Monday, March 4, 2013

जरा सामने तो आओ...


मई २००४ 
यह जो एक नामालूम सी कसक भीतर छायी है, यह जो अनजानी सी पीड़ा ने मन को व्यथित किया है, यह विरह की पीड़ा है. चैन नहीं लेने देती यह, मन को पल-पल जलाती है, तड़पाती है, इसे नाम नहीं दिया जा सकता पर यह है वही, वह नहीं मिलता जब, तभी यह अभाव मन को खटकता है, पर वह तो नित हमारे साथ है, फिर यह दर्द क्यों , वह है पर मन पर पर्दा पड़ा है, वह छिप गया है. वह  मिला तो गर्व हो गया अब उस गर्व को मिटाने के लिए यह पीड़ा रूपी औषधि लेनी है. जो भी हो रहा है, उसे साक्षी भाव से देखना है, भोक्ता नहीं बनना है, यह सोचते ही मन हल्का होने लगता है. जो कुछ भी हो रहा है वह मन के बाहर की बात है, जैसे सड़क के किनारे खड़े होके देखें तो अनगिनत लोग गुजर जाते हैं, हम अलिप्त रहते हैं, वैसे ही मन को देखते जाना है, मन में तरंगे उठती हैं, गिरती हैं, हम उसके द्रष्टा हैं, द्रष्टा भाव दिया है उसी परमात्मा की शक्ति ने, इसके पार वही तो है. 

4 comments:

  1. हर जगह बस वही है वही है ...सुन्दर भाव अनीता जी ...

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  2. इसके पार वही तो है.
    सच

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  3. परमात्मा की शक्ति अपरम्पार है पर दिखाई नहीं देती,,,

    Recent post: रंग,

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  4. प्रवीन जी, सदा जी तथा धीरेन्द्र जी,आप सभी का स्वागत व आभार...

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