Friday, May 24, 2013

पानी विच मीन प्यासी

सितम्बर २००४ 
जो स्वयं मुक्त है वही दूसरों को मुक्त कर सकता है. जीवन मुक्त होने की क्षमता हम सभी के भीतर छिपी है, कोई सद्गुरु मिल जाये जो स्वयं मुक्त हो तो वह हमें मार्ग दिखा सकता है. कामनाओं का अंत नहीं है, भीतर सात्विक संकल्प जगा के ही इनसे मुक्त हुआ जा सकता है, ऐसे संकल्प जो हमें तृप्त करें, क्योंकि यदि हम पूर्णकाम होंगे तो हमारे आस-पास के वातावरण को हमसे कोई भय नहीं होगा, हमें उससे कुछ भी न चाहिए तो वह हमारी ओर विश्वास से देखेगा. हमारी तृप्ति अन्यों के संतोष का कारण भी बनती है, वास्तव में हमें कोई अभाव नहीं है, जब हम स्वयं से दूर हो जाते हैं तो विरह की अग्नि हमें जलाती है, भीतर कोई कसक उठती है, हम संसार से उसका समाधान चाहते हैं, पर जो स्वयं ही उसी अग्नि में जल रहा है, वह हमारी प्यास क्या बुझाएगा. जैसे ही हम भीतर उतरते हैं, अमृत का निरंतर बहता स्रोत नजर आता है. यही देखकर तो कबीर ने गाया है- पानी विच मीन प्यासी..आखिर अस्तित्त्व क्या यूँ ही अपनी सृष्टि को भटकने के लिए छोड़ देगा, वह जो प्रेम स्वरूप है, नहीं, वह तो निरंतर हमारे साथ है, भीतर जाकर उससे मिलना हमारा काम है.

Wednesday, May 22, 2013

जिस मरने से जग डरे


सितम्बर २००४ 
मृत्यु को जीतने का अर्थ है, मृत्यु के भय पर विजय पाना, अपने भीतर अमृत तत्व को पाने का अर्थ भी यही है, आत्मा ही व अमृत है जिसे हमें अपने मन रूपी सागर से मंथन करके निकालना है. हमारे शरीर में जो चेतन तत्व है वह हर काल व हर देश में एक सा है, उसे जान लेने पर शरीर का उतना महत्व नहीं रह जाता, ठीक है वह शरीर के माध्यम से कार्य कर रहा है, मन, बुद्धि आदि उसके सहायक हैं, पर वह कार्य कर ही क्यों रहा है ? वह स्वयं को जानने के लिए ही कार्य कर रहा है, आत्मा से ही आत्मा को जाना जा सकता है. वह मन, बुद्धि से परे है , पर इनके न रहने पर, शरीर के न रहने पर वह स्वयं को जान भी नहीं सकता. यह एक पहेली जैसा लगता है पर यही तो माया है. जीव ही ब्रह्म है यह जानने के लिए उसे माया का आवरण पार करना ही है. एक खेल है जो युगों-युगों से खेला जा रहा है, इस खेल में रोमांच भी है, आनन्द भी है, साहस भी है. जीव, माया को ही लक्ष्य मानकर भटकता रहता है, फिर सद्गुरु का उपदेश पाकर वह स्वयं को बदलता है और ब्रह्म को जानने का प्रयास करता है.

Tuesday, May 21, 2013

महावीर की अनुपम वाणी


सितम्बर २००४ 
जैनधर्म का अनेकांत सिद्धांत कहता है कि किसी भी घटना को अनेक कोणों से देखकर ही उसके बारे में राय देनी चाहिए. किसी व्यक्ति के बारे में भी कुछ कहते समय प्रतिपक्ष की राय भी देखनी होगी, एकांगी दृष्टिकोण हमें अहंकारी बनाता है. समाज में रहते हुए हमें अनेकों की सहायता लेनी पडती है. एक-दूसरे से हमें कुछ अपेक्षाएं  होती हैं, हमारा जीवन ऐसा हो कि किसी के लिए असहजता का कारण न बने. क्योंकि वास्तव में यहाँ कोई दूसरा है ही नहीं, एक ही है जो अनेक होकर दीखता है, हम किसी को दुखी करके स्वयं को ही दुःख पहुंचाते हैं.

Monday, May 20, 2013

प्रेम ही है ईश्वर


सितम्बर २००४ 
इस सृष्टि का आधार प्रेम ही है, प्रभु की कृपा से जब किसी के पुण्य जग जाते हैं, तो इस प्रेम की  प्राप्ति होती है, यह एक ऐसा धन है जिसे पाकर संसार के सभी धन फीके लगते हैं, जो घटता नहीं सदा बढ़ता रहता है. जन्मों-जन्मों से संसार को चाहता मन उसके चरणों में टिकना चाहता है, अब उसे अपना घर मिल गया है. जगत तो क्रीड़ास्थली है जहाँ कुछ देर अपना कर्तव्य निभाना है, और फिर भीतर लौट आना है. जगत में उसका व्यवहार अब प्रेम से संचालित होता है न कि लोभ अथवा स्वार्थ से. परमात्मा ही इस प्रेम का स्रोत है. हम जो इसकी झलक पाकर ही संतुष्ट हो जाते हैं, उनकी क्या हालत होगी जो इसके स्रोत तक पहुंच चुके हैं.

Friday, May 17, 2013

चित नवनीत बनेगा जब



मन खाली होने पर सहज ही उसकी उर्ध्व गति होती है- ईश्वर की ओर, ठीक जैसे तराजू के कांटे. संसार का दबाव है इसलिए ऊपर का कांटा नीचे के कांटे की बराबरी पर नहीं रहता. जिसकी जिसमें सत्ता होती है, उसमें आकर्षण भी होता है. ईश्वर की सत्ता भीतर है ही, संसार भी है, संसार की ओर आकर्षण अधिक होने से उसका पलड़ा अभी भारी है. इसीलिए कुछ दिन आश्रम में रहकर साधना की जाती है, अथवा तो कुछ समय प्रतिदिन सबसे विलग होकर. निर्जन में दही जमाकर ही उसमें से मक्खन निकाला जाता है. ज्ञान और भक्ति रूपी मक्खन एक बार मन रूपी दूध से निकल जाये तो संसार रूपी पानी में डाल देने पर भी वह निर्लिप्त होकर तिरता रहेगा, पर मन को कच्चे दूध की अवस्था में ही यदि संसार में छोड़ देंगे तो वह कभी ईश्वर की ओर आकर्षित नहीं होगा. एक बार उस ईश्वर को अपने भीतर पहचान कर उसकी कृपा से प्राप्त ज्ञान ही हमें मुक्त करता है. ज्ञान होने पर शुद्ध भक्ति का उदय होता है.  

Thursday, May 16, 2013

तू ही तू ही


सितम्बर २००४ 
ईश्वर की निकटता का अहसास ही इतना मधुर है तो स्वयं ईश्वर कैसा होगा, संतजन इसीलिए उसकी महिमा का बखान करते नहीं थकते. उससे प्रेम करो तो वे हमारी बुद्धि को शुद्ध कर देते हैं. उसकी कृपा भी अनंत है जो भक्तों के लिए साकार भी हो जाता है, कितना आश्चर्य है कि वह अनंत मानव के छोटे से मन में प्रविष्ट हो जाता है. प्रकृति पहले हमें तैयार करती है फिर अपने रहस्य खोलती है. वह एक ही है जो विविध रूपों में व्यक्त हो रहा है. वही पालनहार है वही काल है. सब कुछ बदलने वाला है, वही एक अबदल है, जो सबका आधार है.

राम, कृष्ण थे जो वही हुए परमहंस


सितम्बर २००४ 
रामकृष्ण परमहंस अनोखे लगते हैं, वह ईश्वर से इतने एकाकार हो चुके थे कि हर क्षण उसी भाव में रहते थे, वह कितने सरल स्वभाव के थे और यदि कोई ऐसा व्यक्ति उनके सम्मुख आता था तो कितने प्रसन्न हो जाते थे. वह अपने आप में एक मिसाल थे. ईश्वर को उन्होंने कई प्रकार की साधनाओं के द्वारा प्राप्त किया था. उनके जैसा व्यक्ति यदा-कदा ही संसार में आता है. ईश्वर ही उन्हें भेजता है अथवा तो ईश्वर ही मानव रूप में आता है उन्होंने कितने कष्ट सहे, ईश्वर होने से ही कोई कष्टों से मुक्त हो जाये ऐसा नहीं होता, कष्टों के बावजूद उनकी निष्ठा, अनन्य भक्ति में रंच मात्र भी फर्क नहीं आया, बल्कि वह बढ़ती ही गयी. हम जो अपने आप को भक्त मानते हैं थोड़ी सी पीड़ा से ही व्यथित हो उठते हैं. स्वयं को प्रकृति के बंधन से अलग करके जीना ही ज्ञान में जीना है.

Wednesday, May 15, 2013

राधे राधे मन बोले


  सितम्बर २००४ 
  गोपियों ने कृष्ण के प्रति पूर्ण समर्पण किया था पर राधा ने स्वयं का विसर्जन कर दिया है. राधा के प्रेम में चीत्कार नहीं है वह स्वयं को मिटा कर कृष्णरूप ही हो गयी है. कृष्ण से वह जब पृथक रही ही नहीं तो कैसा विरह और कैसी पीड़ा. विसर्जन करना बहुत कठिन है, अपने अहम् का विसर्जन, शक्ति, समय, सेवा का विसर्जन, प्रिय के साथ एकाकार हो जाना, द्वैत को मिटाकर एक्य स्थापित करना प्रेम की पराकाष्ठा है. भक्त भगवान को स्वयं से अलग मानकर उसकी पूजा करता है, अपनी निजता बचाए रखता है पर ज्ञानी भक्त स्वयं को मिटा देता है, उसके लिए दो नहीं रहते वह इतनी भी दूरी नहीं चाहता. किन्तु सेवा की यह भावना किसी बिरले को ही प्राप्त होती है. जन्मों के संस्कार हमें अहंकार से मुक्त होने नहीं देते, अहंकार इतना सूक्ष्म है कि कब आकर खड़ा हो जाता है पता ही नहीं चलता. कृपा के अधिकारी बनने पर ही इससे मुक्त हुआ जा सकता है. सजगता ही कृपा पाने की शर्त है.

Tuesday, May 14, 2013

भक्ति करे कोई सूरमा


 सितम्बर २००४ 
 साधना के पथ पर कोई वीर ही चल सकता है, यहाँ कायरों का कोई काम नहीं, एक चुनौती है यह पथ, जिसे बहादुर ही स्वीकार सकते हैं. मन को निरंतर समता के पथ पर बनाये रखना कोई बच्चों का खेल नहीं है, कई बार साधक विफल होता है पर भीतर जो कचोट उठती है वही उसे पुनः पुन उठकर चलने को प्रेरित करती है. समता नष्ट होते ही अशांति का अनुभव होता है, जो मानव का मूल स्वभाव नहीं है. ईश्वर का मूल स्वभाव आनन्द है, उसने हमें भी अपने निज स्वरूप में बनाया है. जगत से प्राप्त हुई प्रसन्नता क्षणिक है, जो मन अनुभव करता है, पर मन आत्मा के सागर पर उठी लहर है जो अभी है, अभी नहीं, तभी कोई भी सुख हमें पूर्ण तृप्ति प्रदान नहीं करता. जब यह लहर स्वयं को आत्मा का ही एक रूप जानती है तब उसे ही चाहती है और तभी मन समता में टिकने  लगता है.   

Thursday, May 9, 2013

भाव पुष्प से होती पूजा


सितम्बर २००४ 
साधना का पथ अत्यंत दुष्कर है और उतना ही सरल भी. जिनका हृदय सरल है, जहाँ प्रेम है, ऐसे हृदय के लिए साधना का पथ फूलों से भरा है, पर राग-द्वेष जहाँ हों, अभाव खटकता हो, उसके लिए साधना का पथ कठोर हो जाता है. कृपा का अनुभव भी उसे नहीं हो पाता, क्योंकि कृपा का बीज तो श्रद्धा की भूमि में ही पनपता है, अनुर्वरक भूमि में नहीं. जहाँ हृदय में ईश्वर प्राप्ति की प्यास ही नहीं जगी वहाँ उसके प्रेम रूपी जल की बरसात हो या नहीं कोई फर्क नहीं पड़ता, जब मन में एक मात्र चाह उसी की हो तभी भीतर प्रकाश जगता है. उस चाह की पूर्ति के लिए बाहरी साधनों की  आवश्यकता गौण है, वहाँ मन ही प्रमुख है, मन को ही प्रेम जल में नहला कर, भावनाओं के पुष्प, श्रद्धा का दीपक, आस्था का तिलक लगा कर शांति का मौन जप करना होता है. यह आंतरिक पूजा हमें उसकी निकटता का अनुभव कराती है, साधक तब धीरे-धीरे आगे बढता हुआ एक दिन पूर्ण समर्पण कर पाता है.

Wednesday, May 8, 2013

दीप जला है घट घट सुंदर


सितम्बर २००४ 
इस जगत में हम चाहे कितनी ही उपलब्धियाँ हासिल कर लें, यदि भीतर तृष्णा बनी हुई है तो वे सभी व्यर्थ हैं, हम यदि धन होने पर भी अभाव का अनुभव करें, शिक्षित होकर भी अज्ञान का प्रदर्शन करें, आस्तिक होके भी दुखी हों, तो हमारा धन, विद्वता, तथा धर्म सत्य नहीं हैं, कहीं न कहीं कोई भूल हो रही है. भीतर एक पूर्ण तृप्ति का अहसास ही एक मात्र ऐसी उपलब्धि है, जो पाने योग्य है. जीवन एक अनुपम उपहार है, जिसका हर क्षण आनंद का स्रोत बन सकता है. वह परम अस्तित्त्व, हमारा अपना आप अंतर में दीप जलाकर प्रतीक्षा रत है, हम बाहर से निरत होकर जैसे ही भीतर झांकते हैं, वह हमें बाहें फैलाये खड़े दीखता है. जिस क्षण उससे परिचय होता है, तत्क्षण एक अनोखी शांति बरसने लगती है. 

Monday, May 6, 2013

एक नाम ही अधारा...


सितम्बर २००४
हमारे जीवन में अध्यात्म का आना एक नियत समय पर होता है. इस ज्ञान को जिस क्षण हमने अपने हृदय में स्थापित कर लिया, उसी दिन से हमारे उद्धार की प्रक्रिया आरम्भ हो जाती है. ज्ञान का आश्रय लेकर हम अपने इर्द-गिर्द बने झूठे आश्रयों से किनारा करते चलते हैं. हम जिस जगत का सहारा लेकर खड़े थे, वह तो स्वयं ही डगमगा रहा है, तो हमें क्या संभालेगा. ज्ञान ही सच्चा आश्रय है. ज्ञान तभी हृदय में टिकता है जब मन समाहित हो, वर्तमान में हो. एक हुए मन में कोई भेद नहीं रहता, तब विभिन्न नाम-रूपों में एक ही सत्ता के दर्शन होते हैं, तब कौन किससे चाहेगा या द्वेष करेगा. जब मन में कोई लहर नहीं उठती तब ही आत्मा अपना प्रकाश फैलाती है. व्यक्ति, वस्तु, परिस्थिति के प्रति सहज स्वीकार भाव हमारी ऊर्जा को बचाता है, जो मन को समाहित रखने में सहायक  होती है. 

बिखरा है चहुँ ओर वही तो


सितम्बर २००४ 
हमारा तन पांच तत्वों का बना हुआ है और हमारा मन प्रेम का, मन को हम देख नहीं सकते महसूस करते हैं, वैसे ही प्रेम को भी. जैसे विकारी मन दुःख देता है, शांत मन सुखकारी है, प्रेम भी यदि विकृत हो जाये अर्थात उसमे ईर्ष्या, क्रोध आदि के भाव समा जाएँ तो वह दुःख देता है. इन विकारों से रहित शुद्ध प्रेम हमें अपने भीतर ही खोजना होगा, तब वह सृष्टि के कण-कण में दिखाई देगा. वर्तमान के क्षणों में ही ऐसे प्रेम का अनुभव हो सकता है, क्योंकि वह बालवत निर्दोष होता है, उसे कुछ चाहिए नहीं, वह देना चाहता है. मृत्यु के क्षणों में भी प्रेम के कारण ही प्रेमी अनंत में समा  जाता है, फिर एक नया शरीर धारण करता है तो जगत से प्रेम के कारण ही.

Saturday, May 4, 2013

सबका भला मेरे राम जी करें


संतजन कहते हैं कि मानव पांच इन्द्रियों के राज्य के वासी हैं, खाना, देखना, सूंघना, सुनना और स्पर्श करना इन्हीं कृत्यों को करते हुए वे मूलाधार चक्र में ही रहते हैं. अहम् का जब विकास होता है तो परिवार आदि का पोषण करते हैं स्वाधिष्ठान चक्र में, स्वयं को मन का राजा मानकर मणिपुर में रहते हैं, अनहत तक आते-आते अहंकार कुछ बढ़ जाता है. विशुद्धि में देहाभिमान कुछ कम होता है, आज्ञा चक्र में वह पूरी तरह चला जाता है, सभी के साथ एकात्मकता का अनुभव साधक तब करता है. तब जीवन में ऐसे प्रेम का उदय होता है जो सर्वहित चाहता है. इससे पूर्व यदि परमात्मा का प्रेम हम अनुभव नहीं कर पाते तो केवल इसलिए कि हम उससे प्रेम नहीं सुविधाएँ चाहते हैं. मानवी प्रेम की तरह हम कुछ शर्तों के साथ उससे प्रेम करते हैं.  

Friday, May 3, 2013

एक चुप सौ सुख


अगस्त २००४ 
जगत में इस तरह रहें हम कि किसी को दुःख न पहुंचाएं, अज्ञान के कारण हम कभी-कभी अन्यों की भलाई की कामना रखते हुए भी उनको पीड़ा पहुँचा रहे होते हैं, हमारा अहम् हमें सच्चाई से दूर रखता है अथवा तो हममें इतनी योग्यता होती नहीं कि हम किसी पर अपना प्रेमपूर्ण अधिकार ही जतला सकें, तो सबसे अच्छा यही है कि हम मौन का आश्रय लें, कहने से अच्छा करना है, हमारे शब्दों से ज्यादा असर हमारे व्यवहार का अन्यों पर पड़ता है, प्रेम यदि हृदय में है तो उसे कहकर जताने की जरूरत नहीं, वह मौन से ज्यादा अच्छी तरह से व्यक्त होता है. हम सभी को प्रेम, आनंद व शांति की आवश्यकता है, क्योंकि वही हमारा मूल स्वरूप है, एक बार उसका अनुभव हो जाने के बाद जीवन एक क्रीड़ा स्थली हो जाता है. जिस तरह अतीत का अब हमारे लिए कोई महत्व नहीं वैसे ही एक दिन वर्तमान भी हो जाने वाला है, हम उसे खो दें, इसके पूर्व हमें भरपूर जीना है.