Friday, September 30, 2011

ध्यान क्या है


अप्रैल २००२ 

यदि मन एक ही अवस्था में टिक जाता है यही ध्यान है. यदि हम मन को प्रयास करके नहीं ठहरा रहे हैं, यह स्वतः विश्राम में है, निर्विकल्प बोध ही शेष है, यही ध्यान है और यदि कुछ देर तक मात्र बोध ही शेष रहे कोई संदेह भीतर न हो, और तब भीतर एक सहजता का जन्म होता है जिसे कोई ले नहीं सकता, यही ध्यान है.

Thursday, September 29, 2011

आनंद का स्रोत


मार्च २००२ 
ईश्वर के प्रति या कहें शुभ के प्रति, सत्य के प्रति या ज्ञान के प्रति जिस हृदय में प्रेम नहीं है वह शुष्क मरुस्थल के समान है जहां झाड़-झ्न्काड़ के सिवाय कुछ नहीं उगता, जहां मीठे जल के स्रोत नहीं हैं. जहां तपती हुई बालू है जिसपर दो कदम चलना भी कठिन है. जो मरुथल स्वयं को भी तपाता है और अन्यों को भी. जिस हृदय में भगवद् प्रेम है वह अपने भीतर स्थित उस आनन्द के स्रोत से जुड जाता है जो है तो सब के भीतर पर अनछूया ही रह जाता है.

Tuesday, September 27, 2011

श्रद्धा और मन


मार्च २००२ 

हम अपना कीमती सामान सम्भाल कर रखते हैं, पर अपने इकलौते मन को इधर-उधर रखने में नहीं हिचकिचाते. मन की तिजोरी है परम के प्रति श्रद्धा भाव, उसमें मन पूरी तरह सुरक्षित रहता है और बुद्धि को क्यों खुला छोड़ दें उसे भी परम को अर्पित कर दें तो हम पूर्णतया सुरक्षित हो जाते हैं. अन्यथा मन व बुद्धि को चुराने के लिए सारा जगत है, या तो मन चंचलता के कारण स्वयं ही भटक जायेगा. इसलिए अपना मन व बुद्धि ईश्वर के पास रख देने में ही लाभ है. कोई भी अन्यथा भाव तब मन में टिक ही नहीं पाता, परम की स्मृति उसे हटा देती है.

Monday, September 26, 2011

भक्ति मार्ग


मार्च २००२ 
भक्ति मार्ग सरल है, लेकिन भक्ति उसी के हृदय में पल्लवित होगी जो स्वयं भी सरल है. भगवद् गीता में भगवान कृष्ण का वचन है कि निराकार की अपेक्षा साकार की पूजा करना साधक को शीघ्र प्रगति प्रदान करता है. अचिन्त्य, अव्यक्त, निराकार की अपेक्षा मनमोहन का सुहावना रूप हृदय को शीघ्र एकाग्र करता है. भक्ति मार्ग में हमें कुछ छोड़ना नहीं पड़ता बल्कि इष्ट को मन से जोड़ना होता है. धीरे-धीरे मन स्वयं ही व्यर्थ के कार्यों से विरक्त होता जाता है, आत्म ज्ञान प्रकट होता है. और इस सत्य की अनुभूति भी होती है कि हम नश्वर देह नहीं हैं ईश्वर के अविनाशी अंश हैं. 

Friday, September 23, 2011

सच्चिदानन्द और हमारा मन


मार्च २००२ 

कृष्ण हमारे अंतरंग हैं, वह हमारे मन के उस कोने तक भी पहुंचे हुए हैं जहां हम स्वयं भी नहीं गए हैं. उनसे हमारा सम्बन्ध आदिकाल से है, सदा से है, नित्य है और जो भी सुख हम इस जग में होने वाले सम्बन्धों से पाते हैं वह मात्र उसका प्रतिबिम्ब है. हम प्रतिबिम्बों से कब तक मन बहला सकते हैं, हमारे सारे जप-तप नियम का उद्देश्य है मन की शुद्धि, ताकि हम उस सच्चिदानंद के दर्शन कर सकें, मन चेतन है सत है और आनंद स्वरूप है लेकिन हम मन के इस रूप को नहीं जानते जैसे कोई किसी महापुरुष के सम्पर्क में हो पर उसके गुणों से अनभिज्ञ हो तो उसे कोई अनुभूति नहीं होगी. परम सत्य को न जानने के कारण ही हम उससे दूर रहते हैं, जबकि वह हमें इसकी जानकारी देना चाहता है.

Thursday, September 22, 2011

गुणातीत


मार्च २००१ 

मानव अपनी प्रकृति का दास होता है. कृष्ण ने सच ही कहा है कि गुण ही गुणों को वर्तते हैं. हम अपनी प्रकृति के अनुसार कर्मों को करते हैं फिर कर्म बंधन में पड़ जाते हैं. यही कर्म हमारे अगले जन्म का कारण बनते हैं और यह क्रम चलता रहता है. कभी तो इस पर रोक लगानी होगी, गुणातीत होना होगा. ईश्वर की शरणागति के अतिरिक्त कोई उपाय नहीं. वही हमें अभय प्रदान करते हैं. पूतना, अघासुर, बकासुर, तृणासुर, शकटासुर और नरकासुर के रूप में स्थित काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मत्सर का वह खेल-खेल में नाश कर देते हैं. कितनी अद्भुत है कृष्णलीला !

Wednesday, September 21, 2011

आत्म ज्ञान


मार्च २००१ 

ईश्वर को हम याद तो करते हैं पर अपने सुख की कामना के लिए, हम यह चाहते हैं कि ईश्वर हमारे जीवन को कष्टों से मुक्त रखे. हम ईश्वर को चाहते ही कहाँ हैं ? हम तो सुख-सुविधाओं के आ कांक्षी हैं फिर यदि वह हमसे दूर है तो इसमें क्या आश्चर्य है. लेकिन ईश्वर इतने दयालु हैं कि वे हमारा साथ नहीं छोड़ते, आत्मा के साथ वे हमारे हृदय में रहते हैं. आत्मा अपने को उनमें देखने के बजाय मन, बुद्धि व अहंकार में देखती है, और सुख –दुःख का अनुभव करती है. उसे स्वयं का ज्ञान हो जाने पर मन शांत हो जाता है, बुद्धि प्रज्ञा में बदल जाती है, अहंकार विगलित हो जाता है तब आत्मा अपने मूल स्वरूप यानि परमात्मा में स्थित हो जाती है. यह जगत भी तब उसी तरह स्वप्नवत् प्रतीत होता है जैसे स्वप्न का जगत है. जो आंख खुलते ही नष्ट हो जाता है. तब हम इस जगत में रहते हुए भी इसमें लिप्त नहीं होते. स्वयं को कर्ता व भोक्ता नहीं मानते, प्रकृति अपने गुणों के अनुसार कर्म करवाती है और परमात्मा ही परम भोक्ता है, यह ज्ञान हमें मुक्त करता है. 

Tuesday, September 20, 2011

माया और मायापति


कृष्ण आदि देव हैं, जगत के आधार हैं. चैतन्य के ऊपर ही जड़ टिका है. यहाँ सब कुछ प्रकृति के गुणों के अनुसार ही हो रहा है जो उनकी अध्यक्षता में काम करती है. तब इस दुनिया में भय करने का कोई कारण नहीं रह जाता. चिंता अथवा दुःख का भी कोई वाजिब कारण नहीं है. यह तो उसका ही खेल है उसकी माया है. हमें उसकी  माया से मोहित होने की क्या आवश्यकता है. वह स्वयं हमें भीतर से इस माया से मुक्त होने के लिए प्रेरित करता है. इस खेल के नियम भी तो उसके ही बनाये हुए हैं. कृष्ण को अपने जीवन का केन्द्र बना लें तो जीवन के सारे शून्यों को अर्थ मिल जाता है. परमात्मा से प्रेम करना उतना ही सहज है, जैसे पंछियों का गगन में उड़ना, बूंद का सागर में मिलना. हमें सहज होकर इस संसार में रहना है तब जीवन एक उपहार बन जाता है और मृत्यु एक वरदान.

Monday, September 19, 2011

अंश और अंशी


फरवरी २००१ 

जो जिसका अंश है वह उससे दूर नहीं रह सकता, जैसे धरती से उत्पन्न वस्तुएं धरती की ओर आकर्षित होती हैं, वैसे ही हम उस चैतन्य के अंश होने के कारण उसी की ओर खिंचते हैं. उस तक पहुंचने के लिए हमें कोई प्रयास भी नहीं करना है, यह उतना ही सहज है जितना ऊपर से गिरायी वस्तु का नीचे आना. बल्कि उससे दूर जाने के लिए हमें अथक प्रयास करना पड़ता है. लेकिन संसार ऐसे ही चलता है विपरीत दिशा में. जो सहज है, सरल है उसे भाता नहीं. वह सदा अपने अहंकार की पुष्टि के लिए कठिन मार्ग को ही अपनाता है. एक दृष्टि से देखा जाये तो संसारी ज्यादा तप करता है भक्त से भी और ज्ञानी से भी.   

Friday, September 16, 2011

तीन अवस्थाएं


जनवरी २००२ 

हम तीन स्तरों पर जीते हैं, एक भौतिक स्तर यानि देह के स्तर पर, दूसरा मानसिक स्तर तीसरा आत्मिक स्तर जहां देह व मन की कोई पहुंच नहीं है. इन तीन स्तरों की तुलना पदार्थ की तीन अवस्थाओं से की जा सकती है- ठोस, द्रव व गैसीय अवस्था. ठोस शरीर है जहां अन्यों से हमें अपनी भिन्नता का भास होता है. यहाँ हमें दुःख का अनुभव अधिक होता है. मन तरल है जिस तरह दो द्रव आपस में मिल सकते हैं वैसे ही सूक्ष्म होने से मन भी मिल सकते हैं, भिन्नता कम हो जाती है. यहाँ सुख की अनुभूति अधिक होती है. तीसरी है आत्मा जो सूक्ष्मतम होने से वाष्प की तरह सब जगह व्याप्त है. आत्मा के स्तर पर कोई भेद नहीं रह जाता. यहाँ न सुख है न दुःख, आत्मा दोनों से परे  है. 

Thursday, September 15, 2011

कामना और सुख


जनवरी २००२ 

कोई कामना जब हमारे हृदय में उठती है तो वहाँ रिक्त स्थान बन जाता है, वह हमें चैन से बैठने नहीं देता किसी न किसी तरह उसकी पूर्ति हम करना चाहते हैं. पर यह जरूरी तो नहीं कि वह रिक्तता भर ही जाये, अर्थात हमारी हर कामना पूरी हो ही जाये. उसकी पूर्ति के रूप में सुख ही तो  हम बाहर से लेना चाहते हैं, यदि अपने अंतर के सुख के स्रोत का पता चल जाये तो सुख भीतर से बाहर देने की कला आ जायेगी और भीतर की रिक्तता भी स्वयंमेव भरती चली जायेगी. 

Wednesday, September 14, 2011

मृत्यु बोध


दिसम्बर २००१ 
हर रात हम एक छोटी मृत्यु का अनुभव करते हैं, पर एक विश्वास के साथ कि कल सुबह पुनः सूर्योदय देखेंगे. एक दिन ऐसी भी रात आएगी जिसकी सुबह हमारे परिचित माहौल में नहीं होगी. उस वक्त हमारा ज्ञान, हमारा ईश्वर के प्रति विश्वास ही हमारे साथ होगा. जीवन सदा के लिए नहीं मिला है, यह स्मरण रहे तो हम इसे पूर्णता से जी सकते हैं, अन्यथा व्यर्थ की दौड में पड़ कर हम अपनी ऊर्जा बहाते हैं और कुछ सार्थक हाथ नहीं आता.  

Monday, September 12, 2011

भक्ति


दिसंबर २००१ 

भक्ति हृदय को शुद्ध करती है, इससे सामर्थ्य उत्पन्न होता है. ईश्वर की समीपता का अनुभव हमें भक्ति से ही होता है. भक्ति सरल है, सहज है, अन्य योगों के सिद्धांत कठिन लग सकते हैं पर भावपूर्ण हृदय को ईश्वर को समर्पित कर देना सरल है. भक्ति में स्वयं से ही स्वयं को पाना है, जबकि अन्य योगों में शरीर, मन व बुद्धि आदि को साधन बनाना है. 

Saturday, September 10, 2011

मिलन का क्षण


दिसंबर २००१ 

हमारा मूल तो वही है और वही हमें पोषता है. हमने न जाने कितने लेप खुद पर चढा रखे हैं. कभी बेबस और निरीह होकर सहानुभूति बटोरना चाहते हैं, कभी कुछ करके प्रशंसा बटोरना चाहते हैं. स्वयं राजा होकर मंगता बने बैठे हैं. कल्पना और स्मृति की दुनिया में विचरण करने वाले हम खुद से ही अपरिचित हैं. एक क्षण में ही यदि हम यह मुल्लमा उतार फेंके तो वही क्षण मिलन का क्षण होगा. एक पुकार यदि दिल से उठे तो वह सारे पर्दे खोल कर अपनी झलक दिखाता है. वह हमारा हितैषी हर पल बाट जोहता है कि कब हम भूले-भटके वापस घर लौट आयें.

Thursday, September 8, 2011

आत्मा की भाषा


दिसम्बर २००१ 

परदेश में कोई अपनी भाषा बोलने वाला मिल जाये तो जैसी खुशी होती है वैसी ही ध्यान में स्वयं को परमात्मा से मिलकर होती है... हमारी आत्मा उसी की भाषा बोलती है, मौन की भाषा ! जबकि मन संसार की भाषा बोलता है.. तभी दिल व दिमाग में द्वंद्व बना ही रहता है. यही द्वंद्व सारे तनाव का कारण है. ध्यान में चेतन मन शांत हो जाता है. मौन में संवाद होता है जिसकी भाषा अनूठी है और ध्यान से आने के बाद भी उसकी तरंगे मन तक पहुंच जाती हैं, कुछ पल को वह भी आत्मा के संग हो लेता है पर फिर दुनियादारी की धूल उस पर चढ़ जाती है, इसीलिए नियमित ध्यान वैसे ही जरूरी है जैसे नियमित स्नान.

Wednesday, September 7, 2011

क्षमा भाव


आध्यात्मिकता का एक सूत्र है, सदा दूसरों को क्षमा करते जाना...यदि हमने ऐसा स्वभाव नहीं बनाया तो आनंद व शांति हमसे दूर ही रहेंगे. आत्मभाव में स्थित रहना हमारा प्रथम और अंतिम कर्त्तव्य है, यदि हम हृदय को द्वेष से मुक्त नहीं रख पाए अर्थात अन्यों के दोष दर्शन में ही लगे रहे तो यह सम्भव ही नहीं हो सकता. एक सूक्ष्म बात यहाँ ध्यान देने की यह है कि मन व बुद्धि भी आत्मा के लिए पर ही हैं, अत स्वयं को भी दोष नहीं देना है... ईश्वर की न्याय व्यवस्था में अखंड विश्वास ही हमें ऐसा करने का साहस देता है.  

Tuesday, September 6, 2011

आत्मा का स्वराज्य


हमें अपने भीतर स्वराज्य की स्थापना करनी है. मन व इन्द्रियों का स्वामी बनना है. स्वयं का राज्य स्थापित होने का अर्थ है स्वयं को जानना और तब आनंद के लिए प्रयत्न नहीं करना पड़ता, सारा का सारा विषाद न जाने कहाँ चला जाता है. भय भी हृदय से पलायन कर जाता है. भाव शुद्धि होती है, प्राण शक्ति बढती है, और कुछ न भी हो तो परमात्मा के प्रति भक्ति का जन्म होता है. यही निष्काम भक्ति हमें पूर्ण संतुष्टि देने में समर्थ है. संसार की अन्य कोई वस्तु हमें सदा के लिए तृप्त नहीं कर सकती. परम चेतना ही इस विश्व का कारण है. एकमात्र उसी का शासन हमें अपने मन पर स्वीकार करना होगा यदि हम सदा के लिए परम शांति की कामना करते हैं.

Sunday, September 4, 2011

साधन और साध्य


नवम्बर २००१ 

प्रियजनों के स्नेह में जो आनंद झलकता है वह हमारी आत्मा का ही प्रकाश है. राग-द्वेष अर्थात आसक्ति व विरक्ति मन के कार्य हैं, स्वास्थ्य-रोग आदि देह के, जो सुख-दुःख के रूप में हमे मिलते हैं. वह हमारा वास्तविक परिचय नहीं है. आत्मा ही हमारा सच्चा स्वरूप है. देह व मन तो उपकरण मात्र हैं, साधन हैं, इनकी तृप्ति साध्य नहीं है आत्मा का पूर्ण उद्घाटन ही मानव का साध्य है. उसी में आनंद है और उसी में हमारी शक्तियों का पूर्ण विकास सम्भव है. मन यदि छोटी सी धारा है तो आत्मा सागर. जब तक धारा सागर तक न पहुंचे उसे चैन कहाँ से आयेगा.