Tuesday, July 31, 2012

छूटें जब आग्रह तब वह आता है


जून २००३ 
देह को जन्मने के बाद जो नाम दिया गया है, वह तो बदला जा सकता है लेकिन तन के भीतर जहाँ से खुद के होने की सत्ता का भान होता है, वह अपरिवर्तनीय है. वही वास्तव में हम हैं, और वह सभी के भीतर है. सभी के भीतर वही चैतन्य है. उस का अनुभव करने के लिये ही हम शरण में जाते हैं, उसका अनुभव होने के बाद एक मदहोशी एक सात्विक मस्ती का अनुभव होता है, शरण में जाने का अर्थ है कोई आग्रह न रखना, अस्तित्त्व ने जो हमारे लिये तय किया है उसे स्वीकार करना, वैसे भी हम जो चाहते हैं, वह सभी होता कहाँ है और जो होता है वह भाता नहीं, जो भाता है वह टिकता नहीं फिर जो नहीं भाता वह भी नहीं टिकेगा तो अप्रिय को देखकर हमें परेशान होने की आवश्यकता नहीं है. सारे आग्रह जब छूट जाते हैं तो जीवन सहज हो जाता है, भीतर की गाठें खुलने लगती हैं, प्रकाश हो जाता है.    

Monday, July 30, 2012

खिला रहे भीतर इक सूरज


जून २००३ 
आदि शंकराचार्य ने प्रार्थना की थी कि उन्हें मोक्ष भी नहीं चाहिए, क्योंकि वे भक्ति को मोक्ष से बढ़कर मानते थे. भक्ति हमें जीते जी मोक्ष प्रदान करती है. भक्ति रूपी सूर्य जब भीतर के आकाश में खिलता है तो विकार अंधकार दूर होता है, ज्ञान कमल खिल जाता है. लेकिन यह सूर्य सदा खिला रहे पुनः हम मोह निशा में न सो जाएं इसके लिए सतत् प्रयास करना होता है. इस प्रयास में हम अकेले नहीं होते, सत्शास्त्रों का सँग, सदगुरु का प्रेम और सबसे बढ़कर हमारी आत्मा में स्थित परमात्मा की सद्प्रेरणा, सभी हमारे साथ हैं. हमारे भीतर अनंत प्रेम है वही रूप बदल-बदल कर काम, मोह तथा आसक्ति का रूप ले लेता है. जैसे शुद्ध आत्मा ही विकारी बुद्धि, चित्त व अहंकार का रूप ले लेती है. आकाश अपने आप में शुद्ध है अनंत है पर उस पर बादल छा जाते हैं तो उसका निज स्वरूप स्पष्ट नहीं होता. ऐसे ही प्रेम को हमें यदि उसके शुद्ध स्वरूप में जानना है तो काम, मोह और आसक्ति को मोड़ देना होगा, कामना भी उसी की, मोह भी उसी का, आसक्ति भी उसी में तो ये सभी प्रेम में बदल जाती हैं.    

Friday, July 27, 2012

शरण में उसकी आना होगा


 जून २००३ 
जिसका मन स्थिर नहीं है, वह क्षण-क्षण में रुष्ट-तुष्ट होता है, और ऐसे मन का विश्वास नहीं किया जा सकता. हम स्थिर मना बनें यही साधना का लक्ष्य है. भगवद् गीता का मूल उपदेश भी यही है. इसका उपाय भी कृष्ण ने बताया है, परमात्मा में मन लगाएं तो वह अपने आप ही जगत के उतार-चढ़ाव के द्वंद्वों से मुक्त हो जाता है. एक बार कोई उसकी शरण में आ जाये वह हर पल उसे अपनी निगरानी में रखते हैं, उसके कुशल-क्षेम की जिम्मेदारी ले लेते हैं. फिर वह इधर-उधर जाना भी चाहे तो उसे रास नहीं आता. परमात्मा हमारे मन की गहराई में स्थित है, उसका स्मरण करते करते हम वहीं पहुंचते जाते हैं, जो ज्ञान, प्रेम और सामर्थ्य हमारे भीतर सुप्त है धीरे-धीरे प्रकट होने लगता है. हम वर्तमान में रहना सीख जाते हैं, क्योंकि तब भूत या भविष्य का कोई अर्थ नहीं रह जाता, हम थे, हम हैं, हम रहेंगे यह भाव दृढ़ होता जाता है. तब यह छोटे-छोटे ताप आदि हमें हिला नहीं पाते. परम रहस्य स्वयं खुलने लगते हैं, भीतर-बाहर उसी एक परमात्मा की सत्ता का दर्शन होता है. उसका प्रेम अनुपम है, वह अवर्णनीय है, वह मात्र अनुभव से ही जाना जा सकता है. उसकी कृपा और सदगुरु का ज्ञान साधक की यही सबसे बड़ी पूंजी होती है.


अनोखे अनुभव


जून २००३ 
सदगुरु बादल प्रेम के हम पर बरसे आज, अंतर भीजी आत्मा हरि भई वह आज !
उसे पुकारो तो वह एक क्षण की भी देर नहीं लगाता, भीतर बाहर हर जगह उसी का दीदार होता है, वह हमारे भीतर विद्यमान है, उसी की ज्योति से सारा विश्व प्रकाशित है, उसकी ही अध्यक्षता में परा व अपरा प्रकृति अपना कार्य कर रही है. वह हमें हर क्षण अपने निकट आने का आमन्त्रण देता है. उसने हमें अपने समकक्ष बनाया है. छोटे-छोटे सुखों के प्रलोभन, पुराने संस्कार हमें अपने पथ से विचलित करते हैं, पर निरंतर साधना से हम उसकी समीपता पा लेते हैं. हमारा व्यक्तिगत अनुभव वास्तव में हमारा नहीं है, महाचित्त का विशाल अनुभव है, हमारी आत्मा विशिष्ट नहीं है सभी के भीतर वही आत्मा है. सभी को अनुभव समान नहीं होते क्योंकि चित्त भिन्न भिन्न हैं.


Wednesday, July 25, 2012

चलती रहे यात्रा अविरत


जून २००३ 
हमारी यात्रा निर्विघ्न चलती रहे, इसका सतत् प्रयास करना है. सदगुरु की दी हुई औषधि का पान नियत समय पर करें, तभी यह जन्म जन्मान्तर का रोग दूर हो सकता है. यह भव रोग बहुत बलशाली है पर गुरुज्ञान उससे भी अधिक सबल है यदि उसे उपयोग में लायें. सब घटों में वह ईश्वर है, लेकिन गुरु के घट में वह प्रकट हुआ है. लकड़ी में जैसे अग्नि छुपी है, दूध में जैसे मक्खन है, वैसे ही सबके अंतर में निर्विकार परमात्म आनंद है. इस जगत की चाल ऐसी है कि ईश्वर सदा सर्वदा विद्यमान होते हुए भी सभी इसे समझ नहीं पाते. वही इस पथ का अधिकारी है जो संसार की असारता को जानकर उसके पीछे छिपे रहस्यों को जानना चाहता है, जो इस भाग-दौड़, आपाधापी से ऊब कर कुछ ऐसा पाना चाहता है, जो सदा एक सा है, जो परम है.

प्रभुता से प्रभु दूर


जून २००३ 
मन जब वर्तमान में नहीं होता तो चिंता आकर घेर लेती है. वर्तमान में अपार शक्ति है, इस क्षण में यदि मन टिक जाये तो मन स्थिर ही नहीं रहता बल्कि निर्दोष हो जाता है. सहज शांति का अनुभव होता है. ‘लघुता से प्रभुता मिले, प्रभुता से प्रभु दूर’ संभवतः जब हम विनम्र होते हैं तभी वर्तमान में टिक पाते हैं, जैसे ही अहंकार आ जाता है तो मन भूत या भविष्य की उलझनों में फँस जाता है. भगवद् अनुभव से हम वंचित रह जाते हैं. हम ईश्वर की कृपा के लिये लालायित रहते हैं लेकिन एक बार जब कृपा का अनुभव होने लगता है तो उसे भूल जाते हैं. उसकी कृपा का आनंद ही हमें उसकी कृपा से वंचित कर देता है तभी कृष्ण ने गोपियों को अपना वियोग दिया था, ताकि वे उसे भूलें नहीं.
कभी-कभी किसी से कोई काम कराने के लिए हम क्रोध का आश्रय लेते हैं, यदि भीतर प्रेम है और सजग रहकर केवल ऊपर से क्रोध कर रहे हैं तब भी इसका बीज कहीं अंदर है, तभी यह संभव है, क्षणिक क्रोध भी तभी होता है जब भीतर इसका संस्कार हो. संस्कार को जड़ से मिटाए बिना शाश्वत सुख का अनुभव नहीं हो सकता, सजगता ही इसके लिये साधन है.

Tuesday, July 24, 2012

अनुशासन जीवन में सौंदर्य भरता है


जून २००३ 
जीवन जीना एक कला है और जीवन में अनुशासन रखना भी. प्रकृति के सारे कार्य अपने निर्धारित समय पर सम्पन्न होते हैं, एक पल के लिये भी वह नहीं चूकती, लेकिन मानव सदा आपने प्रमाद भरे मन के कारण चूक जाता है. ज्ञान ही उसका एक मात्र आधार है जिस पर उसे अपने जीवन की इमारत को खड़ा करना है, जनक को ज्ञान हुआ तो वे विदेही कहलाये, यह ज्ञान कि वह मरणधर्मा शरीर नहीं है, अमर ऊर्जा हैं, कि यह तन जो हर क्षण क्षय की ओर बढ़ रहा है, सारी शक्ति और समय का हरण कर लेता है, इसे स्वस्थ रखने, सजाने, संवारने, खिलाने-पिलाने में ही सारा समय नष्ट न करके आत्मा को पुष्ट बनाएँ. आत्मा की पुष्टता हमारे मन पर निर्भर करती है, मन जो खाली हो, जगत के हित की बात सोचता हो, प्रेम से परिपूर्ण हो. ऐसा मन हमें व्यर्थ के कार्यों से बचाता है, शक्ति का अपव्यय नहीं होता. उस समय व शक्ति का उपयोग ही हम ध्यान में, सत्शास्त्रों के अध्ययन में लगा सकते हैं. सुमिरन में लगा सकते हैं.

Monday, July 23, 2012

निज स्वभाव ही धर्म है



अनुकूलता व प्रतिकूलता का नाम ही सुख-दुःख है, जो निरंतर परिवर्तनशील है. अंतर्मन तक यदि न सुख की शीतलता पहुँचे न दुःख का ताप, तो समता की स्थिति सिद्ध माननी चाहिए. आत्मा सुख-दुःख से परे है यह मानने से ही काम नहीं चलेगा, और न जानने से ही, यदि जानना केवल बुद्धि के स्तर पर हो, अनुभूति के स्तर पर जानना ही धर्म है. धर्म को उपलब्ध हुए बिना दुखों का अंत नहीं होता. एक बार जब हम अपने अंतर्मन में निज स्वभाव का अनुभव कर लेते हैं तो बुद्धि स्थिर हो जाती है, उस दीपक की तरह जिसे ओट मिली है. जीवन तब सत्यं, शिवं, सुन्दरं की परिभाषा को सत्य सिद्ध करता है

Saturday, July 21, 2012

अभेद की साधना


जून २००३ 
जगत जीवन का विराट रूप है, जीवन में विषमता है, जगत में भी विषमता है, पर इसके पीछे जो समता है वही इन्हें जोड़े हुए है, हमें समता को ही पाना है, समत्व योग की साधना करनी है. विषमता ही आत्मा का हनन है. यदि स्वार्थ प्रमुख है समता सिद्ध नहीं हो सकती. परार्थ और परमार्थ जीवन में हों तभी समता आती है. मूलतः सभी एक ही सत्ता से प्रकटे हैं, सभी एक हैं, जब यह अभेद दृष्टि आ जाती है तभी समता घटती है. तभी अंतर में एक ऐसी अवस्था का अनुभव होता है जो किसी भी बाहरी कारण पर निर्भर नहीं है. वही परमात्मा है, वहाँ कोई भेद नहीं पर भक्त अपने अंतर का प्रेम व्यक्त करने के लिये भेद मान लेता है, वास्तव में यह उसी की लीला है, ईश्वर स्वयं ही स्वयं से प्रेम करने के लिये विभिन्न रूपों में प्रकट होता है. अध्यात्म की चरम स्थिति में भौतिक और अध्यात्मिक का भी कोई भेद नहीं रह जाता. जड़ के पीछे चेतन पर ही भक्त की दृष्टि रहती है.

Friday, July 20, 2012

मैं कौन हूँ


 जून २००३ 
‘कोहम्’ का जवाब जब मिल जाये तो परमशांति का अनुभव होता है. निरंतर अभ्यास ही हमें इस पथ पर पहुँचा सकता है. जब संकल्प दृढ़ हो और मन में तितिक्षा हो. आत्मा में जो भी शक्ति है वह परमात्मा की दी हुई है. इसका अनुभव हमें करना है. अर्जुन का सारथि हमारा भी सारथि है. वह हमें उस पथ पर ले जाने को उत्सुक है. हमारी यात्रा में वह सदा हमारे साथ है, मार्ग दर्शक है, वही लक्ष्य भी है. परमशांति भी वही है, अर्थात हमारे मन की ऐसी स्थिरता जो बाह्य परिस्थितियों पर निर्भर नहीं हो. निर्विकल्प अवस्था का अनुभव हो जाने के बाद ही बोध होगा और एक बार बोध हो जाने के बाद संशय का कोई स्थान नहीं रह जाता. न स्वयं पर, न पथ और न पथ का ज्ञान कराने वाले पर. निरंतर प्रयास करने ही हमारे हाथ में है, शेष प्रभु कृपा. वही हमें इस धरा पर लाया है, उसका हमारी प्रगति में पूरा हाथ है, वह हमें आगे बढ़ते देखना चाहता है, वह हमारी प्रतीक्षा में है, बल्कि वह भी हमारी ओर कदम बढ़ा चुका है. देर तो हमारी तरफ से ही होती है.


Thursday, July 19, 2012

भीतर का संसार अनोखा


जून २००३ 
ध्यान उस परमात्मा से मिलने का द्वार है, और ध्यान तभी टिकता है जब मन खाली हो, उसमें इस नश्वर जगत की उधेड़-बुन न चल रही हो, कोई संशय न हो और कोई कामना भी न हो. जगत आत्मा को दे भी क्या सकता है, साधक को अपने लक्ष्य तक पहुंचने की कामना के अतिरिक्त कुछ याद नहीं रहता. सत्य की सत्ता में अटूट विश्वास, उसके प्रति अनन्य श्रद्धा, और असीम प्रेम यही उसकी पूंजी होती है. इन सबको हृदय में धर कर वह ध्यान में बैठता है तो भीतर जैसे अमृत कलश छलक उठता है. वे पल अनुपम होते हैं, फिर समय का ध्यान नहीं रहता, भीतर से जैसे कोई तार जुड़ जाता है, वास्तव में क्या होता है उसे भी ज्ञात नहीं होता. वह अकथनीय है, अवर्णनीय है. लेकिन उर में एक विश्रांति का अनुभव होता है, उस के प्रेम का अनुभव उसकी निकटता का अनुभव, भीतर का संसार अनोखा है वहाँ उजाला ही उजाला है, संगीत है. परमात्मा रसमय है, प्रेममय है.

Wednesday, July 18, 2012

सहज योग ही लक्ष्य है


जून २००३ 
सदगुरु हमारे मन में ज्योति जलाते हैं, वह अपने अंतर का आनंद हमें भी बाँटना चाहते हैं. वह हमारे भीतर सोयी श्रद्धा को जगाते हैं. उनका प्रेम अनंत है, हम अपने मन की डोर यदि उनके हाथों में सौंप दें तो उन्नति स्वाभाविक है, वरना ऊर्जा व्यर्थ ही इधर-उधर के कार्यों में लगती रहेगी. वह हमें मन की कल्पनाओं को महत्व न देकर स्वयं में स्थित रहने का संदेश देते हैं. सुख-दुःख के विष को पचाना सिखाते हैं. दुखाकार वृत्ति के साथ जुड़ना अथवा न जुड़ना हमारे अपने हाथ में है, वह समता में रहना सिखाते हैं. परमात्मा के नाते सब उसका है, जगत के नाते भी सब उसी का है. मुक्तात्मा बन कर जीना ही वास्तव में जीना है. मन के दोष मिटाते मिटाते समाधि  की अवस्था तक पहुंचना है पर वहाँ भी रुकना नहीं है बल्कि सहजता के योग को साधना है. अपनी महिमा को जानकर अपने वास्तविक स्वरूप को  पाने के लिये ही हमारा सभी प्रयास चल रहा है. अपनी अल्प बुद्धि से उसे जान नहीं सकते बुद्धि से पार जाकर ही वहाँ की खबर मिलती है.

Tuesday, July 17, 2012

वही सच्चा सखा है


जून २००३ 
संतकवि तुलसीदास के प्रति मन कोटि-कोटि बार श्रद्धा से नत हो जाता है. ‘उत्तरकांड’ में कवि की अद्भुत लेखनी का प्रभाव दिखाई देता है. भक्ति और ज्ञान, सगुन और निर्गुण के प्रति सारे संशयों को खोलकर रख देते हैं. ज्ञान के पथ पर चलना दुष्कर है, उससे अहंकार भी उपजता है. और पतन भी शीघ्र होने की सम्भावना है. भक्ति का पथ सहज है, हृदय में ईश्वर के प्रति अनन्य प्रेम ही भक्ति है, भक्ति यदि दृढ़ हो तो ज्ञान भी प्रकट होता है. ईश्वर और हमारे सम्बन्ध का ज्ञान, परमात्मा और आत्मा की एकता व भिन्नता का ज्ञान. परमात्मा सभी के भीतर है, आत्मा अपने शरीर के प्रति ही सजग है. परमात्मा विभु है, आत्मा अणु है. हम परमात्मा के नित्य सेवक हैं पर ऐसे निकट के जो मित्र भी हो सकते हैं. जब हम उसके प्रति पूर्ण समर्पित होते हैं, कोई दुराव नहीं रखते, उसके सिवा कुछ नहीं चाहते, तो परमात्मा हमें अपना सखा ही मानता है. किन्तु हम जो सदा स्वयं को आगे रखने की चेष्टा करते हैं, अपनी सांसारिक बुद्धि को ही सही मानते हैं. जगत को भगवद् बुद्धि से देखने का अभ्यास नहीं करते बल्कि दोष दृष्टि से देखते हैं. यही हमें परमात्मा से दूर करता है.

Monday, July 16, 2012

द्वंद्वों से विरत हुआ जो


जून २००३ 
द्वन्द्वों से भरा है यह जगत, कभी सुख कभी दुःख, कभी शांति कभी अशांति, कभी शीत कभी ग्रीष्म रात और दिन की तरह ये आते जाते रहते हैं लेकिन जो गुणातीत हो जाता है उसे ये द्वंद्व नहीं बांधते, उसे प्रभावित करते ही नहीं. जब दोनों ही अस्थायी हैं तो किसी को भी स्नेह या द्वेष क्यों दे, स्नेह का पात्र तो वही हो सकता है जो चिर स्थायी हो और वह हमारे भीतर है. द्वन्द्वों के साक्षी बने रहें तो वे हम पर हावी नहीं होते. वीतरागी होना है तो न राग रहे न द्वेष. जो दिखाई दे रहा है उसके पीछे की शाश्वत सत्ता हर जगह है उसके प्रति समर्पण के बिना प्रार्थना अधूरी है. जाने-अनजाने हमने जो भी किया है वह संस्कार रूप में हमारे भीतर स्थित है नहीं तो हमें सदा मन की एक सी स्थिति मिली रहती. पर ऐसा नहीं है कि हम इसे काट नहीं सकते, ज्ञान की तलवार से भक्ति की फुहार से हम पूर्व कर्मों को काट सकते हैं पर ऐसी भक्ति, मुक्ति के बाद ही प्रकट होती है, मुक्ति राग-द्वेष से, समता भाव साधना होगा इसके लिये और वही द्वंद्वों से परे होना है.

Saturday, July 14, 2012

एक रहस्य सबके भीतर


साधक को किसी भी बात पर परेशानी होती ही नहीं, आनंद का स्रोत यदि भीतर मिल गया हो तो छोटी-छोटी बातों का असर नहीं होता, हम किसी महान उद्देश्य को पाने के लिये यहाँ भेजे गए हैं. वह रहस्य हमारे भीतर है, उसके ही निकट हमें जाना है, जीवन के हर पल का उपयोग उस परम सत्य की खोज में हो सके तो ही जीवन सफल है. हमारा रोजमर्रा का कार्य भी उसी ओर इंगित करे, हमारे विचार, हमारा आचरण भी वही दर्शाये, हम जो भी अनुभव करें, सच्चे मन से करें, सजग होकर करें,  विवेक को जगाएं. मिथ्या अहं को त्याग कर जीवन को एक विराट परिदृश्य में देखें. हम सभी श्वास के द्वारा एक दूसरे से जुड़े हैं, हमारी चेतना परम चेतना का ही अंश है. हम अपरिमित शक्ति के स्वामी हैं !


Friday, July 13, 2012

प्रार्थना में बल है


मई २००३ 
हे परमेश्वर ! हमारा आज का दिन मंगलमय हो, अंतर में शांति का साम्राज्य बना रहे. उसे कोई भी न तोड़ सके, मन समता से भरपूर हो. जो सुखकारी हो, मंगलकारी हो ऐसा वातावरण हम बनाएँ, सत्य वाणी ही हम बोलें. कर्म परम लक्ष्य की ओर ले जाने वाले हों. नियमपूर्वक अविरत हम अपना नियत कर्म पूरा करें, प्रमाद हमें छू भी न पाए. सौम्यता, कोमलता और मधुरता हमारे आभूषण बनें हमारी  प्रार्थना में पुरुषार्थ हो, श्रम हो तभी हमारी प्रार्थना सफल होगी. कभी-कभी जीवन हमारी परीक्षा लेता है, इसमें ईश्वर पर अटूट विश्वास ही हमें स्थिर रख सकता है. जो कुछ भी हो रहा है उसके पीछे कोई न कोई उद्देश्य है, धागे जो उलझ गए हैं अपने आप ही सुलझ जायेंगे, जहाँ अंधकार नजर आता है कल वहीं उजाला होगा. अभी जहाँ उलझाव है वहीं उसके पीछे उसका हल है जो हमें अभी नजर न आ तरह हो पर भविष्य में आयेगा. वह परम चेतना हम सब के भीतर है, सभी को निर्देश दे रही है. हम सभी सुरक्षित हाथों में हैं.

Thursday, July 12, 2012

सब उस पथ के ही राही हैं


मई २००३ 
ईश्वर को मानना ही नहीं जानना है क्योंकि मानना भी कल्पना है. हम अपने संस्कारों के कारण, परिवार व समाज की मान्यता के कारण मन में ईश्वर का एक चित्र बना लेते हैं, पर जब उसे स्वयं अनुभव करते हैं, तभी उसे वास्तव में जानते हैं. जीवन में श्रद्धा हो, विश्वास हो, प्रेम हो, आस्था हो, अनुशासन हो, परहित की भावना हो, दोष दृष्टि न हो, अपने दोषों को उखाड़ फेंकने की ललक हो, स्वयं को कुछ न मानते हुए उस परम सत्ता को ही जगत का कारण मानते हुए निरहंकारी होते जाने का प्रयास हो, तभी साधना के पथ का अधिकारी कोई बन सकता है. सभी में उसी चैतन्य का वास है, सभी अपने-अपने पथ से उसी की ओर जा रहे हैं, सभी को वह उनकी क्षमता के अनुसार निर्देशित कर रहा है, यह मानव जन्म हमें उस परम को जानकर आनंदित होने के लिये मिला है. जीवन का परम लक्ष्य वही है, केवल वही, उसे पाकर कुछ भी पाना शेष नहीं रह जाता...



Tuesday, July 10, 2012

प्रेम पनपता है जब भीतर


मई २००३ 
मन की शुद्धता उसी के पास है, जो हरेक के भीतर उसी चैतन्य का दर्शन करता है, जो सुख-दुःख में सम रहने की कला जानता है, जो धैर्यवान है, जो मिथ्या अहंकार का पोषण नहीं करता. जो सत्य का पक्षधर है, जो प्रकाश की खोज करता है वह हृदय पावन होने लगता है. जैसे कीमती पदार्थ रखने के लिये कीमती व सुरक्षित स्थान भी चाहिए, वैसे ही ज्ञान के लिये भी पात्रता चाहिए. ज्ञान होने पर ही हृदय में प्रेम का उदय होता है, प्रेम अपने आप में साधन भी है और साध्य भी, परम के प्रति प्रेम यदि दृढ़ है तो साधक को और कुछ प्राप्य नहीं रह जाता. ईश्वर के प्रति अनन्य प्रेम ही साधना का लक्ष्य है. प्रेम होने पर सारे सदगुण अपने आप प्रसाद रूप में मिल जाते हैं. तब कोई उहापोह नहीं रहती, सारा का सारा विषाद न जाने कहाँ चला जाता है.  

पल पल जागा रहता साधक


मई २००३ 
साधक का लक्ष्य है पल-पल सचेत रहना, क्योंकि सचेत मन स्वयं को स्पष्ट देखता है, हमें हमारी बड़ी कमियां भी जब छोटी सी भूल मालूम होती हैं तो मन सोया हुआ है. वह पीड़ा जो कठोर वाणी के बाद स्वयं को ही दंश देती है परमेश्वर की कृपा ही है, यह असंतोष की भावना जो साधक को कचोटती है परम सत्य को पाने के लिए तत्पर होने का संदेश ही देती है. साधना का पथ कभी-कभी सांप-सीढी के खेल की तरह प्रतीत होता है, मंजिल तक पहुंचने का आनंद मिलने ही वाला होता है कि हम गहरे गड्ढ में धकेल दिए जाते हैं. किसी संत से सुना कि जब शुभकर्मों का उदय होता है तो ईश्वर का अनुग्रह होता है और उसकी निकटता मिलती है जब अशुभ कर्मों का उदय होता है तो उसकी कृपा होती है अर्थात उसका वियोग होता है. जैसे रात और दिन का क्रम चलता है वैसे ही साधना में जब तक पूर्व जन्मों के बंधन नहीं कटते सुख-दुःख लगे ही रहेंगे. पर नए कर्मों के बंधन न बनें, नयी गांठ न पड़े इसके लिये तो सजग रहना होगा. पूरी तरह शरणागत हो जाएँ तो पुराने कर्मों के बंधन भी धीरे-धीरे कटने लगते हैं.


Monday, July 9, 2012

सजग रहना है श्वासोच्छवास के प्रति


श्वास के माध्यम से हम निरंतर आत्मा में स्थित रह सकते हैं, श्वास की माला सदा चल रही है, यदि हम उसके प्रति सचेत भर हो जायें तो वर्तमान में रहने लगते हैं. शांति, आनंद तथा प्रेम हमारे भीतर की गहराई में हैं ही, हृदयरूपी सागर से मथ कर हमें इन्हें ऊपर भर लाना है. वर्तमान सदा तृप्त है, वह काल के अनंत फैलाव में एक सा है, श्वास के प्रति सजग होते ही विचारों के प्रति सजगता बढ़ जाती है. विचार ही कर्म को जन्म देते हैं. अन्ततः श्वास ही मन का आधार है. श्वास ही ऊर्जा है.


Saturday, July 7, 2012

मूल से जुड़ना है


मई २००३ 

जब हम अपने स्थान से, अपने वास्तविक पद से हट जाते हैं तभी सुख-दुःख का अनुभव करते हैं. निज स्थान से तो यह जग एक खिलौने की भांति प्रतीत होता है, इसका असली चेहरा प्रकट हो जाता है. यह ज्ञान अंतर में उदित होता है कि जिन वस्तुओं के लिये हम दिनरात एक कर देते हैं वे तो जड़ हैं, उनसे हमारी शोभा नहीं है. हमारा असली धन तो हमारे मन की स्थिरता, समता भाव, तथा अखंड शांति है, जो अच्युत है, जिसे कोई बाहरी आधार नहीं चाहिए जो अपने भीतर ही सहज प्राप्य है, जो हमारा मूल है. हमें खोल की नही मूल की परवाह होनी चाहिए. हमारा प्रत्येक कर्म वास्तव में उसी को पुष्ट करे, हम स्वयं के लिये अजनबी न बनें, समता का रस हमें स्थिर रखे, कोई घटना जाने अनजाने हमें मलिन न करे, प्रतिक्रिया नहीं अनुभूति मन में जगे. सहज अनुभूति.

एक यात्रा जीवन की


मई २००३ 
जीवन एक दीर्घ यात्रा है, और उसमें इस शरीर से मिला जीवन तो एक पड़ाव भर है, अगला जन्म यानि अगला पड़ाव. जैसे मंदिर में जाने के लिये सीढ़ियाँ होती हैं वैसे ही अपनी असली मंजिल पर जाने के लिये यह जीवन व मृत्यु सीढ़ी की तरह है. यहाँ कुछ भी चिरस्थायी नहीं है न ही हमारे साथ जाने वाला है सिवाय उस आत्मिक शांति के जो हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है. ज्ञान ही हमारा लक्ष्य है और उस ज्ञान के पथ पर आत्मिक शांति फल है, प्रेम हमारा पाथेय है, और भक्ति शीतल जल. यह रास्ता बहुत दुर्गम होते हुए भी सरल है क्योंकि इस पर हमारे साथ परमात्मा चलते हैं वह पग-पग पर हमें सम्भालते हैं, उन्होंने हमें अकेला नहीं छोड़ा है, वह हर क्षण हमारे साथ हैं.

Friday, July 6, 2012

कर्म की कला


मई २००३ 
हमारे कर्म मात्र हमारा ही उत्थान-पतन नहीं करते हैं वरन् वे हमारे आसपास के वातावरण के उत्थान-पतन के प्रति जिम्मेदार हैं, हमारी संतति को भी वे प्रभावित करते हैं. कर्म शुद्ध होंगे तो भविष्य ज्ञानमय होगा. मूल्यों के प्रति प्रतिबद्दता होगी तो ही ज्ञान हमारा सहायक होगा, कोरा ज्ञान हमें कहीं नहीं ले जाता.  हमारे कर्म ही हमारे आंतरिक भावों को प्रकट करते हैं. मनसा-वाचा-कर्मणा जो एकरस है भीतर-बाहर एक सा उसे अपने कहे, किये या सोचे पर एक क्षण के लिये भी पछताना नहीं पड़ता. सहज भाव से जो भी मार्ग में आये उसे अपने विकास के लिये साधित कर लें तो जीवन में अर्थ की सुगन्धि भर जाती है.


Thursday, July 5, 2012

खोलनी हैं मन की जंजीरें


मई २००३ 
हमारे जीवन के लिये जो भी आवश्यक है, ईश्वर ने उसके भंडार खोल दिए हैं. धूप, हवा और पानी तथा इनसे ही उत्पन्न अन्न. यही तो हमें चाहिए, बजाय कृतज्ञ होने के हम अपने अभावों की तरफ दृष्टि डालते रहते रहते हैं. यही हमें बांधता है, मन की जंजीरें दिखाई नहीं पड़ती पर वे हैं बहुत मजबूत. जिन्हें हम स्वयं ही बांधते आये हैं, कितनी ही गाँठे हैं जो हम नित्य प्रति बांधते जाते हैं. सदगुरु की कृपा से ज्ञान का प्रकाश जब भीतर फैलता है तो सारे विकार स्पष्ट नजर आते हैं, वरना अहंकार का अँधेरा इतना गहना था कि कुछ सूझता ही नहीं था. सदगुरु दर्पण है जिसमें असलियत झलकती है. हमारे विकार चाहे कितने ही अधिक हों कृपा सदा उससे कहीं अधिक है सो शीघ्र ही जीवन में प्रकाश बरसता है... जीवन फिर एक उत्सव बन जाता है ..कभी खत्म न होने वाला उत्सव.


Wednesday, July 4, 2012

जल में घट, घट में जल


हमारे भीतर अनंत सम्भावनाएं छुपी हैं. हम परमात्मा के अंश होने के कारण उसकी अपरिमित शक्ति के हकदार हैं. साधना उसी शक्ति को प्रकट करती है. आनंद, सहजता, प्रेम, वर्तमान में रहने का गुण, कालातीत होना, उत्साह आदि गुण हमें इस पथ पर सहायक हैं. अहंकार सबसे बड़ी बाधा और विनम्रता सबसे पहली आवश्यकता है. हमारे पास जो कुछ भी है वह उसी का है. अभी वह हमें अपने से पृथक दिखाई पड़ता है, हमें उसकी चाह होती है. वही सब कुछ है यह जानते हुए भी अपने गुणों व उपलब्धियों पर चाहे वे कितनी भी नगण्य क्यों न हों, अभिमान कर बैठते हैं. ध्यान में भी वही है जीवन में भी वही है. हम बीच में आये कहाँ से, वास्तव में हम खुद को ही खोजने में लगे हैं और जब हम हैं ही नहीं तो खोजें किसे ? कबीर ने ऐसे ही कभी कहा होगा- घडे में पानी, पानी में घड़ा.... वह हममें है हम उसमें हैं, फिर कौन किसे मिले और कौन किससे मान करे ....?


Tuesday, July 3, 2012

पूर्णता की ओर


हमारी उत्पत्ति आनंद से हुई है, हम आनंद में ही जीते हैं, उसी में स्थित हैं, उसी को पाना हमारा लक्ष्य है. वह मस्ती, वह फक्कड़पन, वह अनुभूति जो ध्यान में होती है जब आँखें खोलने का भी मन नहीं होता, एक रस का स्रोत भीतर प्रवाहित होता सा लगता है, वही प्रेम है, वही सत्य है, जो अपना रूप कभी दिखाता है, कभी छिपा लेता है. उसके साथ एक बार यदि सम्बन्ध जुड़ जाये तो वह कभी बिछड़ता नहीं क्योंकि वही सत् है. संसार यदि मिल भी जाये तो वह छूटने वाला है क्योंकि वह असत् है, संसार परिवर्तनशील है, यह उत्पन्न होता है फिर नष्ट होता है. यहाँ संयोग भी है और वियोग भी है. लेकिन परम के साथ यदि एक बार संयोग हो गया तो कभी वियोग नहीं होता. वियोग प्रतीत होते हुए भी वह वह मधुर पीड़ा का अहसास कराता है. वे अश्रु जो उसके विरह में बहते हैं शीतल होते हैं. वह पूर्ण है और हम भी उसी पूर्णता की तलाश में हैं.


Sunday, July 1, 2012

भीतर बरसे जाता है वह


मई २००३ 
इस संसार से जो भी हम प्राप्त करते हैं उसके पीछे दुःख छिपा हुआ है. एक बार जब बुद्धि इस सत्य को जान लेती है तो भीतर गए बिना कोई रस्ता नहीं बचता और वहाँ आनंद बरस ही रहा है. उसके बाद जगत का दुःख सहन नहीं होता. तब सहज वैराग्य का जन्म होता है. और जब यह क्षण जीवन में आता है जीवन संगीतमय हो जाता है. अधरों से मुस्कुराहट कभी जाती नहीं. आँखों में एक रहस्य छिपा रहता है. तब जीवन में उपरति हो जाती है. हर कार्य एक खेल लगता है. तब जीना कितना सहज और सरल हो जाता है.