Thursday, July 28, 2011

मैं कौन हूँ


july 2001
साधक के जीवन में एक स्थिति ऐसी भी आती है जब परमेश्वर की स्मृति में उसका मन सहज रूप से लगने लगता है, उसे लगाना नहीं पड़ता, अर्थात वह अपने वास्तविक रूप को पहचान लेता है. बस एक झीना सा पर्दा है हमारे और उसके बीच. जब तक यह पर्दा है हमें उसकी पूजा करनी पड़ती है जबकि वह हर क्षण हमारी श्रद्धा का केन्द्र है ही. वही ‘मैं’ का आधार है, आत्मा के आधार के बिना मन कैसे टिक सकता है. बाहरी सुविधाओं के पीछे हम भागते रहते हैं पर कोई न कोई कमी रह ही जाती है और इसी में जीवन पूरा हो जाता है. उस एक से प्रीति होने पर परम सुविधा मिलती है जो कभी छूटती नहीं. हम वास्तव में क्या हैं यह न जानने के कारण ही सारा भ्रम है, एक अँधेरी रात में एक ठूंठ को एक व्यक्ति चोर समझता है दूसरा साधु और तीसरा रोशनी करके उसकी असलियत जान लेता है. हमें भी इस जगत की असलियत जाननी है, न ही यह हमारे राग के योग्य है न ही द्वेष के, तभी हम मुक्त हैं और वही हम हैं. 

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