Sunday, May 6, 2012

मन का कौन लगाये मोल


जगत से व्यवहार करना है, उसे हमारी सेवा चाहिए जो तन और धन से हम कर सकते हैं. परमात्मा को हमारा मन चाहिए. संसार को हमारे मन की परवाह नहीं होती. मन का मोल परमात्मा ही जानता है  मन का स्नेह, प्रीत, पूजा, श्रद्धा सब अस्तित्त्व के नाम हो तो हमें सौ गुणा प्रतिदान मिलता है, उसका प्रेम शत गुणा होकर हमारे भीतर प्रकट होता है. दिव्य सुख व दिव्य आनंद देने में वही सक्षम है. मन तो आत्मा रूपी समुन्दर में उठी लहर है और आत्मा उसी का अंश है सो मन भी उसी का हुआ पर हम इसे जगत को दे देते हैं. कोई कीमती सामान देने से पहले हम दस बार सोचते हैं पर अनमोल मन दुश्मन को भी रत्ती के भाव दे देने में हमें कोई फर्क नहीं पड़ता. जब हम किसी के प्रति दुर्भाव भी रखते हैं तो भी मन उसी का चिंतन करता है यह उसे देना ही हुआ. व्यवहार भर का सम्बन्ध तो हमें संसार से बनाये रखना है पर दृढ़ बंधन उसी के साथ बांधना है अथवा तो उसके नाते बांधना है, उसको सबमें देखकर बांधना है. वह अकारण दयालु है, हितैषी है, प्रेमिल है, निकटस्थ है. वह तभी आता है जब मन खाली हो जाता है. एक हल्की जलधारा की तरह... जो स्वच्छ है निर्मल है, शीतल है, सुखमय है, वर्षा की फुहार की तरह... आकाश की तरह.. जहाँ कुछ भी नहीं है. मन जब विस्तृत हो जाता है सारा ब्रह्मांड अपना लगता है सभी को घेरे हुए पर सबसे अलग.

3 comments:

  1. मन तो है अनमोल हरि सा

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    1. रश्मि जी, मन हरि सा अनमोल है तभी तो वही उसका मोल जानता है...

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  2. मन जब विस्तृत हो जाता है सारा ब्रह्मांड अपना लगता है सभी को घेरे हुए पर सबसे अलग.

    bahut acchi baat

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