Wednesday, October 3, 2012

नानक दुखिया सब संसार


सितम्बर २००३ 
हमें कृष्ण की परा प्रकृति का अंश होना है, जो शाश्वत है, चिन्मय है, नित्य है, सत्य है. यह संसार दुखों का घर है. विभिन्न प्रकार के रोगों, कष्टों, और तापों से ग्रस्त प्राणी यहाँ अनवरत दुःख पा रहे हैं. कहीं आतंक का शिकार होते हैं, कहीं प्राकतिक आपदाओं के, कहीं अपनी ही गलती के कारण  दुर्घटना का शिकार तो कहीं दूसरों की गलती के कारण. कौन है जो इस भट्टी में नहीं तप रहा है. एक मात्र सद्गुरु ही ऐसा है जो इन सबसे परे है, जगत के व्यापर उसे छू भी नहीं पाते. दुःख देखकर उसका हृदय द्रवित तो होता है पर पीड़ित नहीं होता. वह स्वयं के ज्ञान से इतना परिपूर्ण हो चुका है कि कुछ पाना उसके लिए शेष नहीं रह गया है. वह सिर्फ देना चाहता है. उसके पास जो है वह जगत के पास नहीं है. जिसमें सहज स्वाभाविक रूप से संतों के प्रति प्रेम है, सद्वचनों तथा सत्संग के प्रति गहरा आकर्षण है, उस पर ईश्वर की कृपा ही तो है. ईश्वर हमारे हजार दोषों को नजरअंदाज कर देते हैं, बस अपने प्रति सच्चे प्रेम को देखते हैं, वह प्रेम की भाषा जानते हैं और कुछ भी उन्हें रिझाने के लिये नहीं चाहिए. सच्चा, शुद्ध, एकांतिक निर्मल प्रेम यदि किसी के हृदय में उत्पन्न हो जाये तो उसे तत्क्षण प्रभु दर्शन हो सकते हैं. फिर उन्हीं की छवि भीतर-बाहर दिखती है, उनकी कृपा के अतिरिक्त कौन हमारा सहाय है, और वह हमारे कितने निकट है, हमसे भी निकट, हमारे व स्वयं के मध्य तो कल्पनाओं का एक बड़ा झुण्ड है पर उसके व हमारे बीच तो कुछ भी नहीं. हवा और रौशनी की तरह वह हर क्षण हमें सहज प्राप्त है.  

4 comments:

  1. बहुत अच्छा लिखा आपने ....जब सारा संसार ही दुखी है तो अपने दुखों के क्या गीत गाएं

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  2. हमें कृष्ण की परा प्रकृति का अंश होना है, जो शाश्वत है, चिन्मय है, नित्य है, सत्य है.

    जीवन के मर्म को बतलाती

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  3. आपकी डायरी के पन्नों से सदैव कुछ न कुछ नया सीखने को मिलता रहता है।

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  4. उपासना जी, रमाकांत जी, व मनोज जी आप सभी का स्वागत व आभार !

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