Saturday, July 9, 2011

जीवन और मृत्यु

लहरें सागर में जन्मती हैं, रहती हैं और नष्ट होती हैं, पर उन्हें इसका भान नहीं होता, ऐसे ही हम ईश्वर में जन्मते, रहते और नष्ट होते हैं, हमें अपने अस्तित्त्व का भान अपने जीवित रहने का भान मृत्यु के समय होता है. जीवन भर हम मृतकों के समान जीते रहते हैं, एक बेहोशी की हालत में. तभी हमें अपने भीतर रहने वाले ईश्वर के दर्शन नहीं होते. हम हर पल बाहर की ओर भाग रहे हैं, और फिर एकाएक मौत का परवाना आ जाता है, तब पीछे मुडकर देखने का वक्त भी नहीं होता. हम समय रहते जाग सकते हैं, इसके लिये मन के द्वार को झाड़-बुहार कर उस पाहुने की प्रतीक्षा करनी होगी जो आने के लिये स्वयं ही प्रतीक्षा कर रहा है.   

2 comments:

  1. अनीता जी, बहुत अनुपम विचार हैं आपके.
    उसकी चाहत ही सर्वोपरि है.उसे भी चाहत है ऐसी चाहत की.

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  2. अनीता जी, कम शब्‍दों में बडी बात कह दी आपने।
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