Friday, December 28, 2012

साध्य ही जब बनता साधन


दिसंबर २००३ 
हमारा प्राप्तव्य यदि ऊँचा होगा तो साधन भी उत्तम अपनाएंगे. साध्य और साधन जब एक हो जाते हैं, तब जीवन में समता आती है. हृदय जब समभाव में स्थित रहता है तब कर्मों के बंधन नहीं बंधते. लक्ष्य यदि विस्मृत हो गया तो जीवन में पुलक नहीं रहती, रंग नहीं रहता और ऐसा जीवन भारस्वरूप ही होता है खुद के लिए और अन्यों के लिए भी. मृत्यु का सामना करने की तैयारी यदि हमने नहीं की तो सिवाय पछताने के कुछ हाथ नहीं आयेगा. उस समय जो हमारे साथ जायेगी वह  हमारी चेतना होगी, प्रज्ञावान चेतना...प्रज्ञा तभी जगेगी जब जीवन में ध्यान होगा, मन स्थिर होगा, उसके लिए ज्ञान चाहिए, ज्ञान भक्ति के बिना नहीं टिकता. भक्ति तभी मिलेगी जब सुमिरन होता रहे औए सुमिरन तभी होगा जब परम ही हमारा लक्ष्य हो, उसे जानने व पाने की चाह भीतर उठे. मन रूपी चरखे में जब श्वास रूपी धागा काता जाता है, और उन श्वासों में उसके नाम की गूंज उठती है तब जो चादर बिनी जाती है वही प्रज्ञा है. तब अंतर में आनंद का स्रोत छलकता है, उस सोते में सारे शिकवे-शिकायतें, चाहते डूब जाती हैं, रह जाती है मात्र शीतलता और सहजता.

Thursday, December 27, 2012

पावन प्रेम परम प्रसाद


दिसंबर २००३ 
प्रेम साकार भी है निराकार भी, वह सूक्ष्म भी है स्थूल भी, प्रेम जागृति भी है, परम सुषुप्ति भी. वह  अनिर्वचनीय है, वह जब हृदय में उत्प्न्न होता है तो कोई द्वंद्व नहीं रह जाता, कोई विरोध नहीं रह जाता, तब कोई विचार भी नहीं रह जाता, क्योकि विचार की उपस्थिति का अर्थ है द्वंद्व, जहां संकल्प होगा तो विकल्प भी होगा. प्रेम की उपस्थिति में मन संकल्प-विकल्प रहित हो जाता है, उसी क्षण ध्यान घटता है, भक्ति घटती है, इस अवस्था में आकर ही हम पूर्ण सहजता का अनुभव करते हैं, और तब हमारे कार्य भी सहज होते हैं, वचन भी और विचार भी, उनमें कोई विरोध नहीं रहता, अन्तकरण की सहज प्रेरणा से उत्पन्न, जैसे धरती से निर्झर फूटता है, उसका सौंदर्य अनूठा होता है. प्रेम की यह अनुभूति जब एक बार हो जाती है तो उसकी महक जीवन में भर जाती है. वह हृदय में बार-बार प्रकट होना चाहती है. कभी जीवन की आपाधापी में हम उसे भुला भी बैठें पर वह सारी बाधाओं को पार करके स्वयं को प्रकट कर ही देती है. प्रेम ज्ञान से उपजता है और ज्ञान प्रेम से, और दोनों की उपस्थिति में किया गया कर्म बाँधता नहीं, क्योकि वह न कुछ पाने के लिए किया गया होता है न कुछ देने के लिए. प्रेमिल हृदय आकांक्षा रहित होता है, वह उस बादल की तरह होता है जो बरस कर स्वयं को हल्का कर लेता है और कुछ नहीं चाहता. उसके कर्म अस्तित्व को अर्पित हैं.

Wednesday, December 26, 2012

राधे, राधे ! श्याम मिला दे



कान्हा हमारा परम सुह्रद है, हम उसे भुला देते हैं, प्रकृति के गुणों के अधीन होकर स्वयं को उससे पृथक मानते हैं, पर वह हमें चेताता है. हम उससे बिछड़ जाते हैं फिर मिल जाते हैं. प्रकृति और पुरुष का यह खेल अनन्तकाल से चल रहा है, जीव स्वयं को प्रकृति का अंश मानकर उस पर विजय प्राप्त करना चाहता है, पर प्रकृति स्वयं पुरुष के अधीन है, वह नित नए खेल दिखाती है ताकि थक-हार कर बंदा उसकी शरण में आ जाये. तब वह हमारी सहायक हो जाती है, गुणातीत होने पर हम नित नवीन आनंद का अनुभव कर सकते हैं, जो हमारा सहज स्वभाव है. सहजता को भुला देने पर हम कल्पनाओं के जाल में खुद को उलझा हुआ पाते हैं, पर मुक्ति हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है.

Tuesday, December 25, 2012

मानव होना सीखें हम


दिसंबर २००३ 
मानव एक पुल है, जिसके एक ओर पशुता है और दूसरी ओर देवत्व, चुनाव उसके हाथ में है, क्रोध, हिंसा उसे पशु के समान बनाते हैं, प्रेम, उदारता देवों के समान. ऊर्जा भीतर एक ही है, दिशा भिन्न है, हर पल उसे दोनों में से चुनाव करने का अवसर मिलता है, यही तनाव उसे व्यथित किये रहता है, पशुता में उसका आकर्षण है क्योंकि वहाँ कोई जिम्मेदारी नहीं, देवत्व उसे चाहिए पर कीमत चुकाए बगैर, इसी कशमकश में मानव कहीं भी नहीं पहुंच पाता. नशा करके वह इस चुनाव से मुख मोड़ लेता है, यह नशा मादक द्रव्य का भी हो सकता है, धन, पद या यश का भी. वह अपनी एक मनमोहक छवि बना लेता है, और स्वयं ही धोखे में आ जाता है. इस पुल से निजात पाने का एक उपाय है, एक नई दिशा की तलाश, केवल मानव होने की आकांक्षा, जहां है वहीं रहकर स्वयं में टिक जाने का प्रयास, अपने भीतर जाने का प्रयत्न, तब चुनाव से परे होकर जीना होगा, जब जो मिले उसे सहज ही स्वीकारना, अमृत हो या विष दोनों को समता की भावना से ग्रहण करना. न कुछ पाने की चाह हो न कुछ त्यागने की, ऐसा मन ही परमात्मा की निकटता को अनुभव कर सकता है.

Monday, December 24, 2012

घूँघट के पट खोल रे



संतजन कहते हैं कि हमने मन को कई परतों में लपेट रखा है, जैसे बिजली की तार पर पहले प्लास्टिक की परत, फिर कपड़े की परत लगी होने पर, छूने पर भी कुछ महसूस नहीं होता, इसी तरह हमारे मन पर भीं जाने कितनी परतें चढ़ी हैं, तभी तो ईश्वर का नाम लेते रहने पर भी कुछ नहीं होता. उसके प्रति कृतज्ञता के भाव अंतर में नहीं उपजते न ही उसकी अनंत कृपाओं का स्मरण होता है. प्रमाद और व्यर्थ की कामनाओं की परत उसे हमसे दूर ही रखती है. अतीत का विषाद और भविष्य के स्वप्न हमें ऊपर उठने से रोकते हैं, जैसे कोई पैर बड़ा होने पर भी छोटे आकार के जूते पहने ही रहे तो पैर छोटे ही रह जायेंगे. हम जैसे उसे दूर-दूर से ही याद करते हैं, उसके निकट आने से डरते हैं, क्योंकि ऐसा करने के लिए हमें अपने को खोलना होगा. हम उसी से शांति चाहते हैं और अशांति का साधन जुटाए रहते हैं. यह संसार जो प्रतिपल बदल रहा है, हमें स्थिर होने ही नहीं देता, दे ही नहीं सकता, स्थिरता परम का धर्म है, उससे जुड़ते ही एक आधार मिल जाता है, सहजता, सरलता और सरसता तब अनायास ही प्राप्त हो जाती है.

Sunday, December 23, 2012

लो फिर आया नया साल


दिसम्बर २००३ 
नया साल मनाने का सबसे बड़ा उद्देश्य क्या यह नहीं कि हम समय के महत्व को जानें, समय बीत रहा है, पल-पल करके पूरा वर्ष बीत गया और हम अपने लक्ष्य की ओर कितना कम बढ़ पाए ! कितना अच्छा होगा कि हम नए वर्ष में नए बनें, पुरानी व्यर्थ हो चुकी मान्यताओं को छोड़ते चलें, जो भी बोझ हमने अपने मन पर यूँ ही ओढ़ रखा है उसे उतार रखें और हल्के हो जाएँ, क्योंकि जो बीत चुका है, वह मृत है, चाहे वह कितना भी स्वर्णिम क्यों न रहा हो, लौटने वाला नहीं है, और भविष्य अनिश्चित है, निश्चित केवल हमारा वर्तमान ही उसे बना सकता है. वर्तमान में रहना आ जाये तो नूतनता कभी साथ छोड़ती नहीं. हमें वर्तमान में रहकर नित नवीनता का अनुभव करते हैं, संवेदनशील रहते हैं, जागृत रह सकते हैं, ऊर्जावान रह सकते हैं, ऊर्जा का संरक्षण कर सकते हैं. वर्तमान में हमारे पिछले कर्मों की गांठ खुलती है, नया वर्ष आकर यही तो सिखाता है.

Friday, December 21, 2012

जिस मरने से जग डरे


जिसने मृत्यु को जान लिया है, वही जीवन को भी जान सकता है. हमारा जीवन एक अनंत यात्रा है, मृत्यु जिसमें आने वाले पड़ाव हैं, यह पड़ाव कितना लम्बा होगा अथवा कितना छोटा होगा यह हम नहीं जानते. उस दौरान हम भौतिक इन्द्रियों से परे होते हैं, आत्मा को स्वयं को जानने के लिए शरीर का साथ चाहिए, यह तन दुर्लभ है तभी ऐसा कहा गया है. जब तक यह है तब तक यदि सत्य को जान लें तो अशरीरी अवस्था में भी सजगता बनी रहेगी. ध्यान की गहनता मृत्यु का ही अनुभव है. ईश्वर की लीला अचिन्त्य है, वह अपने भक्त को अपना सान्निध्य देता है, इस जन्म में, मृत्यु के बाद और अगले जन्म में भी. यह ज्ञान बंधन से मुक्त करने वाला है, यह ऐसा पथ है जहां कुछ नहीं हुआ जाता है, अहम का वहाँ कोई स्थान नहीं.  

Thursday, December 20, 2012

चाह गयी चिंता मिटी, मनुआ बेपरवाह


ईश्वर के प्रति अनन्य विश्वास कितना सहज है एक भक्त के लिए पर कितना कठिन है एक अभक्त के लिए, जो हवा, धूप और जल की भांति सहज उपलब्ध है, जो है तो हम हैं, बल्कि वही है जो स्वयं को विभिन्न रूपों में प्रकट कर रहा है, वह लीला प्रिय है. वह स्वयं को भक्त के वश में होने देता है. सूक्ष्म से भी सूक्ष्म, विशाल से भी विशाल वह अप्रमेय है. उसकी कृपा होते ही मन अपनी सीमाएं तोड़ देता है, क्षुद्र स्वार्थ की सीमाएं, परमार्थ की बात सोचने लगता है. धीरे-धीरे मन अमनी भाव में आ जाता है. तब कोई चाह नहीं रहती, प्रकृति भक्त के साथ हो जाती है, उसके द्वारा अर्थपूर्ण काम होने लगते हैं, भीतर की छिपी शक्तियाँ जागृत होने लगती हैं. जगत के अधिपति का प्रिय पात्र बन जाने पर जगत का जोर चल भी कैसे सकता है.

Wednesday, December 19, 2012

बरसे हर पल प्रेम किसी का


नवम्बर २००३ 
गुरुमुख होना तलवार की धार पर चलने के समान है. साधक को यह सतत् स्मरण रखना है. लोभ हमें भटकाता है, कृपण बनाता है. सद्गुरु एक दर्पण की तरह है जो हमारे भीतर की सारी कमजोरियों को स्पष्ट दिखाता है. अपनी भूलों पर वेदना होगी तभी उनमें सुधार की गुंजाइश है. सुमिरन होगा तो स्वयं पर नजर जायेगी ही, जैसे चालक का ध्यान पल भर के लिए भी सड़क से हट जाये तो दुर्घटना घट सकती है, वैसे ही यदि सजगता नहीं रही तो हम अपने व्यवहार, अपनी वाणी तथा अपने मन के प्रति उदासीन हो जाते हैं. हमारे स्वयं का हमें ज्ञान नहीं रहता. हमारी शक्ति का दुरूपयोग होने लगता है. संसार रूपी जल मन रूपी नाव में भर जाता है और नाव डोलने लगती है, तब सुमिरन रूपी पतवार ही उसे बचा सकती है. जिसने एक बार भी परम का आश्रय लिया है उसे वह अकेले नहीं छोड़ते. जो एक बार उनके साथ हो लेता है, वह अगर पीछे भी रह जाये तो वहीं से वह उसे अपने साथ ले लेते हैं. हमारा निर्णय हमारे अपने हाथ में है, हम गुरुमुख होना चाहते हैं या मनमुख होना, श्रेय का मार्ग अपनाते हैं अथवा प्रेय का. हमारा लक्ष्य सुख है या आत्मा का आनंद. सुख के पीछे दुःख छिपा है, आत्मा के पीछे परमात्मा स्वयं हैं.

Tuesday, December 18, 2012

एक भरोसा उसी का


जो व्यवहार हम दूसरों से नहीं चाहते वह हमें भी उनके साथ नहीं करना चाहिए. साधक को तो मनसा, वाचा, कर्मणा हर पल सजग रहना है, और यह भी ध्यान रखना है कि हम मन, बुद्धि अथवा शरीर पर भरोसा नहीं कर सकते. शरीर अस्वस्थ हो सकता है, मन बदल सकता है और बुद्धि पलट सकती है. आत्मा सदा एक सा है, ध्रुव है, अटल है, न बदलने वाला है, हमें उसी का आश्रय लेना है, सभी के भीतर वह विद्यमान है सो सभी के प्रति हमारा भाव सम होना चाहिए, अपने समान ही. ध्यान में जब समय का भान नहीं रहता, मन को जैसे पंख लग जाते हैं, उसे ऑंखें भी मिल जाती है, वह सुन भी सकता है, बोल भी सकता है, छू भी सकता है, मन तब सूक्ष्मतर हो जाता है, अपने मूल स्वरूप में आ जाता है, कोई भीतर जग जाता है. वही आत्मा है. ध्यान है मौन धारे निश्चल बैठे रहना, उसके सान्निध्य में रहना जो हमारे कर्मों का साक्षी है, जो हमारे विचारों को हमसे भी पहले पढ़ लेता है, जो हमने प्रेम करता है, जो हमारे सर पर हाथ रखता है, जो हमारे साथ है, जो पुकारते ही उत्तर देता है, जो अनंत काल से है तथा अनंत काल तक रहेगा.


प्रिय ब्लॉगर मित्रों,
लगभग तीन सप्ताहों के अंतराल के पश्चात आपसे मुखातिब हूँ, यात्रा सुखद रही, वाराणसी में देव दीवाली देखने का सुअवसर मिला, बैंगलोर में आर्ट ऑफ लिविंग के आश्रम में रहने का, गौहाटी में गीता मंदिर देखने का, विस्तृत विवरण कुछ समय बाद. ब्लॉग जगत में इस दौरान कितना कुछ लिखा गया होगा, कितना कुछ पढ़ा गया होगा...सब जानने की उत्सुकता लिए आने वाले उत्सवों की बधाई !

Sunday, November 25, 2012

तमाम दुनिया है खेल उसका


वह एक ही है जो सृष्टि के कण-कण में समाया है, तमाम दुनिया है खेल उसका, वह खेल सबको खिला रहा है. जो ऐसा जानता है वह सभी जगह उसी का दर्शन करता है. वह स्वयं जिस तरह स्वप्न में सृष्टि रचता है, उसी तरह इस जगत को स्वप्नवत ही जानता है, तभी वह उसमें फंसता नहीं है, अलिप्त रहता है. सम्पूर्ण सृष्टि रसमय है, पंचभूत भी रसमय हैं तो हम मानव ही क्यों रसविहीन जीवन व्यतीत करें, जबकि हम उन्हीं का अंश हैं. कृष्ण ने हमें वचन दिया है कि वह हमारे कुशल-क्षेम की रक्षा करेंगे. जो उसके निकट आता है वह उसे शक्ति से पूरित करता है. वह जीवनदाता है और जीवन को चलाने वाला भी है. वह हमारे पल-पल की खबर रखता है, वह लीला रचता है एक से अनेक होता है. संतों के रूप में आकर वही मानवों की सुप्त चेतना को जगाता है. वह प्रेम करता है और प्रेम चाहता है. जो आत्मस्थित है वही असली खिलाड़ी है. भक्ति और श्रद्धा के पंख लगाकर हम आत्मा के आकाश में विचरण कर सकते हैं. किनारे पर बैठकर लहरें गिनने की बजाय आत्मा के सागर में गहरे उतरना होगा तभी मोती मिलेंगे. जो किनारे पर रहते हैं उन्हें बार-बार आना पड़ता है, वे किये हुए को पुनः पुन करते हैं सीखे हुए को पुनः सीखते हैं. 



प्रिय मित्रों,  मैं बनारस व बैंगलोर की यात्रा पर जा रही हूँ, अब दिसंबर के तीसरे सप्ताह में मुलाकात होगी. आने वाले वर्ष के लिए तथा क्रिसमस के लिए अग्रिम शुभकामनायें...

Friday, November 23, 2012

भीतर कोई देखे मौन


नवम्बर २००३ 
हम साक्षी मात्र हैं, सुख-दुःख के भोगी नहीं हैं. द्वन्द्वातीत हैं, चिन्मय हैं, अजन्मा, अविनाशी हैं, हम मुक्त हैं. जगत में यह सामर्थ्य नहीं कि हवा के झोंके को बांध सके, चट्टानों को बेधकर आती जलधारा को रोक सके. हम चैतन्य हैं, शाश्वत हैं, मृत्यु हमसे घबराती है, हम कालातीत हैं. काल का हम पर कोई वश नहीं चलता. हमारी शक्ति असीमित है, हम असीम, अनंत गगन के सम व्याप्त हैं. हमसे ही यह संसार है, यह हमारा खेल स्थल है, नाट्यशाला है. प्रकृति के गुण अपना-अपना कार्य कर रहे हैं. गुणों के बद्ध होकर जीव कभी सात्विक, राजसिक अथवा तामसिक भाव में रहते हैं जो जिस भाव में स्वयं है वह जगत को उसी भाव देखता है. हम तीनों गुणों से परे हैं. यह दृष्टि सद्गुरु से प्राप्त होती है और स्वयं ईश्वर इसे दृढ़ता प्रदान करता है. वह हमारे अंतर में रहकर सारे रहस्यों को स्वयं ही खोलता है. सब कुछ कितना स्पष्ट है. हम कहाँ से आये हैं, क्यों आए हैं, कहाँ जाना है, क्यों जाना है, हम कौन हैं, किसके हैं, इन सारे प्रश्नों के उत्तर हमारे भीतर मिलते हैं. सद्गुरु हमें ध्यान सिखाते हैं और अपनी कृपा दृष्टि बरसाते हैं, उस कृपा में जाने कैसा जादू है कि हमारा भीतर-बाहर एक हो जाता है. हम रस से भर जाते हैं. आनंद की एक बाढ़ हमारे भीतर प्रवाहित होती है जो सारे भूत को बहा ले जाती है, हम नवीन हो जाते हैं. सारी दुश्चिंताएँ, सारी कल्पनाएँ जो बद्ध मन के कारण उत्पन्न हुई थीं, नष्ट हो जाती हैं. हम साधना के पथ पर चलने के अधिकारी बन जाते हैं. ईश्वर हमारा हाथ थाम कर स्वयं इस पथ पर ले जाता है.

Thursday, November 22, 2012

अर्थ वही जीवन को देता


अक्टूबर २००३ 
ज्ञान हमें मुक्त करने के लिए है न कि बांधने के लिए, कहीं यह हमारे अहंकार को बढ़ाने का साधन न बन जाये. इसके लिए हमें सतत् सजग रहना होगा. निरंतर आत्मा का विकास करते जाने के लिए आवश्यक है कि हम स्वाध्याय कभी न छोड़ें. अभी पथ पर चलना शुरू ही किया है, फिसलने का भी डर तो बना ही है. संत कहते हैं कि हम अपने दुखों से भी आसक्ति कर लेते हैं, पुराने किसी दुःख को हम बार-बार याद करते हैं और उसके संस्कार को दृढ करते जाते हैं. सुखों को हम अन्यों से छिपाते हैं कि हमारा सुख घट न जाये, हम कितने कृपण हैं. सहन शक्ति भी कम है, हमें कितने छोटे-छोटे सुख-दुख हिला जाते हैं, हमारी नसें तन जाती हैं, जैसे ही कोई अप्रिय घटना घटे या हमारे मन के विपरीत कुछ हो तो हमारी वाणी में रुक्षता छलक ही जाती है. हम जो ईश्वर के भक्त होने का दम भरते हैं, उसके बनाये जगत से ही प्रेम नहीं कर पाते. इसके कण-कण में भी तो उसकी ही चेतना है. वह परब्रह्म ही सबमें समाया है, वह हमारा जितना है उतना ही सभी का है, वह अनंत है उसका प्रेम सभी के लिए अनंत है. जो कोई भी उसे प्रेम से पुकारता है, वह उसकी सुनता है, वह सर्व मंगलकारी है. वह हमारे जीवन को एक अर्थ देता है, वह हमें एक लक्ष्य प्रदान करता है, स्वयं तक पहुंचने का लक्ष्य.



Wednesday, November 21, 2012

ज्योति जल रही उसकी भीतर


अक्टूबर २००३ 
परमात्मा सद्गुरु के रूप में बार-बार धरा पर अवतरित होते हैं. कृपा की फुहार बरसाते हैं. कुम्भ के रूप में हम जिस ब्रह्माण्डीय शक्ति की उपासना करते हैं वह उसी का रूप है. यदि हम उसे अपने जीवन रूपी रथ को हांकने के लिए कहें तो वह तत्क्षण तैयार हो जाते हैं. वह हमारी चेतना की मूर्छा को दूर करते हैं. जीवात्मा रूपी अर्जुन जब परमात्मा रूपी कृष्ण को अपना गुरु बनाता है तो वह उसे प्रेरित करते हैं, ज्ञान प्रदान करते हैं, ध्यान की विधि बताते हैं. अनेकों उपायों से वह अर्जुन की सुप्त चेतना को जागृत करते हैं. अहंकार का आवरण दूर करते हैं. जीवन अमूल्य है, उसी का उपहार है, वही इसका आधार है, हमें उसे ही जानना है जो इस देह और मन के भीतर ज्योति जलाकर बैठा है. जगत तो एक साधन है शरीर को चलाने के लिए, ज्ञान पाने के लिए. कृपा होते ही यह जीवन एक उत्सव बन जाता है. गूंगे की मिठाई की तरह जो भीतर को रस से भर देता है. तब भीतर उजाला ही उजाला भर जाता है, जिसमें सभी कुछ स्पष्ट है, कहीं कोई संशय नहीं रहता.

Tuesday, November 20, 2012

प्यास जगे जब उसकी भीतर


अक्टूबर २००३ 
दुखों से घबराना कैसा, वे तो नमक की तरह हैं, नमक के बिना जैसे भोजन नहीं रुचता वैसे ही जीवन में चुनौतियाँ न हों तो सुख का आनंद नहीं लिया जा सकता. लेकिन इंसान तब तक तो घबराता ही रहेगा जब तक उसे अपने भीतर सुख नहीं मिलता. जब तक वह यह नहीं जानता कि अखंड लौ की भांति ज्ञान की शिखा उसके भीतर निरंतर जलती रहती है. यह स्थिति किसी को तभी प्राप्त होती है जब सत्य को जानने की उसके भीतर ललक हो, तीव्र आकन्ठा हो, प्यास हो, जीवन के रहस्यों पर से पर्दा उठाने की इच्छा हो. तब आत्मा का सूर्य भीतर चमकता है, और तब सुख-दुःख खेल लगते हैं. ज्ञान हमारे हृदय को निर्भीक बनाता है. हमारा जीवन स्वयं द्वारा रचित है, जो कुछ हमने आजतक किया है उसी का परिणाम है आज का पल, जो हम आज करेंगे वही भविष्य बनाएगा. ज्ञानी ऐसा कुछ नहीं करता जो उसे पछताने के लिए विवश करे. वह सहज ही मुक्त रहता है क्योंकि वह अपने भीतर के आनंद से तृप्त रहता है.

Monday, November 19, 2012

सजग रहे जो दुःख से छूटे


अक्टूबर २००३ 
हर तरह की वेदना से मुक्ति के उपाय की खोज, बोधि तथा समाधि की प्राप्ति साधक का लक्ष्य है. उपाय की खोज ही बोधि है. चित्त की निर्मलता ही समाधि है. अपनी भूलों पर वेदना होती है तो हमारी सजगता बढ़ती है. दुःख हमें सिखाता है, क्रोध, मोह, प्रमाद, आलस्य हमारे ताप को बढ़ाते हैं. सजगता ही जिसकी एकमात्र औषधि  है. थोड़ी सी भी असावधानी हमें वेदना देती है वही वेदना फिर सजग करती है. वाणी का संयम नहीं सधता तो मुख से कठोर शब्द निकल जाते हैं. जिह्वा का संयम नहीं सधता तो हम अखाद्य भी खा लेते हैं. मन का संयम नहीं रहा तो व्यर्थ का चिंतन चलता रहता है. मन जब खाली हो तो सुमिरन स्वतः होता है जबकि चिंतन बलपूर्वक करना होता है. हमारा हृदय इतना शुद्ध हो कि वहाँ नित्य सुमिरन चलता रहे, यही समाधि है.

Sunday, November 18, 2012

एक पुकार सदा आती है


अक्तूबर २००३ 
हमारे तन का पोर-पोर, मन का हर अणु परमात्मा के नाम से इस तरह ओत-प्रोत हो जाये कि जैसे पात्र पूरा भर जाने पर जल छलकने लगता है वैसे ही उसके नाम का अमृत हमारे अधरों व नेत्रों से स्वतः ही झलकने लगे. हमारा चित्त जब पूर्णतया तृप्त होगा उसके नाम से भरा होगा तो भीतर के पाप-ताप, अशुभ वासनाएं धुल जाएँगी. उसके नाम में अनंत शक्ति है, वह ऐसा जहाज है जो हजारों को पार लगाता है. हमारे भीतर-बाहर उसकी ही सत्ता है. वह हजारों हाथों से हमें सम्भाले है, हमारी बुद्धि को वही तीक्ष्णता देता है, हमारे प्राणों का वही आधार है. वह ईश्वर अनिर्वचनीय है, वह जब हमारे साथ है तो हमें किसी बात का भय नहीं, कोई आशा नहीं, कोई चाह नहीं. वह मौन में भी बोलता है. हमारे भीतर उसी का मौन छाया है जो तृप्ति प्रदान करता है. हम आत्मा के द्वारा ही उसका अनुभव कर सकते हैं, इसके लिए न तो बल चाहिए न ही बुद्धि, हम जिस कार्य को बिना शरीर, मन, बुद्धि आदि की सहायता के कर सकते हैं वह है ध्यान. वही हमें प्रभु से मिलाता है. कार्य करते हुए यदि कर्तापन नहीं रहे तो भी हम शरीर, मन, बुद्धि से परे ही हुए. ऐसा कार्य भी ध्यान बन जाता है. हमारा जीवन सहज भी है और दुष्कर भी, ईश्वर भी ऐसा ही ही है अति निकट भी अति दूर भी. इन द्वंद्वों से भी मुक्त होना है, तब एक सहज शांति का अनुभव होता है, पर हम ही उसे गंवा देते हैं पर कृष्ण हमारा मित्र हमें बार-बार अपनी ओर ले जाने की चेष्टा करता है.

Friday, November 16, 2012

उत्सव कुछ तो कहना चाहे


दीवाली के दीपक अमावस की रात को पूर्णिमा में बदल देते हैं. हमारे भीतर भी अभी अमावस है, और दीपक जलाने हैं, मन की गहराई में प्रकाश ही प्रकाश है वहीं से इन दीपों के लिए ज्योति मिलेगी पर श्रद्धा का तेल पहले विश्वास के दीपक में हमें ही भरना होगा, तब आत्मा की ज्योति उन्हें सहज ही प्रज्ज्वलित कर देगी. फिर तो प्रकाश का महासागर ही नजर आता है. हमारे भीतर भी पूजा घट रही है, नगाड़े बज रहे हैं, मन मंदिर के द्वार अभी बंद हैं, लेकिन रह रह कर दूर से कोई कृष्ण अपनी बांसुरी की धुन सुनाये ही जाता है, भीतर रस का घट है, अमृत कुम्भ! जो विष के डर से कभी निकाला ही नहीं जाता, उत्सव याद दिलाते हैं कि मिष्ठान का जो रस बाहर से लेकर तृप्ति का अनुभव हम करते हैं वह रस भीतर भी मिल सकता है.  

Thursday, November 15, 2012

जीवन पल पल बढ़ता जाये..


हम विचार से घबराते हैं, ऐसे विचारों से जो हमें हमारे भीतर की कमियों को उजागर करते हैं. हम उस दर्पण में देखना नहीं चाहते जो हमें कुरूप दिखलाये तभी कठिन विषयों से भी हम घबराते हैं, जो हम जानते हैं वह सरल है पर उसी को पढ़ते-गुनते रहना ही तो हमें आगे बढने से रोकता है. जब कोई हमें अपमानित करता है तब वह हमारा निकष होता है, प्रभु से प्रार्थना है कि वह उसे हमारे निकट रखे ताकि हम वही न रहते रहें जो हैं बल्कि बेहतर बनें. स्वयं की प्रगति ही जगत की प्रगति का आधार है, हम भी तो इस जगत का ही भाग हैं. हम यानि, देह, मन, बुद्धि, आत्मा तो पूर्ण है उसी को लक्ष्य करके आगे बढ़ना है.  उसी की ओर चलना है चलने की शक्ति भी उसी से लेनी है. आत्मा हमारी निकटतम है हमारी बुद्धि यदि उसका आश्रय ले तो वह उसे सक्षम बनाती है अन्यथा उद्दंड हो जाती है. आत्मा का आश्रित होने से मन भी फलता फूलता है, प्रफ्फुलित मन जब जगत के साथ व्यवहार करता है तो कृपणता नहीं दिखाता समृद्धि फैलाता है. जीवन तब एक शांत जलधारा की तरह आगे बढ़ता जाता है. तटों को हर-भरा करता हुआ, प्यासों की प्यास बुझाता हुआ, शीतलता प्रदान करता हुआ, जीवन स्वयं में एक बेशकीमती उपहार है, उपहार को सहेजना भी तो है.   

Wednesday, November 14, 2012

आखिर कहाँ हमें जाना है


अक्टूबर २००३ 
जिस क्षण कोई अपने सामने पहली दफा खड़ा हो जाता है, आमने-सामने..उसी क्षण वह सत्य को जान जाता है. उस क्षण उसके भीतर संसार से उठने, जगने और कामनाओं से मुक्त होने की क्षमता पूर्ण विकसित हो चुकी होती है. संतों की वाणी सुनकर हमारे भीतर अपनी वास्तविक स्थिति का बोध जगता है. धर्म के मूल में तीन बाते हैं, हम कहाँ से आये हैं, हम कहाँ हैं और कहाँ जाने वाले हैं? इनकी खोज ही हमें धर्म की ओर ले जाती है. हम उसी एक तत्व से आये हैं, उसी में हैं और उसी में लौट जाने वाले हैं. लेकिन लौटने से पूर्व हमें देखना है कि भीतर सुई की नोक के बराबर भी अहम् न बचे, उसका मार्ग बहुत संकरा है, अहम् मिटते ही सारा अस्तित्व हमारी सहायता को आ जाता है, आया ही हुआ है. भीतर से प्रेरणा मिलने लगती है और हम उसकी ओर बढते चले जाते हैं..जहां वह है वहाँ सभी ऐश्वर्य हैं, जगत कृपण है ईश्वर दाता है, वह जानता है हमारे लिए क्या उचित है और क्या नहीं, वह हितैषी है, अकारण दयालु है, वह ही तो है जिसने यह खेल रचा है.

Sunday, November 11, 2012

नई राह पर नया उजाला


हमें अपने भीतर नया दृष्टिकोण जगाना होगा, अभी मात्र आधा किलोमीटर ही चले हैं, अभी बहुत चलना है, अभी तो प्रारम्भ ही हुआ है, कदम अभी तो चलना ही शुरू कर रहे हैं, गति पकड़ना तो अभी शेष है. मन को उस स्तर तक ले जाना होगा कि ऐसा लगे कोई छलांग लगी है. कितनी ही बार हम ऐसा चिंतन करके जीवन को दिशा प्रदान करना चाहते हैं, पर बार-बार ऐसा क्यों लगता है कि हम कहीं पहुंच नहीं पा रहे हैं, या तो हमारी दिशा भटक गयी है या हमारी गति शिथिल हो गयी है. तब हम यह भूल जाते हैं कि भक्ति, ज्ञान या कर्म स्वयं में फलस्वरूप हैं, वे साधन भी हैं और साध्य भी. वे हमें अपने भीतर उजाले का दर्शन कराते हैं. पूर्ण समपर्ण ही भक्ति है, स्वयं को मात्र देह न मानकर चिन्मय तत्व जानना ही ज्ञान है और सहज प्राप्त कार्य को करना ही कर्म है. फिर जाना कहाँ और पाना क्या ? जब कोई अपेक्षा नहीं तो दुःख-सुख का भी प्रश्न नहीं है. हम तब संसार में रहते हुए भी कमल की नाईं संसार से परे रह सकते हैं. सदा सर्वदा अपने सत्य स्वरूप में स्थित. 

Friday, November 9, 2012

उत्तिष्ठतः जाग्रतः प्राप्त वरान्निबोधताः


अक्तूबर २००३ 
कोलकाता स्थित दक्षिणेश्वर में काली मंदिर में काली की भव्य मूर्ति है. मंदिर का प्रांगण भी विशाल है, सामने ही नदी भी है. परमहंस रामकृष्ण इसी मंदिर में माँ काली से वार्तालाप करते थे. बेलूर मठ में उनकी मूर्ति ऐसी जीवंत है, लगता है वह वही हैं, श्रद्दालुओंको आज भी उनकी उपस्थिति का अहसास होता है. स्वामी विवेकानंद की समाधि भी अनुपम है, उनके कमरे को फूलों से सजाया गया है. पूरे आश्रम में एक अनोखी शांति फैली हुई है. माँ शारदा के कई सुंदर चित्र वहाँ हैं. जीता-जागता ईश्वर इस आश्रम में निवास करता था, उसकी उपस्थिति न जाने कितने सौ वर्षों तक हमें प्रेरित करती रहेंगे. ईश्वर इस सृष्टि के कण-कण में है, वही जीवन है, वही मृत्यु भी है. वही द्वंद्वों को बनाता है पर स्वयं उससे पर है, हमने वह अपनी ओर बुलाता है, वह जैसे कोई खेल खेल रहा है. यह जगत जैसे काली माँ की क्रीड़ास्थली है, हम यदि इस खेल को जीतना चाहते हैं तो उसके पास लौटना होगा, और उसका रास्ता सांप-सीढ़ी के खेल की तरह कई उतार-चढ़ाव से भरा है, जब हमें प्रतीत होता है कि मंजिल सामने है तो कोई सांप हमें डस लेता है और हम नीचे उतार दिए जाते हैं, पर भीतर से कोई कहता है उठो, जागो और मुझे प्राप्त करो.

खाली मन में हुआ उजाला


संत राबिया अँधेरे में खोयी अपनी सूई को बाहर प्रकाश में ढूँढती है, लोग हँसते हैं तो वह कहती है “तुम भी तो अपने मन के अँधेरे में जिस सुख को खो चुके हो वहाँ न खोजकर दुनिया की चकाचौंध में उसे ढूँढते हो. मन के अँधेरे को मिटा कर वहाँ प्रकाश करो और वहीं ढूंढो जिसे बाहर ढूँढ रहे हो. स्वयं प्रकाश नहीं मिलता तो सद्गुरु से मांगो.” सद्गुरु हमें भक्ति प्रदान करते हैं, भक्त के कुशल-क्षेम का भार ईश्वर स्वयं उठाते हैं, जब वह संशयों से घिर जाता है, वह उसे भीतर से प्रेरित करते हैं. शरणागत की रक्षा कृष्ण स्वयं करते हैं. हम जिस तरह स्वप्न में तरह-तरह के रूप बना लेते हैं, पर वह वास्तविकता नहीं है, वैसे ही जो यह पल-पल बीत रहा है एक स्वप्न की भांति ही है. इस सत्य का बोध तब हमें होगा जब हम इस सच्चाई को अनुभव में उतारेंगे, अभी तो हमें मानना है तथा जानने का प्रयास करना है. हम जितना अधिक संवेदनशील होंगें उतना ही अधिक गहन हमारा अनुभव होगा. अनवरत प्रयास के बाद हम तीनों अवस्थाओं(जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति) के पार हो ही जाते हैं. यदि हमें अपनी आत्मा को उड़ान देनी है तो उसे ग्रहणशील बनाना होगा, जब हमारे मन का प्याला पूरी तरह खाली होगा तभी हमें कृपा का प्रसाद मिलेगा. खाली होकर ही हम पाते हैं.

Wednesday, November 7, 2012

एक तू जो मिला...सारी दुनिया मिली


अक्तूबर २००३ 
संत कहते हैं कि उन्हें और हमें काम ईश्वर से ही होना चाहिए, जगत यदि रूठता है तो रूठने दें. ईश्वर को भुलाकर जगत को प्रसन्न करने में लगे रहे तो वक्त हाथ से निकलता ही जायेगा, सिर पर न जाने कितने-कितने विचारों, मान्यताओं और आकाँक्षाओं का बोझ हम ढोते आ रहे हैं, एक अथाह सागर है हमारा मन. जिसका मंथन करो तो कितना कुछ ऊपर आता है, अमृत की एक बूंद पाने से पहले व्यर्थ का कचरा ही मिलता है. हमें स्वयं ही पता नहीं चलता कि अगले पल मन में कुछ देखकर या सुनकर क्या आने वाला है, कैसी बेहोशी में हम जीते हैं. वातावरण का भी असर होता है और भोजन का भी. ज्ञान ही हमें इससे मुक्त कर सकता है. मन रूपी अश्व की लगाम पकड़ना ही सत्संग है, यदि हम मन रूपी अश्व की पूंछ पकड़ते हैं तो कष्ट सहने पड़ते हैं, अभी हम अश्व की पूंछ पकड़े हुए हैं, संत लगाम पकड़ते हैं, उनका अनुसरण करें तो यात्रा कितनी सहज हो जाती है.

Tuesday, November 6, 2012

वही सम्भाले रहता पल-पल


अक्तूबर २००३ 
हमारे जीवन में जब कोई विपत्ति आती है, उसको सहने की शक्ति केवल भक्ति में ही है. हम अकेले नहीं हैं, अस्तित्व हमारे साथ है, वही हमारे जीवन का रथ हांकता है और हमारा सच्चा सुह्रद है, हितैषी है. विपत्ति हमें हिलाना चाहती है पर कोई हमें सम्भाल लेता है, इसका अनुभव हमें कई बार हुआ है, हर बार उसी ने हमें बचाया है जो हमारी आत्मा है. उसे यदि हम भूल भी जाएँ तो वह हमें अपनी याद दिलाता है, वही विपत्ति से बचाकर पुनः शरण में ले आता है. हर क्षण वह हमारे अपराधों को क्षमा करता है, वह क्षमा करता है क्योंकि वह प्रेम करता है, प्रेम की शक्ति अपार है, वह अपने उदाहरण से हमें भी सिखाता है कि हम भी औरों को क्षमा करें, निर्णय सुनाने का अधिकार हमें नहीं है, यदि ईश्वर हमें निर्णय सुनाने लगे तो हम इस धरा पर रहने के काबिल नहीं हैं, पर वह हमें हजारों बार अवसर देता है धीरे-धीरे जैसे कोई बच्चे को हाथ पकड़ कर चलना सिखाता है वैसे ही वह कान्हा हमें जीना सिखाता है. वह अपने प्रतिनिधि सद्गुरु को हमारे जीवन में भेजता है. उनके सान्निध्य में हम परम के मार्ग पर चलते हैं. वह हमें कितने विभिन्न उपायों से अपने वास्तविक स्वरूप का दर्शन कराते हैं. हमारे मन पर अज्ञान की जो मैल जम गयी है, उसे धोना सिखाते हैं. सच्चे हृदय से जब हम उनकी शरण में जाते हैं तो वह कृपा करके आनंद, शांति, प्रेम तथा ज्ञान का उपहार देते हैं, उनकी कृपा के हम पात्र बनें तो वह लुटाने को तैयार हैं. सद्गुरु का जीवन हमारे सम्मुख ईश्वर का रहस्य खोलकर रख देता है.

Monday, November 5, 2012

एक नाम ही आधारा..


अक्तूबर २००३ 
एक ओंकार सतनाम ! जब चित्त शांत हो उसमें संकल्प-विकल्प की लहरें न उठ रही हों, तब एक-एक मोती को, जो श्वास के मोती हैं, प्रभु के नाम के धागे में पिरोते-पिरोते ध्यान में डूबना है. जाग्रत, सुषुप्ति और स्वप्न हम तीन अवस्थाओं को ही जानते हैं, चौथी का हमें पता नहीं, जो ध्यान में घटती है, और ध्यान तभी घटता है जब मन सुमिरन में डूब जाये. जीवन की घटनाएँ उसे छूकर निकल जाएँ, हिला न सकें. माया के आवरण से ढका जो यह जगत है वह नाम उच्चारण के आगे टिकता नहीं. सहजता, सरलता और संतोष के आधार पर जब जीवन टिका हो तो ज्ञान, प्रेम और शांति की दीवारों को खड़ा किया जा सकता है. नाम के जल से जो भीतरी शुद्धि होती है वह विकारों को टिकने नहीं देती, नाम की आंधी जब भीतर के चिदाकाश में उठती है तो बादल छंट जाते हैं, तब हम जीवन की उस उच्चता को प्राप्त करते हैं जो समता से आती है. कोई भी भौतिक या मानसिक कृपणता तब हमें छू भी नहीं पाती, हम पूर्णकाम हो जाते हैं. सत्य ही नाम का साध्य है और सत्य ही साधन है, हमें पूर्ण सत्यता के साथ ही उसको जपना है. आत्मा का सूरज तब भीतर-बाहर एक सा चमकता है.

Sunday, November 4, 2012

भज गोविन्दम भज गोविन्दम



अक्टूबर २००३ 
आदिगुरु शंकराचार्य कृत ‘विवेक चूड़ामणि’ अद्भुत ग्रन्थ है, अनुपम है, महान है. गुरु और शिष्य के मध्य हुए अद्भुत संवाद के द्वारा वेदांत की शिक्षा प्रदान करने का अनूठा प्रयोग ! षट् सम्पत्ति से युक्त सदाचारी शिष्य ही ब्रह्म ज्ञान पाने का अधिकारी है. जीवन में शम, दम, सदाचार. अहिंसादि गुण हों तभी हम प्रभु का ज्ञान पाने के योग्य हैं. अंतर में भक्ति और श्रद्धा भी अनिवार्य है, पूर्ण शरणागत होकर हम जब ब्रह्म के विषय में जानने का प्रयास करते हैं कि उसका स्वरूप कैसा है, ब्रह्म व आत्मा का क्या सम्बन्ध है, तब सद्गुरु बताते हैं, यह जगत ब्रह्म के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है, एक ही सत्ता है जो हमें अनेक होकर भासती है. जब ध्यान में हम अपनी आत्मा का साक्षात्कार करेंगे तो यह ज्ञान होगा कि हमारी आत्मा भी निर्लिप्त, चिन्मय और निर्विकार है.  

Friday, November 2, 2012

काली दुर्गे नमो नमः



अक्तूबर २००३ 
माँ काली का रूप भयानक है, उसके पीछे भी एक रहस्य है. यदि उसके प्रति समपर्ण हो तो भय नहीं रहता, क्योंकि एक ही चेतना प्रेम या भय के रूप में प्रकट होती है, जहां प्रेम है वहाँ भय नष्ट हो जाता है. जो काली से प्रेम करेगा वह निर्भय हो ही जायेगा. उसके हाथ में कटा सिर है, अर्थात अहं का नाश करती है. कटे हुए हाथों का अर्थ है कर्मों का कट जाना. काली कृपा का प्रतीक है, वह मौन है, ज्ञान की अनंत शक्ति है, वह शिव के ऊपर स्थित होकर ही शांत होती है. शिव ही शांत मौन चेतना है, उसमें जब ज्ञान शक्ति का उदय होता है तभी वह  मंगलकारिणी होती है. 

Thursday, November 1, 2012

चिन्मय को पहचानें भीतर


अक्टूबर २००३ 
दुःख का कारण है, कारण को दूर किया जा सकता है, श्रवण करके संतों के वचनों का सार तत्व ग्रहण करना है, तभी हमारे जीवन में परिवर्तन होगा. यह तो सभी का अनुभव है कि जीवन में समस्याएँ आती हैं, रोग है, शोक है, पीड़ा है हमारे चारों और अन्याय है, भ्रष्टाचार है, हमारा मन ही जो निकटतम है, एक दिन में न जाने कितनी बार क्षोभ का शिकार होता है, चाहे क्षण भर के लिए ही सही, कभी लोभ का, मोह का शिकार भी होता है. शारीरिक कष्ट हमें सताता है, अनचाहा भी होता है और यह भी सही है कि सुख का अनुभव भी होता है, कभी कभी शांति व आनंद का अनुभव भी होता है पर वह टिकता नहीं. कोई न कोई लहर आकर उसे बहा ले जाती है. संतो का अनुभव हमारा अनुभव नहीं बन पाता. उनके वचनों का हम पूरी तरह पालन नहीं कर पाते, पर ऐसा तभी होता है जब हम अपने सत्यस्वरूप को भुला देते हैं, ज्ञान की उस ऊंचाई से नीचे गिर जाते हैं, समता में स्थित नहीं रह पाते, स्वयं को पल-पल बदलने वाला मृण्मय शरीर मान लेते हैं. हम चिन्मय आत्मा हैं, इस सच्चाई को नकारते ही हम नीचे फिसलने लगते हैं, सुख-दुःख के शिकार भी तभी होते हैं. ज्ञान ही हमें मुक्त करता है, तब जगत के सारे व्यापार पूर्ववत होते हुए भी असर नहीं डालते, क्योंकि वे क्षणिक हैं.  

Wednesday, October 31, 2012

दमक उठे जब प्रेम का सूरज



हमारी अपेक्षाएँ ही दुःख का कारण हैं, जैसे ही मन अपेक्षा से रहित हो जाता है, प्रशांत अवस्था को प्राप्त होता है, ऐसी प्रशांति जो किसी बाह्य कारण पर निर्भर नहीं है, जो तब उत्पन्न होती है जब मन भाव से भरा होता है, कृतज्ञता का भाव, धन्यभागी होने का भाव, ऐसा भाव जो हमें संवेदनशील बनाता है, संवेदनशीलता अध्यात्म की पहली सीढ़ी है, अन्यथा तो हम हृदयहीन कहलायेंगे. कोई भी सत्य हमें अपने मार्ग से हटा नहीं सकता, वह आगे ही ले जाता है. मन में जो भी द्वंद्व उत्पन्न होते हैं वे प्रेम के अभाव से ही होते हैं, प्रेम के लिए हमें प्रयत्न करना होगा, प्रेम संज्ञा भी है क्रिया भी है. कृष्ण की नागलीला का वास्तविक अर्थ उसी प्रेम को भीतर जागृत कर मन के द्वन्द्वों पर विजय पाना है. हमारा मन चाहे सजग न हो पर आत्मा सजग हो, अभी बिलकुल उल्टा है, मन तो पूरी तरह तैयार है, पूरी सेना के साथ, पर आत्मा सुप्त है, उसे अपने भीतर सजग करना है, विभिन्न कल्पनाओं ने न जाने कितने जन्मों में कितनी बार हमें भरमाया है, पर अब और नहीं, विवेक को साधकर बुद्धि को तीक्ष्ण बनाना होगा ताकि आत्मा तक पहुंचने का मार्ग बन सके.

Tuesday, October 30, 2012

मिले समाधि से समाधान


हम सभी एक विशाल समष्टि के अंग हैं, इस नाते सभी एक-दूसरे से बंधे हैं पर हमारी अलग-अलग पहचान है, जब यह पहचान भी नहीं रहती तब मन सारी सीमाओं को तोड़कर असीम में मिल जाता है. हममें से हरेक की चेतना अनंत है पर हम छोटे-छोटे दायरों में बंधे होने के कारण उस विशालता का अनुभव नहीं कर पाते हैं. समाधि की अवस्था में सम्भवतः ऐसा ही अनुभव होता है, सारा का सारा ब्रह्मांड एक तत्व से बना है यह स्पष्ट होता है, फिर कोई भेद नहीं, अद्वैत का अनुभव होने के बाद अंतर में राग-द्वेष नहीं रह सकते.

Monday, October 29, 2012

तज कर ही वह मिलता है


अक्तूबर २००३ 
वेणुगीत में गोपियों ने तेरह श्लोकों में कृष्ण की स्तुति की है, पञ्च ज्ञानेन्द्रियाँ, पंच कर्मेन्द्रियाँ तथा मन, बुद्धि व चित्त ये तेरह तत्व हैं. जीव रूपी गोपी को अहंकार तज कर इन तेरह को प्रभु में लगाना चाहिए. बुद्धि भी ऐसी जो प्रज्ञा में बदल जाये वरना बुद्धि का अहंकार शेष रहेगा, अध्यात्म पथ पर चलने वाले को दुनिया, स्वर्ग और यहाँ तक की परमात्मा की भी चाह छोड़ देनी होती है, फिर इस छोड़ने को भी छोड़ना होता है वरना त्याग का अहंकार ले डूबेगा. जब कुछ भी करना शेष न रहे, मन, बुद्धि सभी उस आत्मा में समाहित हो जाएँ तब जो रहता है वही परम सत्य है. उसे जानकर यह जगत एक क्रीड़ास्थल ही बन जाता है लेकिन उस स्थिति तक पहुंचना भी की कृपा के बिना सम्भव नहीं है, और वहाँ तक गए बिना प्रभु की कृपा मिलती भी नहीं. हमें प्रयास करना होगा तभी कृपा मिलेगी पर कृपा मिले बिना प्रयास भी कहाँ सम्भव है, यह तो विरोधाभास हुआ पर अध्यात्म के पथ पर सारे विरोधाभास नष्ट हो जाते हैं, वहाँ की रीति, नीति जगत की रीति से अलग है. उस सच्चिदानन्द घन की कृपा अपार है और वह सब पर, सब समय, समान रूप से बरस रही है, किसी विशेष स्थान पर वह विशेष प्रकट होती है. संत उनके हृदय में बसते हैं. उन्ही संतों को हम पावन भाव से भजते हैं तो हमारे हृदय भी पावन होने लगते हैं, और तब कभी न कभी हम भी उस विशेष कृपा के अधिकारी हो जाते हैं.

Sunday, October 28, 2012

दिल का फसाना



बुराई की बहुत सारी शक्लें हैं, बहुत सारे चेहरे हैं, पर बुराई अपनी असली शक्ल हमें नहीं दिखाती. वह सदा अच्छाई का लिबास ओढ़ कर आती है, उसमें इतनी हिम्मत नहीं कि अपने असली रूप में सामने आये. हम जब असत्य बोलते हैं तो यही कहते हैं कि सत्य बोल रहे हैं. बेईमानी करने वाला भी स्वयं को ईमानदार घोषित करता है. फरेब, धोखा, जुर्म सभी इतने कमजोर हैं कि उनको करने वालों को उनसे कोई सहारा नहीं मिल सकता. विकारों में उतनी ताकत नहीं जितनी संस्कारों में है. मानव का हृदय दोनों में से किसी की आधीनता स्वीकार नहीं करता. दिल ही हमारा सच्चा निर्णायक है. वह हमारा साथ तभी तक देता है जब तक हम सच्चाई के रास्ते पर चलते हैं, गलत कार्य करना तो दूर उसका विचार ही हमारे दिल को बेकाबू कर देता है. वह धड़क कर हमसे शिकायत करता है, हमें टोकता है, कचोटता है जिससे हम पुनः सही मार्ग पर आ सकें. अपने दिल पर यदि किसी की हुकुमत चलती है तो वह है उस दिलबर कि जो सारी कायनात का मालिक है, जिसने इस खूबसूरत दिल को बनाया है, यह खूबसूरत भी तभी तक है जब तक इसमें उसका निवास है.

Saturday, October 27, 2012

शिव ही सुंदर है


सितम्बर २००३ 
मन आखिर है क्या, कुछ संकल्प-विकल्प, कुछ आशाएं, कुछ विरोध, कुछ इच्छाएं, सब मिला-जुला कर मन बन जाता है. थोड़ा गहराई से देखें तो मन कुछ है ही नहीं, इच्छाओं को हटाते जाएँ तो संकल्प-विकल्प भी नहीं बचते, किसी से कोई विरोध रहता ही नहीं, जब सभी कुछ इसी क्षण हमारे पास है तो भावी की कोई योजना भी नहीं रहती. भूत तो मृत है और समय कितनी तेजी से व्यतीत हो रहा है, हर नया क्षण आते ही पूर्व क्षण मृत हो जाता है, केवल वर्तमान का क्षण हमारे सम्मुख है तो मन कहाँ गया, मन अमनी भाव में चला जाता है, जो शेष बचा वह शांति है, परम शांति, परम आनंद, क्योंकि मन ही माया का वह पर्दा है जो हमारे असली स्वरूप और हममें दूरी बनाये हुए है. पर्दा हटते ही आत्मा का सूर्य अपने पूरे वैभव के साथ चमचमा उठता है, उसमें हजारों बिंब उभरते हैं, अनेकों स्वर्ण रश्मियाँ तथा बिंदु उभरते हैं, उन रंग-बिरंगे बिम्बों के मध्य कई आकृतियाँ बनती हैं. उस सौंदर्य का वर्णन नहीं किया जा सकता जैसे कोई फिल्म की रील चल रही हो, ऐसे अनेकों दृश्य आते हैं जाते हैं, जगत भी ऐस ही है यहाँ हर क्षण जल के बुदबुदों की तरह कितने प्राणी जन्मते हैं फिर नष्ट होते हैं. बनना, बिगडना और कुछ क्षणों के लिए स्थित रहना यही जीवन है. यह अस्थायी है पर स्थायी प्रतीत होता है, इस अस्थायीरूप को यदि हम सत्य मान लें तो हिस्से में दुःख भी आएंगे सुख के पीछे-पीछे. मन के पार ही परम सुख है.

Friday, October 26, 2012

जिन ढूंढा तिन पाइयाँ


प्रभु अपने भक्तों को अपना दर्शन देते हैं, वे उसको अपना पता बताते हैं जो उनसे पूछता है. वे उसके लिए अपना भेद खोल देते हैं जो उन्हें प्रेम करता है. वे हमारी बुद्धि को प्रज्ञा में बदलते हैं. वे ही हमें इस क्रीड़ास्थल पर भेजते हैं और वे ही इस खेल के नियम भी बतलाते हैं और परिणाम भी. हमें इसे खेल भावना से खेलना है तभी हम इसका पूरा आनंद ले सकते हैं. लेकिन अन्ततः घर लौटना है, वह  घर है उसका सान्निध्य, वहाँ पुष्ट होकर पुनः पुनः इस जगत में आना होता है, पर जिसका मन इस खेल से भर जाये वह सदा के लिए उनके सान्निध्य में रह सकता है. इसे ही निर्वाण कहते हैं. निर्वाण का अनुभव इस जगत में भी हम करते हैं, गहरी नींद में जब हमें अपना भान नहीं रहता, हम प्रायः मृत ही हो जाते हैं, पुनः जगते हैं अथवा जन्मते हैं. ध्यान में भी जब देह का भान नहीं रहे, समय का पता न चले तब उसकी झलक पाते हैं. यह सब मौन में ही अनुभव होता है, अत्यंत सूक्ष्म यह भाव टिकता नहीं पर इसकी स्मृति ही ताजगी से भर देती है.

Thursday, October 25, 2012

यहाँ दम दम पे होती है पूजा...


सितम्बर २००३ 
प्रतिपदा है नवरात्रि का शुभारम्भ, दुर्गापूजा का महोत्सव आरम्भ होता है इसी दिन से. अमावस्या को पितरों को जल अर्पण करने का दिन. हमारी संस्कृति में मृतकों के प्रति सम्मान दिखाने के लिए भी कितना आयोजन है, हम ही हैं जो अपनी शुभ संस्कृति को भूलते जा रहे हैं. हमारे जीवन का जो परम लक्ष्य है, सभी शुभकर्म उस तक पहुँचाने में सहायक सिद्ध होते हैं. किन्तु पूजा भी यदि सामान्य कर्म बन जाये तो उतना लाभ नहीं होगा जितना तब यदि हमारे सारे कर्म ही पूजा बन जाएँ. हम भी कह सकें कि यहाँ दम दम पे होती है पूजा सर उठाने की फुर्सत नहीं है....संतजन यही तो कहते हैं, हमें उनके ज्ञान के उजाले से अपने भीतर उजाला भरना है, उनके वचन अनमोल मोतियों की तरह उनके भीतर के अकूत खजाने से झरते हैं, यदि हम उसका शतांश भी ग्रहण कर सकें तो अपने लक्ष्य को पा सकते हैं. हमारे जीवन को शुभतर तथा शुभतम बनाने के लिए जितने उपाय वह बताते हैं, वह अनंत ज्ञान सहज ही उनके मुख से झरता है, उनकी आँखों से प्रेम झरता है तथा पोर-पोर से कृपा झरती है यदि कोई भाग्यशाली उसे पा ले तो धन्य हो जाये. लेकिन गुरु का सान्निध्य विरलों को ही मिलता है क्योकि वे ही उसकी आकांक्षा करते हैं, भौतिक दूरी अध्यात्म में कोई मायने नहीं रखती यह भाव लोक है, जिसमें वे सदा हमारे साथ हैं, उनका प्रेम हमारे साथ ही है, उसी से हमें अपने भीतर के ढके  छिपे ज्ञान को उभारना है, जोत जलानी है, अंतर के तिमिर को हरना है. माँ दुर्गा हमारे विकार रूपी असुरों का दमन करें, जिससे शरद की शुभ्र चांदनी रूपी ज्ञान की ज्योति जगमगा उठे.

Friday, October 19, 2012

दूर से दूर और निकट से निकट


सितम्बर २००३ 
उपवास का दिन साधना का विशेष दिन है, यूँ तो साधक के लिए हर घड़ी, हर क्षण साधना का क्षण है, उसे अनुभव होता है कि अपने कर्त्तव्यों में, भौतिक कार्यों में थोड़ी असावधानी बरती तो तुरंत मन स्वयं को फटकारने लगता है. वह कौन है जो भीतर से सचेत करता रहता है, सुबह जगाता है, जो एक प्यास जगाए रखता है भीतर, हम गलत रास्ते पर जा रहे हों तो सजग रखता है. वह  परमात्मा जिसे अपना सुह्रद, हितैषी माना है, जो अकारण दयालु है, जो हमसे प्रेम करता है, हम उ सके प्रेम के पात्र हैं अथवा नहीं वह इसकी रंच मात्र भी प्रवाह नहीं करता, वह जो प्रेम से परिपूर्ण है, वही हमें सजग करता है. साधना का पथ जितना सरल है उतना ही दुर्गम भी. यहाँ तो सर कटाने के लिए हर क्षण तैयार रहना पड़ता है, स्वयं को मिटा देना होता है, पर जब हम स्वयं को सर्वोपरि मानने लगें सिर्फ इसलिए कि हम साधक हैं तो हम उससे दूर ही रह जाते हैं. वह जितना निकट है उतना ही दूर है ! उसमें सारे द्वंद्व समाते हैं, वह द्वन्द्वातीत है. वह दुर्लभ है पर अलभ्य नहीं. उसकी ओ र यदि हम एक कदम बढाते हैं तो वह हजार कदमों से हमारी ओर आता है. वह अपने स्वभाव का परित्याग कभी नहीं करता पर हम सुविधानुसार अपना स्व भूलते व याद करते हैं, हम जिस क्षण भी अपने ‘स्व’ को भूलते हैं वह क्षण हमारे लिए दुखद बनता है. साधना का लक्ष्य तो सदा के लिए समस्त दुखों से मुक्ति है, ऐसे दुःख जो अज्ञानवश उत्पन्न हुए हैं, दूसरों के दुःख में दुखी होना करुणा है. हमारे स्व का विस्तार तभी होता है, जब हम सभी में उसी का दर्शन करते हैं.

Thursday, October 18, 2012

एक वही न दूजा कोई


सितम्बर २००३ 
ईश्वर का नाम भक्त के हृदय को पवित्र करता है, उसे नाम जपने में कभी आलस्य नहीं होता. अच्छा लगता है और एक वक्त ऐसा भी आता है जब नाम सुमिरन के अतिरिक्त बात करना भी बोझ मालूम पड़ता है. सचमुच अध्यात्म के मार्ग पर चलने वाले निराले होते हैं. जगत से उल्टा होता है उनका व्यवहार, वे संसारिक बातों में दक्ष न हों पर अपने चिर सखा के सम्मुख सत्य में स्थित होते हैं. ईश्वर के सम्मुख वे अपने पूर्ण होशोहवास में प्रस्तुत होते हैं और तभी तत्क्षण उसकी उपस्थिति का अहसास भी करते हैं. उन्हें वह इतना प्रिय, प्रियतर, प्रियतम लगता है कि उसके सिवा सब कुछ फीका लगता है. लेकिन यह जगत भी तो उसी का प्रतिबिम्ब है, उसी के कारण आकाश में नीलिमा का आभास होता है और जल में हरीतिमा का. वही भीतर है और वही बाहर है. वही हमें सम्भालता है वही हमारी रक्षा करता है. वही धर्म है, वही न्याय है, वही ज्ञान है, वही सदबुद्धि है, वही मंगल है, वही शिव है, वही जीवन है, वही जीवनदाता है, वह एक है पर उसके नाम अनेक हैं, उसके रूप अनेक हैं, वह सुखमय है, वह रसमय है, वह सुखद है, अद्भुत है, नित्य है, चिरसखा है, अनंत है, आनंद है,  शांति प्रदाता है, वही साधना है, वही साध्य है, वही साधन है, वही श्रेय है वही प्रेय भी !

Wednesday, October 17, 2012

घड़ी घड़ी में बरसे अमृत


सितंबर २००३ 
मन यदि समता में रहे, एकाग्र हो, शांत हो, निरपेक्ष हो तो जाग्रत अवस्था भी समाधि बन जाती है. ध्यान तब करना नहीं पड़ता, अपने आप ही होता रहता है. जगत को जैसा यह है वैसा ही देखने की समझ आ जाती है. रस्सी को तब सांप नहीं देखते. अपने आस-पास के वातावरण के प्रति सजग रहकर हम स्वार्थहीन जीवन जीते हैं. हमारा चित्त इतना विशाल हो जाता है कि सभी के स्वार्थ हमारे स्वार्थ में बदल जाते हैं. बल्कि सभी कुछ सहज ही होने लगता है. भेद दृष्टि नहीं रहती, सभी व्यक्तियों, वस्तुओं, परिस्थितियों के पीछे एक ही तत्व के दर्शन होते हैं, वही एक हम हैं, वही एक वह है, तब कैसी स्थिरता का अनुभव होता है. मृत्यु, जन्म, बुढ़ापा, रोग भी तब अपना अर्थ बदल लेते हैं. हम शोक-रोग, राग-द्वेष के भोक्ता न रहें तो यह हम पर असर नहीं डाल सकते. मन यदि संयमित हो तभी सुखों-दुखों के जाल से बच सकता है, वरना तो हर कदम पर ठोकर खानी पड़ेगी. श्रेय और प्रेय से चुनाव का मौका प्रकृति हमें हर पल देती है, हम अधिकतर प्रेय को चुनते हैं, तात्कालिक सुख के लिए दीर्घकालिक सुख को भुला देते हैं, बाद में वही तात्कालिक सुख, दुःख में बदल जाता है. सारा जीवन इसी तरह बीत जाता है. सजग होकर देखें तो हर क्षण आनंद का अनुभव के लिए है, हर श्वास उसी का नाम लेने के लिए है.

जगा हुआ सोया सोया सा


सितम्बर २००३ 
नींद भी प्राकृतिक समाधि ही तो है, नींद में सोया व्यक्ति लोभ, क्रोध, मोह से परे हो जाता है, उसका चेहरा कितना निष्पाप लगता है. वह सारे सुखों-दुखों से परे हो जाता है. ध्यान में भी हम ऐसी ही अवस्था का अनुभव करते हैं किन्तु जागते हुए. ऐसी अवस्था में कई गांठें जो हमारे भीतर बंधी थीं अपने आप खुलने लगती हैं. जो भी घटना भीतर घटेगी वह अपने आप ही होगी, हमारा प्रयास कुछ भी नहीं कर पायेगा, हम जो भी करेंगे वह बुद्धि के स्तर पर ही होगा, पर हमें तो बुद्धि के परे जाना है. बुद्धि के पार प्रज्ञा है जो बुद्धि को तीक्ष्ण और तीक्ष्णतर करते जाने से प्राप्त होती है. भावलोक भी वहीं से प्रारम्भ होता है, वहीं से दिव्यता हमारा हाथ थामकर आगे ले जाती है, वह हमें हमारी क्षमता के अनुसार राह दिखाती है और एक बार मंजिल की झलक भी दिखा देती है. 

Tuesday, October 16, 2012

एक राज है जीवन सारा


सितम्बर २००३ 
मुक्ति को पाना कितना सहज है. मन खाली हो तो मुक्त है. कोई चाह नहीं, कोई संकल्प-विकल्प नहीं उठते तो मन रहता ही नहीं. मन जो व्यर्थ ही हम पर शासन करता है. हम गुलाम बन के रह जाते हैं, और झूठा जीवन जीते हैं जबकि सच्चाई हर वक्त हमारे साथ होती है. वह परम सत्य, परमेश्वर हमारी आत्मा का नित्य संगी है. पर मन हमारे व उसके बीच एक पर्दा डाले रहता है. हम व्यर्थ ही स्वयं को खपाते, रुलाते और सताते, तपाते हैं. हम जीवन के मर्म को जाने बिना ही जीवन जीते हैं. तत्व को जाने बिना मुक्ति नहीं, विकारों से मुक्ति, कुविचारों से मुक्ति, सुविचारों से भी अन्ततः मुक्ति, कोई द्वंद्व नहीं, केवल सहज भाव से अपने होने का अनुभव, कितना विचित्र है यह अनुभव, कितना प्रेम भरा, नित्यता की खोज हमें प्रेम तक पहुंचाती है. हमारी साधना का लक्ष्य प्रेम ही तो है, ईश्वरीय प्रेम, जो हमें उसकी हर वस्तु से प्रेम करना सिखाता है. पुलक फिर रग-रग में भर जाती है और जीवन का रहस्य हथेली पर रखे आंवले सा समझ में आने लगता है.

Monday, October 15, 2012

छुप गया कोई रे..


सितम्बर २००३ 
उपनिषदों के अनुसार पहले ‘एक’ था, ‘एक’ से अनेक हुए. उस ‘एक’ को अकेलापन खला होगा जो उसने अपने समान अनेकों को रचा. प्रकृति पर दृष्टिपात करके उसमे चेतना का संचार किया, एक विभु आत्मा से अनेकों अणु आत्माओं की सृष्टि हुई, जो उसके सान्निध्य में प्रसन्न थीं, फिर उसे एक खेल सूझा, आँख मिचौली का खेल. हमारी आँखों पर माया की पट्टी बांध दी और स्वयं को खोजने को कहा, सभी भिन्न-भिन्न स्थानों पर सुख, शांति, प्रेम व आनंद की तलाश करते हैं, क्योंकि यही तो उसकी पहचान है, पर वह बार-बार कहता है, “नहीं, मैं यहाँ नहीं हूँ”. मानव उसे बाहर खोजता रहता है पर वह छिप गया है उसके भीतर ही कहीं गहराई में. जो पट्टी खोलकर थोड़ी सी झलक पा लेता है, वह जान जाता है. उनका अनुभव यदि हमारा भी अनुभव बन जाये तो हम भी जान जायेंगे कि यह जो न मालूम सी प्यास हृदय में जगी है, यह जो उत्कंठा, व्याकुलता, यह जो कसक, कचोट, यह जो एक फांस सी दिल में अटकी है, यह उसी की चाहत है, हमारी आशाओं, आकाँक्षाओं का केन्द्र वही तो है, एकमात्र वही !  

Friday, October 12, 2012

वह छुप न सकेगा परमात्मा


सितम्बर २००३ 
अनंत-अनंत ब्रह्मांडो का रचियता वह परब्रह्म रसमय है. जिसकी सत्ता से सृष्टि अनंत काल से चली आ रही है, न जाने कितनी बार कितने रूपों में हम इसके अनोखे खेल देखते आये हैं, हम प्रथम बार कब इस धरा पर आये थे, कौन जानता है ? शायद जब से यह सृष्टि है तभी से हम भी यहाँ हैं, और शरीर के न रहने पर भी हमारी सत्ता ऊर्जा के रूप में तो यहाँ रहेगी ही, तो जैसे वह परम सत्य अनादि है, अनंत है, वैसे ही उसने हमें भी बनाया है. उसका हमारा सम्बन्ध बहुत पुराना है, वह जानता है पर हम भूले रहते हैं. माया का आवरण डालकर वह जादूगर हमें भुलावे में डाल देता है. पर कभी-कभी किसी जन्म में संत कृपा से माया का पर्दा हटता है, और हमें अपने वास्तविक स्वरूप की झलक मिलती है, तब लगता है जिन वस्तुओं को हम इतना महत्व दे रहे हैं, वे तो बिना नींव की हैं, उनका कोई आधार ही नहीं है, वे हर पल बदल रही हैं. हमारा शरीर भी निरंतर अनित्य की ओर जा रहा है, ऐसा हो सकता है कि किसी एक दिन यह जगत हमारी आँखों से लुप्त हो जाये, हम पुनः एक नए शरीर में डाल दिए जाएँ, उससे पूर्व ही इन रहस्यों को जीना होगा. संत बताते हैं कि जैसे बादल, चाँद, तारे आदि आकाश में स्थित है पर आकाश उनसे अलिप्त है, वैसे भी वह परमात्मा हमारे भीतर है और मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार से परे है. 

Thursday, October 11, 2012

मन लहर आत्मा सागर


सितम्बर २००३ 
सागर में निरंतर लहरें उठती-गिरती हैं, तट से टकरा कर लौट जाती हैं, तट पर बैठा व्यक्ति उन्हें देखता है, उनसे पृथक रहकर वह उन्हें अनुभव करता है वैसे ही हमारे मन-सिंधु में निरंतर सुख-दुःख की लहरें आती-जाती हैं, हम उन्हें देखते रहें तो वे अपने-आप ही चली जाती हैं, इस तरह हम पूर्व जन्मों के तथा इस जन्म के पूर्व कर्मों के फलों को काटते जाते हैं, यदि सुख-दुःख के भोक्ता बने तो नए बीज डाल दिए, जिन्हें भविष्य में काटना होगा तथा यह चक्र अनवरत चलता ही रहेगा. सत्संग से हमारे पूर्व संस्कार नष्ट होते हैं तथा नित नए सात्विक संस्कार बनते हैं जो बंधन में डालने के लिए नहीं वरन् मुक्त करने के लिए हैं. इस ज्ञान में स्थित हैं तो कोई भय प्रतीत नहीं होता, कोई भी इच्छा बांधती नहीं. मन पंछी मुक्त हो उड़ता है. हमारे भीतर ही पशुता, मानवीयता और देवत्व छिपा है. साक्षी भाव मानवीयता को विकसित करते हुए देवत्व तक ले जाता है, हम मांगने की प्रथा छोड़कर देने की स्थिति में आ जाते हैं. आत्मा स्वयं में पूर्ण है, संसार से हमें ऐसा कुछ भी नहीं मिल सकता जो पहले से ही उसमें नहीं है, फिर पूर्ण अपूर्ण को क्या दे सकता है. प्रेम, आनंद, शांति, संतुष्टि, ज्ञान यह सभी भीतर हैं और एक बार मिल जाने के बाद कभी खोते नहीं. साक्षी अलिप्त है, सदा एकरस और सदा उत्साह से परिपूर्ण. वह नित्य सक्रिय है, वह ऊर्जा है, ऊर्जा का अपरिमित भंडार, वह द्रष्टा है और स्रष्टा भी वही है.

Wednesday, October 10, 2012

जग वैसा जैसा हम देखें


जब तक हमारे भीतर विकार है तभी तक हमारी दृष्टि दूसरों में विकार देखती है. जब हमारा चित्त पूरी तरह निर्मल हो जाता है तो दुनिया में कहीं भी कोई त्रुटि नहीं दिखाई देती. संतों का ऐसा कहना है. यदि दिखाई दे भी तो उसके प्रति द्वेष नहीं जगता बल्कि स्नेह से उसे दूर करने का प्रयास अथवा तो शक्ति वह जगत को देता है. हम दोष देखकर स्वयं को ही पीड़ित करते हैं, और अपनी ऊर्जा का ह्रास करते हैं. हमें प्रतिक्रिया व्यक्त न करके उसके लिए कुछ करना होगा. यदि हम कुछ भी करने की स्थिति में नहीं हैं तो अपने मन की शांति तो बनाये रख ही सकते हैं, उतना ही पर्याप्त होगा. यह जगत वैसा ही दिखाई पड़ता है जैसा हम इसे देखना चाहें, यह जगत उस प्रभु का ही तो उपहार है, वह स्वयं भी इसके कण-कण में ओत-प्रोत है. “जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मुरति देखि तिन तैसी”. हम अपने अपने स्वभाव, रूचि और मन स्थिति के अनुसार एक कल्पना गढ़ लेते हैं और अस्तित्त्व की आवाज को अनसुना करते हैं, जो मन की कल्पनाओं से परे है, वह आनन्दमय, नित्य, शुद्ध, बुद्ध और अनंत है. आकाश की तरह वह सभी कुछ अपने में समेटे हुए है अच्छा-बुरा उसके लिए समान है, वह राग-द्वेष से परे है. उसके सान्निध्य में रहकर हृदय में कोई अशुभ विचार टिक नहीं सकता, तत्काल भीतर से एक संदेश आता है और कोई सद्वचन जैसे हवा के झोंके की तरह आकर उस नकारात्मकता को अपने साथ लिए जाता है. 

भक्ति कहो या प्रेम..


प्रेम कितने-कितने रूपों में हमारे सम्मुख आता है कई बार हमें स्वयं भी ज्ञात नहीं होता कि किसी के प्रति इतना प्रेम हमारे अंतर में छिपा है, पर वह अपना मार्ग स्वयं ही ढूँढ लेता है. यदि हमें किसी वस्तु, व्यक्ति अथवा परिस्थिति से प्रेम है तो वह वहाँ तक जाने का मार्ग स्वयं ही तलाश कर लेगा, प्रेम सच्चा है यही उसकी परख है. उसके सम्मुख फिर संसार की कोई बाधा नहीं रह जाती, वह ऊँचा हो जाता है, हमारा मन, बुद्धि, भावनाएँ सभी उस पावन प्रेम की बाढ़ में बह जाती हैं. जिस क्षण हम ऐसा विशुद्ध प्रेम पाते हैं, वह क्षण भी दैवीय होता है और वह क्षण एक निरंतर चलने वाली प्रक्रिया की परिणति होता है, यकायक हम इतना सारा प्रेम तभी अनुभव करते हैं जब अचानक कोई निधि मिल जाये, फिर उसे धीरे-धीरे अपने भीतर समोने लगते हैं, जब पोर-पोर में वह रिस रहा होता है तो हम यह जानते भी नहीं, फिर एक क्षण में वह प्रकट होता है अपने पूर्ण वैभव के साथ. ईश्वर के प्रति प्रेम भी ऐसे ही धीरे-धीरे मन में एकत्र होता जाता है. ईश्वर से जो प्रेम हमें हर पल मिलता है हम उसे सहेजते जाते हैं अन्जाने ही, फिर वही प्रेम कभी आँखों से बह निकलता है, तो कभी कोई गीत बनकर. प्रेम एक बहुत उच्च भावना है, यह कचोटती भी है, सहलाती भी है, यह हमें उदात्त बनाती है, हम प्रिय का हित चाहते हैं और अधिक प्रेम में भर जाते हैं. संत इसी प्रेम को भक्ति का नाम देते हैं, प्रेम के लिए प्रेम ! एक अनवरत धारा जो प्रिय के प्रति हमारे मन में बहती है, चाहे वह उसे जाने अथवा नहीं हमें इसकी परवाह नहीं होती, क्योंकि प्रेम अपना मार्ग खोज ही लेता है. 

Tuesday, October 9, 2012

भीतर एक शांति अनुपम


सितम्बर २००३ 
मौन में जो आनंद है, वह अन्यत्र नहीं है, चुपचाप बैठकर भीतर-बाहर मधुर संगीत को सुनने का अनुभव अनुपम है. ध्यान की गहन शांति मोहती है. मौन में एक अनोखा आकर्षण है. मन जब भीतर से खाली हो जाता है, संकल्प-विकल्प, आशा-निराशा, सुख-दुःख के द्वंद्वों से अतीत तब भीतर जो गूंज उठती है उसका संग-साथ प्रेरणास्पद है. वह आश्वासन भरा मौन है, वह हम सहज करने वाला है, वह हमें प्रेम से भर देने वाला है, प्रेम भी ऐसा, जो निःशब्द है, जो हित चाहता है, जो मुक्त करता है, जो प्रश्न नहीं करता, जो बस है, न ही वह प्रमाण देता है. ओढ़ा गया मौन हम असहज बना सकता है. पर जो मौन भीतर से आता है वह अडोल है, जिसे कोई बाहरी व्यवधान भंग नहीं कर सकता. मानो पूरे ब्रह्मांड में साधक अकेला हो, पर इसमें कोई भय नहीं है, यह एकांत परम के सामीप्य में रहने का अवसर देता है, यह सुखद है.

Monday, October 8, 2012

ज्ञान साधना है


सितम्बर २००३ 
ज्ञान हमें मुक्त करता है. आत्मभाव में स्थित रहें यही तो ज्ञान है. ज्ञान में स्थित रहकर यदि कोई सत्य का अनुसंधान करता है, जगत उसके लिए अमृत बन जाता है. अनन्य निष्ठा तथा अनवरत सुमिरन और उसे पाने की चाह यदि बनी रहे तो ज्ञान हृदय में स्थिर होगा. हमारा मन उन्मुक्त गगन में विचरण करेगा. भीतर जो कतरा है वही दरिया बन जायेगा. कभी ऐसा भी प्रतीत हो कि कहीं न कहीं हमारे कर्त्तव्य निर्वाह में त्रुटि हो रही है, पर इससे मन की प्रसन्नता तथा शांति पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता, वह अखंड है, वह परिस्थितियों पर निर्भर नहीं करती. आत्मभाव में रहने वाला मन अब यूँही विषादग्रस्त कैसे हो सकता है. वह निर्भार, निर्दोष और सहज होकर पल-पल आनंद में जीता है.

Thursday, October 4, 2012

साहेब तब पीछे फिरत


सितम्बर २००३ 
संत जन कहते हैं अध्यात्म के मार्ग पर लापरवाही नहीं चलेगी. हमारा हर कर्म शुद्ध से शुद्धतर फिर शुद्धतम बनता जायेगा तभी मन निर्मल होगा. कबीर कहते हैं “ कबीर मन निर्मल भया ज्यों गंगा का तीर, साहेब तब पीछे फिरत कहत कबीर कबीर” जीवन का उद्देश्य ही जब प्रेम प्राप्ति हो तो लापरवाही अथवा शरीर के आराम की चिंता में ही लगे रहना मूर्खता ही कही जायेगी. ईश्वर के प्रेम का अनुभव जिसे एकबार हो जाये उसे अन्य रस नहीं भाते, प्रेमसुधा का रस इतना प्रभावशाली होता है कि एक बार चढ़ता है तो उसका असर समाप्त नहीं होता क्योंकि मन भीतर ही भीतर उसे स्वयं में पाने लगता है. मीरा जब दैवीय प्रेम से भरकर गाती थी तो उसका मन इसी रस से छलक रहा होता था, काश हम सभी उसे महसूस कर पाते तो यह दुनिया बहुत सुंदर होती. हम एक-दूसरे को तब अपना बैरी नहीं समझते, सभी के भीतर एक सत्ता है जो आनंद मय है, प्रेममय है, शांतिमय है, ज्ञानमय है, हम सभी को इन्हीं की चाह है, इसी के कारण हम जगत में विभिन्न कार्यकलाप करते हैं. यदि यह ज्ञात हो जाये कि जो हम बाहर ढूँढ रहे हैं वह तो पहले से ही हमारे पास है तो यह स्वार्थ की दौड़ थम जाय. तब भी कार्य तो होंगे पर वे बंधन का कार्य नहीं बनेंगे, तब हम मुक्त होंगे, सही अर्थों में तो आजादी तभी मिलती है जब मन मुक्त होकर उस अपरिमेय, अनिवर्चनीय, अद्भुत रस का अनुभव कर सके, पर उसका स्वाद लेना कोई–कोई ही जानता है, ईश्वर की कृपा और हृदय में सच्ची प्यास ही हमें इस पथ का राही बना सकती है. 

Wednesday, October 3, 2012

प्रेम ही साधना है


सितम्बर २००३ 
यीशु के उपदेश दिल को छू लेते हैं, प्रेम से छलकता उसका हृदय हमारे हृदयों को स्पंदित कर जाता है. वह गड़रिया है और हम उसकी शरण में हैं, हम उसकी अंगूर की बारी हैं वह हमें रोपता है फिर हमारा ध्यान रखता है. हम उसके आश्रित हों तो वह हमें धरती का नमक भी बना सकता है. वह चुन-चुन कर हमारे दोषों को दिखाता है फिर उन्हें दूर करने को कहता है. वह प्रेम को सर्वोपरि मानता  है, हम सभी मूलतः प्रेम की उपज हैं. यह जगत प्रेम के आश्रित है. यीशु भी भक्त को कान्हा की तरह प्रिय हैं, वैसे ही जैसे कबीर, नानक, तुलसी, और अन्य संत, माँ शारदा, रामकृष्ण परमहंस तथा विवेकानंद. प्रीति ही हमें जगत में स्थिरता प्रदान करती है. प्रीति यदि सच्ची हो तो हृदय को पवित्र बनाती है और उसमें दृढ़ता भी भरती है, तब संसार भयभीत नहीं करता, अज्ञान ही भय का कारण है, और अहंकार ही अज्ञान का कारण है. अहंकारी अंतर प्रेम नहीं कर सकता और न ही उस प्रेम का अनुभव कर सकता है जो दिव्य है, जो किसी बाह्य वस्तु पर आश्रित नहीं है. वह रस अमृत के समान है जिसे एकबार पा लेने के बाद संसारी सुख उसी तरह फीके पड़ जाते हैं जैसे सूर्य निकलने पर चन्द्रमा. ईश्वर की कृपा के बिना यह रस हमें नहीं मिलता. ध्यान के लिए योग्यता और सामर्थ्य हमें प्राप्त नहीं होता. सद्गुरु के कितने उपकार हैं कि उनका ज्ञान एक पथ दिखाता है जिस पर चलकर हम लक्ष्य तक पहुंच सकते हैं, लक्ष्य है-अंतहीन प्रेम..अनंत प्रेम. 

नानक दुखिया सब संसार


सितम्बर २००३ 
हमें कृष्ण की परा प्रकृति का अंश होना है, जो शाश्वत है, चिन्मय है, नित्य है, सत्य है. यह संसार दुखों का घर है. विभिन्न प्रकार के रोगों, कष्टों, और तापों से ग्रस्त प्राणी यहाँ अनवरत दुःख पा रहे हैं. कहीं आतंक का शिकार होते हैं, कहीं प्राकतिक आपदाओं के, कहीं अपनी ही गलती के कारण  दुर्घटना का शिकार तो कहीं दूसरों की गलती के कारण. कौन है जो इस भट्टी में नहीं तप रहा है. एक मात्र सद्गुरु ही ऐसा है जो इन सबसे परे है, जगत के व्यापर उसे छू भी नहीं पाते. दुःख देखकर उसका हृदय द्रवित तो होता है पर पीड़ित नहीं होता. वह स्वयं के ज्ञान से इतना परिपूर्ण हो चुका है कि कुछ पाना उसके लिए शेष नहीं रह गया है. वह सिर्फ देना चाहता है. उसके पास जो है वह जगत के पास नहीं है. जिसमें सहज स्वाभाविक रूप से संतों के प्रति प्रेम है, सद्वचनों तथा सत्संग के प्रति गहरा आकर्षण है, उस पर ईश्वर की कृपा ही तो है. ईश्वर हमारे हजार दोषों को नजरअंदाज कर देते हैं, बस अपने प्रति सच्चे प्रेम को देखते हैं, वह प्रेम की भाषा जानते हैं और कुछ भी उन्हें रिझाने के लिये नहीं चाहिए. सच्चा, शुद्ध, एकांतिक निर्मल प्रेम यदि किसी के हृदय में उत्पन्न हो जाये तो उसे तत्क्षण प्रभु दर्शन हो सकते हैं. फिर उन्हीं की छवि भीतर-बाहर दिखती है, उनकी कृपा के अतिरिक्त कौन हमारा सहाय है, और वह हमारे कितने निकट है, हमसे भी निकट, हमारे व स्वयं के मध्य तो कल्पनाओं का एक बड़ा झुण्ड है पर उसके व हमारे बीच तो कुछ भी नहीं. हवा और रौशनी की तरह वह हर क्षण हमें सहज प्राप्त है.  

Monday, October 1, 2012

सत्य ही साधना है


अगस्त २००३ 
सुना है एक बार ब्रह्मा जी ने मानव को दो थैले दिए और कहा कि अपनी कमियाँ तो सामने वाले थैले में रखना और अन्यों के दोष पीछे वाले में, किन्तु मानव इसे भूल गया. हम अपने दोषों को तो नजरंदाज कर जाते हैं और अन्यों में देखने लगते हैं. धीरे-धीरे वही दोष हमारे भीतर आने लगते हैं, और जो हमारे भीतर है वही बाहर भी दीखता है, एक दुष्चक्र आरम्भ हो जाता है. तब मन नीचे गिर जाता है और उसे ऊपर उठाने में ऊर्जा लगती है, ऐसी ऊर्जा जो साधना से ही भीतर जगती है. मन यदि शांत है, प्रसन्न है, स्थिर है तो सारी सृष्टि प्रसन्न दिखती है. सत्य वही है जो नित्य है, यह जगत पल-पल बदल रहा है, इसे जैसा है वैसा ही स्वीकारना होगा, असत्य में सुधार करें तो भी वह असत्य ही रहेगा, सुधार की गुंजाइश तो सत्य में ही हो सकती है, अर्थात यदि हमारा वास्तविक रूप अभी स्पष्ट नहीं दीख रहा तो उस पर से मैल झाड़नी है, पाना उसी को चाहिए जिसे पाकर खोना नहीं पड़ता. यदि खोना ही पड़े तो एक मिले या दस कोई अंतर नहीं पड़ता.

Sunday, September 23, 2012

घर जाना है सबको इक दिन


अगस्त २००३ 
अपने मन की वृत्ति को भीतर की ओर ले जाना है, उस स्रोत से जोड़ना है जहां से उसका जन्म हुआ है. हमें घर वापस लौटना है. मनोवृत्ति जब तक बाहर भटकती है तो अशांत होगी और भीतर अपने मूल स्वरूप से मिलेगी तो सुख पायेगी. जब से मानव होश सम्भालता है एक दौड़ शुरू हो जाती है, लेकिन उसे यह होश नहीं रहता यह दौड़ किसलिए है, कहाँ खत्म होगी, क्यों हम तलाश रहे हैं, किसे तलाश रहे हैं वह यह रुक कर पूछता तक नहीं, बस भेड़चालमें चलता रहता है. घूमता रहता है, गिरता है, चोट खाता है फिर उठकर चल देता है, कहीं कोई अच्छा मंजर दिखाई पड़ता है तो उसमें खो जाता है, लगता है इसे ही पाना था, पर वह क्षणिक सुख समाप्त हो जाता है, पीड़ा की सौगातदे  जाता है, फिर एक नई दौड़, लेकिन हमारा मन जब भीतर लौटता है तो असीम शांति का अनुभव करता है, ऐसा आनंद जो क्षणिक नहीं है, सत् है, वही हम हैं हम प्रेम से उपजे हैं, प्रेम हमारा स्वभाव है, अपने शुद्ध रूप को पाकर वह थम जाता है. अब और भटकाव नहीं, ठहराव आता है जीवन में. यह भीतर जाने की प्रक्रिया सद्गुरु हमें सिखाते हैं. इसके लिए मन को शांत करना है, ध्यानस्थ होना है, तटस्थ भाव से भीतर देखना है. 


Friday, September 21, 2012

जीवन एक साधना है


‘कुछ कुछ’ से ‘कुछ नहीं’ किया फिर ‘सब कुछ’ बना दिया...साधना का यही करिश्मा है. संतों के जीवन को देखकर यही तो लगता है. धूल का एक कण ही एक दिन हिमालय बन सकता है, पानी का एक कतरा सागर बन सकता है. सतत साधना सीमित को असीमित कर सकती है. सत्य भरे हुए बादल की तरह है जो मन रूपी धरती की प्यास बुझाता है. वह शमा है, जो निरंतर जल रही है ताकि अंधकार से साधक निकल आए, अज्ञान का अंधकार जो हमारे दिलों को छोटा कर देता है, हमारे सच्चे स्वरूप को हमसे जुदा कर देता है. संत किसी भी पल आयी हुई मृत्यु का बाहें फैलाकर स्वागत भी कर सकता है, उनके हाथ इतने बड़े हो जाते हैं कि सारा ब्रह्मांड उनमें समा सकता है. 

सहज हुआ जो स्वयं को जाने


हमारा जीवन जो बाहर-बाहर है, क्षणभंगुर है, वहाँ सभी कुछ बदल रहा है, जो सीखा हुआ है, पर जो भीतर है, जो हम अपने साथ लेकर ही आये हैं, वह शाश्वत है. जब हम उस शाश्वत की ओर नजर डालते हैं तभी जीवन में फूल खिलते हैं. देह, मन, बुद्धि और इन्द्रियों से परे एक चेतन सत्ता..जो निर्दोष है, शुद्ध है पर हम उसे देखते ही नहीं, एक शिशु कोरा पैदा होता है, जगत उसे सिखाता है, लेकिन इस सीखे हुए ज्ञान के कारण उस ओर कभी उसकी नजर नहीं जाती, जो वह लेकर ही आया था, प्रेम, शांति और आनंद शिशु के पास होते ही हैं, पर वयस्क होते-होते वे कहीं खो जाते हैं, वे छिप जाते हैं. ‘ध्यान’ से वे उभर आते हैं, तब हमारी सारी चेष्टाएं निष्काम होती हैं, हम अलिप्त रहकर जीना सीख जाते हैं. हम अपने स्वभाव को प्राप्त हो जाते हैं.

Wednesday, September 19, 2012

वही वही है चारों और


अगस्त २००३ 
हमारे हृदय सिंधु में से ही कृष्ण का जन्म होना है, अभी तक तो उसमें से विष ही निकलता आया है, कुछेक रत्न भी निकले होंगे पर अमृत रूपी कृष्ण का निकलना अभी शेष है. हमारे मन के कारागार में देवकी रूपी बुद्धि अभी कैद है जब कृष्ण प्रकट होंगे तो कारागार के द्वार खुल जायेंगे और प्रकाश ही प्रकाश सब और फ़ैल जायेगा. वैसे तो कृष्ण वहाँ अब भी हैं, वह तो कहीं जाते ही नहीं, हमारी ऑंखें ही देख नहीं पातीं, वह जो सहज प्राप्त है, हवा, धूप, और बादलों की तरह, वह कृष्ण तभी मिलेगा जब मन को राधा बना लें. प्यास गहरी हो ललक भरी तो वह हाजिर है तत्क्षण, उसे अपना बना लें तो वह छोड़कर कहीं नहीं जाता, वह सदा के लिए वहीं वास करता है. वही तो मानव मन की सबसे बड़ी आवश्यकता है, उसी की चाह है जो नए-नए रूप धर के सम्मुख आती है.

रोम रोम जब उसे पुकारे


अगस्त २००३ 
साधक के जीवन में अनुशासन की अत्यधिक आवश्यकता है, समय की पाबंदी रहे, उसका सदुपयोग हो, उसके महत्व को जानते हुए हम कर्म करें. प्रातः उठकर यदि सभी के लिए मंगल कामना हो तो दिन भर उसकी सुगन्धि मिलती है. भाव और विचार ही वाणी व कर्म को जन्म देते हैं. वह पुण्यों की खेती करे ऐसे ही बीज बोये जिसके फल सुखकारी हों. हर अशुभ कर्म, वाणी अथवा सोच दुःख का वह  बीज होता है जो हम स्वयं ही बोते हैं और भविष्य में उसका फल हमें ही काटना होता है. आज हमारे जीवन में जो भी दुखद घटता है वह हमारे ही कर्मों का प्रतिफलन है. ऐसा मन जिसे सत्य की आकांक्षा हो उसमें कोई विकार आए भी क्यों, परम सत्य शुद्धता चाहता है, खोट, कपट, मिलावट, दम्भ, छल अथवा झूठ उसे नहीं भाते, वह हमारे मन को निर्मल देखता है तभी अपने कदम वहाँ रखता है. हमारे हृदय में उसके लिए पुकार, प्यास, चाह कितनी गहरी है, इसका पता उसे चल जाता है, जिस क्षण हम विकारग्रस्त होते हैं अथवा तो निर्मल होते हैं तत्क्षण हमें अनुभव होता है. उसकी कृपा तभी होती है जब हमारे रोम-रोम से उसकी चाह उठती है. तभी वह जिस भी परिस्थिति में रखे, उसे स्वीकारते हुए समता की भावना बनाये हुए और अंतर में उसके प्रेम को अनुभव करते हुए साधक इस जगत में व्यवहार करता है.