मई २००५
सोना
तप कर ही कुंदन होता है, हम भी इस जगत में तपने आये हैं, हम सब का जीवन कुंदन सा
चमके अर्थात सब का मंगल हो यही भावना होनी चाहिए. जगत पदार्थ से बना है, हम
अपदार्थ हैं, पदार्थ की अवस्थाएं बदलती रहती हैं, पर अपदार्थ सदा एक सा रहता है,
हम वही अबदल अविकारी तत्व हैं, हमारा नाश नहीं होता हममें परिवर्तन नहीं होता, पर
हम स्वयं को मन, बुद्धि, अहंकार आदि पदार्थों के साथ एक करके देखते हैं, तपकर
उन्हें अलग करना है और स्वयं को अपने शुद्ध रूप में पहचान लेना है. ऐसा होते ही
भीतर कैसी शांति जगती है, कण-कण प्रेम से भर जाता है. पूर्णता का अनुभव होता है,
भीतर कोई अभाव नहीं रहता. यह पूर्णता मौन को जन्म देती है. मन भी चुप हो जाता है,
मन का मौन ही आत्मा का जन्म है. उसे एक बार पा लेने के बाद कभी विस्मरण नहीं होता,
वह ऐसा रत्न है जो एक बार मिल जाये तो साथ नहीं छोड़ता. वास्तव में तो वह सदा ही
मिला हुआ है, पर उसकी चमक खो गयी है, साधना की अग्नि में तप कर उसे पुनः प्रकाशित
करना है.
आपके सुमंगल वचन बड़े सुकूनप्रद होते हैं अनीता जी ...!!समय समय पर चेताते रहते हैं की मन की ज्योत प्रज्ज्वलित ही रखना है |
ReplyDeleteआभार व स्वागत अनुपमा जी
Deleteमन के आगना में चहके, साधना की चिरइया
ReplyDeleteउड़ी जा! कहूँ उड़े न कभी, कामना की चिरइया।
उड़े या न उड़े को फर्क नहीं पड़ता...सत् का अभाव नहीं है और असत् की सत्ता नहीं है..
Deleteप्रेम - प्यास में ही पलता है ।
ReplyDeleteतप - ही तो जीवन गढता है ।
बिल्कुल सही कहा है आपने शकुंतला जी
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