Saturday, May 4, 2013

सबका भला मेरे राम जी करें


संतजन कहते हैं कि मानव पांच इन्द्रियों के राज्य के वासी हैं, खाना, देखना, सूंघना, सुनना और स्पर्श करना इन्हीं कृत्यों को करते हुए वे मूलाधार चक्र में ही रहते हैं. अहम् का जब विकास होता है तो परिवार आदि का पोषण करते हैं स्वाधिष्ठान चक्र में, स्वयं को मन का राजा मानकर मणिपुर में रहते हैं, अनहत तक आते-आते अहंकार कुछ बढ़ जाता है. विशुद्धि में देहाभिमान कुछ कम होता है, आज्ञा चक्र में वह पूरी तरह चला जाता है, सभी के साथ एकात्मकता का अनुभव साधक तब करता है. तब जीवन में ऐसे प्रेम का उदय होता है जो सर्वहित चाहता है. इससे पूर्व यदि परमात्मा का प्रेम हम अनुभव नहीं कर पाते तो केवल इसलिए कि हम उससे प्रेम नहीं सुविधाएँ चाहते हैं. मानवी प्रेम की तरह हम कुछ शर्तों के साथ उससे प्रेम करते हैं.  

7 comments:

  1. बिल्‍कुल सही कहा आपने ... बेहतरीन प्रस्‍तुति

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  2. शुद्ध प्रेम में कोई शर्त नहीं ...!!
    सार्थक सारगर्भित कथन ...!!

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    1. सदा जी व अनुपमा जी, स्वागत व आभार !

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  3. जबकि बुद्धि योग से याद की यात्रा करनी है उठते जागते खाते पीते .लेना नहीं देना सीखना है ,जैसे वह सबको प्यार करता है निस्स्वार्थ वैसे हम भी करें .अपने आपको आत्मा समझ उसके निराकार शिव के सानिद्ध्य में बैठो .

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    1. वीरू भाई, आपने सही कहा है, स्वयं को आत्मा ही जानना है.

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  4. आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार (05-05-2013) के चर्चा मंच 1235 पर लिंक की गई है कृपया पधारें. सूचनार्थ

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  5. प्रेम शर्त के साथ वो भी ईश्वर से ...
    इन्द्रियों के द्वार खुल ही नहीं सकते ...

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