य, जीने के तरीके और आत्मिक उन्नति के द्वार योग के रूप में खोल दिये हैं. अब यह हम पर निर्भर करता है कि पंक में सने रहें, सांसारिक मोह माया और उलझनों में मानसिक ऊर्जा को व्यर्थ नष्ट कर दें अथवा मुक्त होकर आध्यात्मिक मार्ग पर आगे बढ़ें, संत जन कहते हैं कि ज्ञानीजनों के अनुभव को अपना अनुभव बना लेने पर ही बंधन कट सकते हैं, तब सुख-दुःख, मान-अपमान, यश-अपयश सभी स्वप्नवत प्रतीत होते हैं. कंस की सेविका जब कृष्ण की सेविका हो जायेगी तभी उसका उद्धार होगा.   

Tuesday, May 24, 2011

वाणी

मार्च २०००
 मन यूँ तो शांत रहना चाहता है किन्तु उसे उद्वगिन बनाने के लिये पल भर की असजगता पर्याप्त है. वाणी का दोष सचेत न रहने पर ही घटता है, बिना किसी कारण के अभ्यास वश हुआ असत्य भाषण मन को दूषित कर जाता है, चाहे कितना ही छोटा या निर्दोष झूठ भी हो, हमारे मन की बेहोशी की खबर देता है.  टीवी पर जागरण में सुधांशु जी महाराज  बता रहे हैं कि “सबसे भयंकर हिंसा वाणी की हिंसा है. अपनी जिह्वा रूपी गाय को खूंटे से बांध कर रखना चाहिए क्योंकि यह दूसरों के हरे-भरे, मान रूपी बगीचे को तहस-नहस कर सकती है”. भाषा रुखी भी नहीं होनी चाहिए, नहीं तो मौन व्रत ही भला, इससे कितनी परेशानियों से हम बच सकते हैं.
मानव मन शरीर के सुख-दुःख से ऊपर उठना ही नहीं चाहता, इसीलिए मन से परे बुद्धि, बुद्धि से परे आत्मा को जानने की बात हमारे पूर्वजों ने की.     

Monday, May 23, 2011

स्वाध्याय व तप

मार्च २००० 


स्वाध्याय के कई चरण हैं, केवल पठन ही नहीं मनन भी आवश्यक है, मनन के बाद जीवन में उसको व्यवहार की कसौटी पर कसना होगा फिर उसके द्वारा प्राप्त अनुभूति को जानना, यही ज्ञान है. हम जो भी कार्य करते हैं उसके बाद हुई सूक्ष्म अनुभूतियों को यदि समझा व जाना नहीं तो ज्ञान अधूरा है.


विपरीत वातावरण में रहकर भी मानसिक संतुलन बनाये रखना ही तप है, इस तरह संतुष्ट रहने से आत्मिक बल बढ़ता है, जितनी बाधाएं पार कर हम आगे बढ़ते हैं उन्हें यदि तप मानकर चलेंगे तो बाधाएं सुखकर प्रतीत होंगी, क्योंकि सुख-दुःख तो हमारे ही पूर्व कर्मों के परिणाम हैं. दुःख आये तो कर्म काट जाता है और सुख आये तो अभिमान ही बढ़ाता है, जब हृदय में कुछ चुभा हो और मन कसमसाता हो तो पहले बाहर न देखकर भीतर देखना होगा, क्योंकि मन की भावनाओं को ही मन प्रतिबिम्बित करता है, हृदय की विशालता जहाँ सहजता लाती है वहीं क्षुद्रता अशांति का कारण बनती है. टैगोर ने कहा था कि उनके हृदय की सहजता, सरलता व सहनशीलता ही उन्हें यहाँ तक लायी है.

Saturday, May 21, 2011

धर्म


मार्च २०००
मन को विकारों से मुक्त रखना ही धर्म है. धर्म मात्र बौद्धिक विलासता या तर्क-वितर्क का विषय नहीं है, धर्म तो अनुभव की चीज है, धारण करने से ही धर्म फलता है. ज्योंही मन में राग-द्वेष, अहंकार, मोह, लोभ या ईर्ष्या या अन्य कोई विकार जगता है त्यों ही कुदरत की ओर से फल मिलता है कि व्याकुलता और दुःख मन को घेर लेते हैं. विकारों से मुक्त मन सद्भावना, करुणा और मैत्री से भर जाता है, जिसका परिणाम होता है मन में शांति और आनंद. जो धर्म को जानता, मानता और उसका पालन करता है, वह मन को शुद्ध करने का प्रयास ही नहीं करेगा बल्कि सदा इसी चेष्टा में रहेगा. निर्मल मन का आचरण सदा दूसरों के लिये व अपने लिये सुख लाता है, अशुद्ध मन का आचरण सारे वातावरण को संतापित करता है, अपना व दूसरों का भी अमंगल लाता है. मन की चादर पर कोई दाग न लगे, वह कोरी की कोरी ही रहे इसके लिये हमें अंतर्मुखी होकर उस पर नजर रखनी होगी. 

Friday, May 20, 2011

जीवन


फरवरी २०००
जीवन एक अदभुत उपहार है, जो हमें मिला है, इसे सही अर्थों में जीना ही एक सजग मानव का सर्वोपरि उद्देश्य है. हमारे प्रत्येक छोटे-बड़े कार्य, विचार, और वाणी का प्रभाव न केवल हम पर बल्कि हमारे सम्पर्क में आने वाली प्रत्येक वस्तु या व्यक्ति पर पड़ता है, अतः प्रतिपल सजग रहकर व अपने उत्तरदायित्व के प्रति जागरूक रह कर ही हमें अपने व्यवहार को निर्देशित करना चाहिए.
जीवन अपने आप में एक अद्भुत और अनमोल शै है, एक नारी के लिये यह और भी महत्वपूर्ण बन जाता है क्योंकि वह इस रहस्यमय सृष्टि का क्रम चलाए रखने में सहायक है, वह माँ है, प्रेम, स्नेह और ममता उसका सहज स्वभाव है. इस जगत का व्यापार प्रेम के कारण ही चल रहा है. युगों –युगों से नारी जाति ने त्याग और बलिदान के असंख्य दीप जलाये हैं जो उनके हृदय के उत्कट प्रेम के ही प्रतीक हैं क्योंकि जहाँ शुद्ध प्रेम होता है त्याग वहीं संभव है, हमारे देश की संस्कृति भी जीवन के इसी सुन्दरतम पक्ष की ओर इन्गित करती है, वहाँ हिंसा, लोभ और अहंकार का कोई स्थान नहीं. भारतीय साहित्य भी जीवन के उच्चादर्शों को प्रमुखता देता है.   

Thursday, May 19, 2011

मन


                        जनवरी २०००
नाम-रूप ही जगत है और उसके भीतर जो छिपा है, वह है ब्रह्म ! उसे ढूंढने के लिये पहले मन को देखना होगा. जब मन चाह रहित होगा तभी उसका रूप स्पष्ट होगा, उस रूप का इस बाहरी नाम-रूप से कोई सम्बन्ध नहीं है.
                                                                    
इंसान के पास करने को कुछ न हो तो कैसा व्याकुल हो उठता है, अपना आप भी उसे बेमानी लगने लगता है. तभी श्रीकृष्ण भगवतगीता में कर्मयोगी बनने का उपदेश देते हैं. कर्म ही मनुष्य को मनुष्य बनाता है. प्रत्येक मनुष्य को कर्म करने का अधिकार मिलना ही चाहिए, अन्यथा उसके शरीर के साथ-साथ मन को भी जंग लग जायेगा.

मानव मन की कोई थाह नहीं, सोचने बैठो तो प्याज की परतों की तरह खुलता चला जाता है, कभी लगता है सब कुछ अपने वश में है और तभी अचानक यह अपना संतुलन खो बैठता है, डगमगाने लगता है. लेकिन विवेक की लगाम इसे गिरने से बचा भी लेती है... वास्तव में मन शक्तिशाली है और कभी विचलित भी न हो यदि भावनाएँ जो आधारहीन होती हैं उसे कमजोर न बनाएँ. मजबूती से विवेक रूपी लगाम को थामे हुए जो क्षुद्र भावनाओं के ज्वार को पार कर जाये, चाह को पनपने से पूर्व ही कुचल डाले, चाह जो बंधन में डालती है, तब वह निर्द्वन्द्व हो अपना मार्ग तलाश लेगा.