Wednesday, February 29, 2012

मन ही तीर्थ है


जनवरी २००३ 
जहाँ धैर्य रूपी कुंड में समता रूपी जल भरा हो ऐसे मानस तीर्थ में जाने से सत्व शुद्धि होती है. बाहरी शुद्धि तो हम प्रतिदिन करते हैं, अंतर शुद्धि के लिये प्रतिदिन इस मानस तीर्थ में जाना है, जहाँ स्वयं परमात्मा हैं, संतों की वाणी है, सदगुरु का प्रेम है. मन तीर्थ हो तो तन भी मंदिर बन जाता है और तब हम मुक्ति का अनुभव करते हैं, विदेह भाव को प्राप्त होते हैं. इस क्षण भंगुर संसार की वास्तविकता खुल जाती है, मन के खेल अब लुभाते नहीं. अपेक्षा नहीं रहती, जो जीवन से मिलता है सहज स्वीकार होता है, जहाँ सर्वोपरि एक वही हो जाता है, जो इस जीवन को सुंदर बनाता है. वहीं विश्रांति है...आनंद है...प्रेम है..शुद्ध निस्वार्थ, एकांतिक, अहैतुक  प्रेम....ज्ञान है, शाश्वतता है. 

4 comments:

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    1. अनुपमा जी, आपका स्वागत व आभार !

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  2. यह तो जीवन की सत्यता है... हम मन में बसे भगवान को भुला कर इस संसार में मोह माया में भटकते रहते है.. कभी शांतचित्त हो कर मन की आवाज जो सुने तो ब्रहमांड की शांति और सुख अपने अंदर ही मिलेगा..आपका यह छोटा सा आलेख बहुत पसंद आया|

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    1. नूतन जी, अपने सत्य कहा है, हमारे मन की गहराई में अपार आनंद है...आपका स्वागत व आभार!

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