Sunday, February 24, 2013

खो जाते हैं दुःख तब सारे



ईश्वर के बारे में जितना भी सुनें, मन तृप्त नहीं होता, वह नित नवीन है, रसमय है, उसका नाम भी उसी का रूप है. अंतर में जब उसका सुमिरन चलता रहता है, उसकी याद बनी रहती है तो हम दुःख  से बच जाते हैं, अन्यथा संसार का साथ हमें मिले तो दिन भर में कितनी बार मन कुम्हला जाता है. पर रहना तो हमें संसार में ही है, सो मन को इस तरह ढालना होगा कि जगत में रहकर भी वह प्रभु से जुड़ा रहे, अर्थात अपनी याद बनी रहे. हमारी एक-एक श्वास उसी की दी गयी है, उसकी अध्यक्षता में यह प्रकृति काम करती है, जो इस चराचर का नियम है. वही प्रभु प्रेम करने वाले अपने भक्त की निकटता में आनंद का अनुभव करता है. हम जब संसार में रहते हैं तो खुद को देह मानते हैं पर परमात्मा के साथ तो हम आत्मा रूप में ही मिल सकते हैं. हम न सिर्फ देह नहीं हैं बल्कि मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार नहीं हैं. हम वास्तव में उसके अंश हैं, उसमें हमारा स्नेह होना स्वाभाविक है. केवल प्रेम अथवा केवल भक्ति अथवा केवल कर्म अधूरे हैं, तीनों का समन्वय होना चाहिए. ज्ञान यही है कि हम देह नहीं है, भक्ति यही है कि हम उसका अंश हैं, वह विभु है हम अणु हैं. कर्म यही है कि हमारे सभी कर्म शुद्ध हों, करणीय कर्म ही करें, मनसा, वाचा, कर्मणा हमसे कोई ऐसा कर्म न हो जो बंधन में डालने वाला हो. सद्गुरु रूपी तीर्थ में हमें अपने मन के मालिन्य को धो डालना है.

2 comments:

  1. कर्म यही है कि हमारे सभी कर्म शुद्ध हों, करणीय कर्म ही करें, मनसा, वाचा, कर्मणा हमसे कोई ऐसा कर्म न हो जो बंधन में डालने वाला हो.
    बिल्‍कुल सही ...
    आभार

    ReplyDelete
  2. सदा जी, आपका स्वागत है..आभार !

    ReplyDelete