Thursday, February 27, 2014

उसकी याद का फूल खिला लें

अगस्त २००५ 
साधक जब कहता है, उसे मौन सुहाता है तो उसे पूछना होगा, यह ‘मैं’ है कौन, जिसे मौन सुहाता है, यह शुद्ध ‘मैं’ है अथवा अशुद्ध. अशुद्ध ‘मैं’ में रहकर यदि हम कर्म करेंगे चाहे वह साधना ही क्यों न हो, अभिमान को जन्म मिलेगा. सदा सचेत होकर रहना होगा कहीं अहंकार का पोषण तो नहीं हो रहा है. जगत में रहते हुए हम जगत से पूर्णतया अलग हैं यह मानना भी तो अहंकार ही है, यह संसार उसी प्रभु की रचना है, हर प्राणी उसी का मेहमान है, सभी के भीतर वही है, उसी की ऊर्जा है. सभी उसी का स्वरूप है. हम यदि अपने प्रेम को अपने तक सीमित रखने लगेंगे तो वह सड़ने लगेगा, प्रेम को बहने देना है चारों ओर बिखरने देना है, अपने शब्दों से हाव-भाव से, कृत्यों से, वाणी से उसी परमात्मा की खुशबू आनी चाहिए, जिस परमात्मा को हम भीतर खोज रहे हैं. परमात्मा हमसे तभी तक छिपा है जब तक हमारा अहंकार गल नहीं जाता, जब तक हम सभी में आत्मा को और आत्मा में सभी को नहीं देखेंगे तब तक परमात्मा के निकट नहीं पहुंचेंगे, जैसे दूर से ही झरने की ध्वनि और शीतलता को अनुभव कर कोई मान ले कि वह झरने तक पहुंच गया है और वहीं रुक जाये और प्रसन्न होता रहे तो उसे क्या कहा जायेगा, इसी तरह यदि परमात्मा के प्रेम की झलक पाकर ही हम बावरे हो जाएँ और अपना लक्ष्य भुलाकर बैठ जाएँ तो उसे मूर्खता ही कहा जायेगा. 

Wednesday, February 26, 2014

'मैं' जाये तो 'है' आये

अगस्त २००५ 
हम क्या हैं, यह तक नहीं जानते, शरीर, मन, बुद्धि तो जड़ हैं, परमात्मा की अपरा प्रकृति के अंश हैं. आत्मा परा प्रकृति का अंश है, तो हम मध्य में कहाँ आये. जो ‘मैं’ का आभास होता है, वह अहंकार है, कर्म संस्कार, कामनाएं और कुछ संकल्प-विकल्प जुड़कर एक पहचान बनी है जो ‘मैं’ है, लेकिन साधक को तो इस मिथ्या अहंकार को त्यागना है, शुद्ध आत्मा के रूप में पहचान हो जाने पर तो ‘मैं’ बचता ही नहीं, केवल ‘है’ शेष रहता है. जैसे प्रकृति है, वैसे ही आत्मा है, इस तरह विचार करके हमें अहम् का त्याग करना है, मन खाली हो जाने पर ही भीतर आत्मा का राज्य होगा. 

Tuesday, February 25, 2014

आँख मिचौली खेलें आ

अगस्त २००५ 
ध्यान में पहले-पहल स्थूल सत्य प्राप्त होते हैं, धीरे-धीरे मन जब सूक्ष्म हो जाता है, सूक्ष्म सत्य भी मिलने लगते हैं. इन्हीं सत्यों को देखते-देखते परम सत्य तक जाया जा सकता है.  मन अद्भुत है, हमें उसकी शक्ति का ज्ञान ही नहीं है, ईश्वर ने कैसी अद्भुत रचना मन के रूप में की है, वह स्वयं भी वहीं रहता है, वह चाहता है कि हम उसे खोजें. मन ही वह साधन है जिसके द्वारा हम धीरे-धीरे भीतर जाते हैं और जाते-जाते एक दिन उस सच्चाई को पा लेते हैं जो जानने योग्य है और दुखों से सदा के लिए मुक्त करने वाली है.

श्रद्धा रूपी बेलि फूले जब

अगस्त २००५ 
साधना के द्वारा पहले मन से हमें हृदय की ओर जाना है, भाव जगत में जाना है, अंततः भाव से भी परे शून्य में जाना है. एक बार इस शून्यता का अनुभव हो जाने के बाद मन सदा ही उससे जुड़ा रहता है. जगत में उतना ही व्यवहार करता है जितना आवश्यक हो. श्रद्धा तथा विश्वास के सहारे–सहारे वह ऊपर चढ़ता है. यह विश्वास कि वह सदा हमारे साथ है, हमें अनेक संकटों से उबार लेता है. शास्त्र हमें प्रेरणा देते है, संतजन प्रेम देते हैं और हमारे मन में श्रद्धा जितनी दृढ होती है, कृपा का अनुभव उतना ही अधिक होता है. 

Saturday, February 22, 2014

सुंदर सूत्र - शरीरं दृश्यं

 अगस्त २००५ 

“शरीरं दृश्यम” जिस तरह प्रकृति दृश्य है उसी तरह देह तथा मन भी साधक के लिए दृश्य हो जाता है. शरीर, मन, विचारों तथा भावनाओं से परे वह भीतर साक्षी रूप का अनुभव करता है अथवा तो यह सारा दृश्य ही हमारा शरीर है, हम सर्व व्यापक हैं, हवा, पानी और धूप हमारे ही अंग हैं. सीमित होते हुए भी हम असीमित हैं. भीतर का वायु तत्व बाहर के वायु तत्व से जुड़ा है. पृथ्वी तत्व अभी पैरों के नीचे है, मृत्यु के बाद ऊपर हो जायेगा. जब यह भाव जगता है तो कोई भी भेद नहीं रहता, अभेद में ही प्रेम है. पहले उपाय से सबसे पृथक होकर जो बचता है वह प्रेम है और दूसरे अर्थ में सबसे जुडकर जो मिलता है वह प्रेम है. यह इतनी पवित्र, सूक्ष्म, और अद्भुत अनुभूति है कि शब्दों की पकड़ में नहीं आती !

Thursday, February 20, 2014

एक चेतना दिप दिप जलती

अगस्त २००५ 
मानव वास्तव में मन से परे एक दिव्य चेतना है. अबदल, अचिंतनीय चेतना जो परमात्मा का अंश है. जहाँ कोई द्वंद्व नहीं है, संकल्प-विकल्प नहीं है, कोई दुःख, कोई नकारात्मकता नहीं है. वह एक ही तत्व है जो सारे संसार में व्याप्त है. ऐसी चेतना के सान्निध्य में जब बुद्धि काम करती है तो जगत के साथ सम्बन्ध आत्मीय हो जाते हैं और उतना ही तीव्र वैराग्य भी भीतर जगता है. आत्मा का जिसे बोध हुआ है वह एकांत में भी प्रसन्न है और भीड़ में भी. वह कालातीत, भावातीत और शुभ-अशुभ से परे है. उसे जगत से कोई स्वार्थ नहीं साधना है. वह एक फूल की तरह हो जाता है, जो बस खिलना चाहता है, खिलना जानता है और अपनी सुगंध बिखेर कर चुपचाप झर जाता है. वह कुछ होना नहीं चाहता वह ‘हो’ गया है.  

Wednesday, February 19, 2014

आनन्द से उपजें जो कर्म

अगस्त २००५ 
हमारे कर्म (मानसिक, वाचिक, कार्मिक) ही हमें बांधते हैं, यदि हम उन्हें किसी आशा पूर्ति के लिए करते हैं अथवा तो प्रतिक्रिया के रूप में करते हैं, अथवा इस कार्य से सुख कभी भविष्य में मिलेगा यह सोचकर करते हैं. यदि कोई किसी कार्य को करते समय आनन्दित हो रहा है और  उस आनन्द पर ही अपना अधिकार मानें तो न तो कर्म बोझिल होंगे न बाँधने वाले होंगे, हम ऐसे कर्म करेंगे जैसे वे सहज ही होते जा रहे हैं. अनावश्यक कर्म अपने आप ही तब झर जाते हैं.

Tuesday, February 18, 2014

एक वही जानने योग्य

अगस्त २००५ 
परमात्मा एक है, उसको अनेक लोग अनेक भावों से भजते हैं. शास्त्रों में लिखा है, सत्य, यज्ञ, तप और दान ये धर्म के चार स्तम्भ हैं जिनके आश्रय से परम शांति का अनुभव किया जा सकता है. शुद्ध क्रिया ही सत्य का आश्रय लेती है, वही तप स्वरूप है और यज्ञ भी वही है. शुद्ध क्रिया के लिए ज्ञान और शक्ति का साथ होना आवश्यक है. बांटने का अपना महत्व है, ईश्वर  के गुणों को अपनाते हुए जो भी हमारे पास प्रचुर मात्र में है बांटना है. जितना आवश्यक हो उससे अधिक की कामना भी नहीं करनी है, जिस क्षण मन कामना से रहित हुआ, प्रेम उसमें आकर बस जाता है, साधक के हृदय में अहोभाव की स्थिति बनी रहती है. उसके माध्यम से परमात्मा जो कराना चाहे वह सदा तैयार रहता है. 

एक हुआ जब मन वह प्रकटे

अगस्त २००५ 
ईश्वर की कृपा तो हर काल में हर किसी पर अनवरत बरस रही है, उसका लाभ लेने वाले को ही साधक कहते हैं. जब जीव स्वयं पर कृपा करता है तभी ईश्वर की कृपा फलीभूत होती है. मन को ही अहंकार का दुर्ग समझना चाहिए जो उस कृपा का अनुभव नहीं होने देता. मन ही वह दर्पण है जिसमें चेतना प्रतिबिम्बित होती है. मन यदि मलिन होगा तो चेतना भी मलिन ही प्रकट होगी, मन यदि बंटा हुआ होगा तो चेतना भी टुकड़ों में दिखेगी. मन का समाहित होना ही अपने-आप से जुड़ना है. मन को जब यह ज्ञान हो जाता है कि वास्तव में वह कुछ भी नहीं है, आत्मा की शक्ति ही उसके द्वारा प्रकट हो रही है, तो वह शांत होकर बैठ जाता है, जैसे चन्दमा के पास अपना प्रकाश नहीं है, वह सूर्य के प्रकाश से ही प्रकाशित होता है, वैसे ही मन भी आत्मा रूपी सूर्य पर आश्रित है और धरती रूपी शरीर के चक्कर काट रहा है. 

Sunday, February 16, 2014

मिलता वह एक पल में ही है

अगस्त २००५ 
जो सहज अवस्था है वह सभी को नित्य प्राप्त हो सकती है पर अप्राप्त है, जो जानना चाहता है उसी को वह प्राप्त होती है, उसके लिए जब जिज्ञासा जोरदार होगी तभी वह मिलेगी. जो सदा है, हर काल में है तो भी हमें प्रतीत नहीं होता इसका अर्थ है हमारे ही भीतर उसको पाने की तड़प कम है. अंतःकरण की शुद्धि धीरे-धीरे होती है तभी हमें ईश्वर का अनुभव धीरे-धीरे होता हुआ लगता है, किन्तु वह वर्तमान की जरूरत है, वह इतना निकट है कि उससे निकट कुछ और हो भी नहीं सकता, वह इतना दूर भी भी है कि संसार ही दीखता है वह कहीं नजर नहीं आता, फिर लगता है शायद कभी भविष्य में मिलेगा, पर वह वर्तमान में ही मिलेगा, मिलेगा कहना भी ठीक नहीं है, वह तो सदा मिला ही हुआ है हम ही आँखें बंद किये बैठे हैं. ऊपर-ऊपर से ऐसा लगता है ज्ञान से दूर हो रहे है पर भीतर जाते ही वही पुनः प्रकट हो जाता है, जैसा थोड़ी सी धूल को झाड़ देने से ही स्वच्छता प्रकट हो जाती है. 

Friday, February 14, 2014

भीतर भरा उजाला जगमग

अगस्त २००५ 
हमारे ही भीतर इतनी सामर्थ्य भरी है कि सितारे यदि गर्दिश में भी हुए तो कुछ न बिगाड़ सकें. हम व्यर्थ ही अपनी शक्ति को कम आंकते हैं अथवा तो व्यर्थ गंवाते हैं. मानव जीवन दुर्लभ है, हम संतों की वाणी में यह पढ़ते हैं. उन्होंने अपने जीवन में भीतर की शक्तियों को उजागर किया और आनंद पाया व लुटाया. संतों, सदगुरुओं का जीवन चरित्र पढ़ें तो पता चलता है उनकी हर श्वास एक आनन्द की धारा से भीतर को स्वच्छ करती है. उनका मन अहोभाव से ओत-प्रोत रहता है. ईश्वर का प्रेम उनके शरीर के हर कण में स्पन्दित होता है. उनका मन ऐसी अलौकिक  शांति से भर जाता है जिसे कोई नाम नहीं दिया जा सकता. हम भी यह सब प्राप्त कर सकते हैं, बस आत्मशक्ति को जगाने भर की देर है.

Wednesday, February 12, 2014

कालातीत से प्रीत लगायें

अगस्त २००५ 
भूत का शोक, भविष्य से भय तथा वर्तमान में मोह जब तक बना हुआ है तब तक हम काल के वश में हैं. जब कालातीत भगवान से प्रीति हो जाती है तब ही पहली बार आनन्द का अनुभव होता है. जब हमें धर्म-अधर्म, श्रेय-प्रेय, उचित-अनुचित का बोध होता रहता है, वर्तमान में टिकना सहज होता है. जो जिस क्षण में घटता है वह उस क्षण की मांग होती है, यह स्वीकार करने से न भूत का शोक होता है न भविष्य से भय लगता है. यदि मन में विरोध का फल बोया तो भविष्य में उसका फल खाना पड़ेगा. अतः हमें अपने हृदय की समता बनाये रखनी है और काल के बंधन से मुक्त होना है.

Tuesday, February 11, 2014

आनन्दित हो जाए हर पल

अगस्त २००५ 
जीवन प्रभु का दिया अमूल्य उपहार है, आनन्द से इसका एक-एक क्षण भरा है, जो डूबता है इसमें वही उबरता है. इसमें छिपे खजाने को पा लेता है, वही जीवन के रहस्य को जान जाता है. इतना सुखमय जीवन क्यों किसी के लिए दुःख का कारण बना रहता है ? परम तत्व को पाए बिना जो जीवन बीतता है वह अधूरेपन का शिकार रहता ही है ! मन को यदि एकाग्र करना आता नहीं तो विकारों से मुक्त नहीं हो सकते. साधना से यह कला सीखी जा सकती है, जीवन में सत्संग, सेवा, स्वाध्याय और ध्यान के फूल खिलने लगते हैं और जीवन एक उत्सव बन जाता है. ऐसे जीवन में ही परम का अवतरण होता है.

सेवा भी साधना है

अगस्त २००५ 
सेवा स्नेहवश होती है, वहाँ स्वयं के लिए कुछ नहीं चाहिए, चाहिये तो केवल सेव्य की प्रसन्नता, सेवक यदि अपना सुख चाहे, अपनी रूचि को सेव्य पर लादे तो वह अपनी ही सेवा कर रहा है. हनुमान सेवक हैं, उनके प्रेम की धारा सदा आराध्य की ओर बहती है. वह राम की सेवा के अवसर खोजते हैं. हम लोग अपनी सुविधा देखकर सेवा करते हैं, तभी उसका फल नहीं मिलता. सच्ची सेवा करने से अन्तःकर्ण की शुद्ध होती है, अहंकार गलता है. सेवा हमें प्रभु के पास ले जा सकती है. 

Friday, February 7, 2014

रामकथा सम अमृत नाहीं

जुलाई २००५ 

कितना अद्भुत है वह परमात्मा जो हमारे भीतर छिपा है और प्रेम का ऐसा जाल बिछाता है कि कोमल हृदय उसमें बंध जाता है. ईश्वर का प्रेम अमूल्य है, अनुपम है, अद्भुत है, उसी के कारण तुलसी अमर काव्य की रचना करते हैं, सन्त कथावाचक बनते हैं और श्रोता सुनते-सुनते भाव की गंगा में डूबते उतरते हैं. ईश्वर की कृपा से ही उसका प्रेम मिलता है, सद्गुरु की कृपा से ही ईश्वर की कृपा मिलती है. राम ही आत्मा है, और लक्ष्मण विवेक, सीता प्रज्ञा है और हनुमान ज्ञान. हमारी आत्मा के चारों ओर अभी विवेक की जगह अविवेक है, प्रज्ञा की जगह अविद्या और ज्ञान की जगह अज्ञान, तभी राम भी दूर लगते हैं.

तोरा मन दर्पण कहलाये

जुलाई २००५ 
हमारा मन वास्तव में दर्पण है जो भीतर उठने वाले हर विचार को प्रतिबिम्बित करता है. हमारे अंतः करण का निर्माण प्रतिक्षण होता रहता है, कोई भी घटना जो भीतर घटी हो अथवा बाहर, प्रतिक्रिया जगाती है, यह प्रतिक्रिया राग या द्वेष दोनों में से ही कोई होती है. दोनों ही हमें बांधते हैं, यह जानते हुए भी हम स्वभाव वश प्रतिक्रिया करते हैं, अंतः करण को मैला करते हैं, वही हमारे मन में झलकता है और उसका संस्कार भी भीतर बन जाता है. जो भी घट रहा है उसे साक्षी भाव से देखने पर ही मन शांत रहता है और कोई बीज नहीं पड़ता. जिस व्यक्ति, वस्तु या परिस्थिति के प्रति हम प्रतिक्रिया जगाते हैं अनजाने में हम उसके जैसे होने लगते हैं, अपने पद से नीचे गिर जाते हैं. साधना के पथ पर दो कदम आगे चले नहीं कि तीन कदम पीछे आ गये, तभी तो लक्ष्य दूर ही रहता है. मन में छाई हल्की सी धूमिल रेखा भी साधक को मान्य नहीं, वह प्रतिक्षण सहजावस्था में रहना चाहता है.  

Wednesday, February 5, 2014

कितना पावन सबका अंतर

जुलाई २००५ 
प्रेम सभी के भीतर लबालब भरा है, भीतर ही भीतर छलकता रहता है, सभी आत्मा रूप में कितने पावन हैं, निष्पाप, छल-कपट से रहित पर वही आत्मा जब मन के रूप में, विचारों के रूप में, कर्म के रूप में बाहर आती है तो कितनी बदल जाती है. वह प्रेम जो भीतर सहज है बाहर आकर कितना असहज हो जाता है. यह क्यों होता है इसका कारण खोजने जाएँ तो एक मात्र उत्तर मिलता है, अहंकार, बड़े-बड़े अक्षरों में चमकता हुआ अहंकार ! यही वह कारण है जो हमें असहज बनाता है, जो भीतर के प्रेम को बाहर बिखरने से रोक देता है. फूल अपनी सुगंध कितनी सहजता से बिखराता है पर हम मानव प्रकृति के सम्मुख कितने तुच्छ प्रतीत होते हैं, ऊपर से तुर्रा यह कि यह अहंकार हमें इतना प्रिय है कि परमात्मा की सत्ता को भी नकार देते हैं.

Tuesday, February 4, 2014

मन तू ज्योति समान अपना मूल पिछान

जुलाई २००५ 
हमारा जीवन जिन वस्तुओं से महत्वपूर्ण बनता है, उनमें सबसे प्रमुख है प्रेम ! भीतर जब प्रेम भरा रहता है तो बाहर सभी कुछ सरल हो जाता है और प्रेम जब हृदय का वासी बन जाता है तो बाहर एक शांति स्वतः ही प्रकट होती रहती है. हमारा मन तब समाधान पाना सीख लेता है. नम्रता से अहंता को, क्रोध को अक्रोध से, हिंसा को अहिंसा से जीतने की कला सीख लेता है. सार्थक चेष्टा से व्यर्थ अपने आप गिर जाता है, सार्थक चिन्तन से विषाद दूर हो जाता है. जो मन असत्य, परदोष दृष्टि तथा आत्मप्रशंसा को त्याग देता है, उसकी वाणी के दोष भी समाप्त होने लगते हैं. भ्रम दोष, प्रमाद दोष और लिप्सा दोष वाणी के दोष हैं. जिसके बारे में पूर्ण जानकारी न हो, ऐसी वाणी बोलना ही भ्रम दोष है, असजग होकर कहे गये वाक्य भूल से भरे होंगे. लोभ बढ़े तो वाणी का असर नहीं होता. ऐसा मन ही हमें भगवद्प्रेम का अनुभव करा सकता है, आत्मा को प्रकट करने के लिए सहायक हो सकता है. वह अपने मूल को पहचानने लगता है, वह भीतर जाने लगता है. 

मुक्त हुआ सो ज्ञानी

जुलाई २००५ 
ध्यान में स्वयं के बारे में सच्चाई प्रकट होती है. अपने को जाने बिना हमारे भीतर का संताप मिटने वाला नहीं है. श्वास के सहारे भीतर उतरने पर ही मुक्त अवस्था का अनुभव होता है, जहाँ देह का बोध नहीं रहता, मात्र चेतना का ही साम्राज्य रहता है. ज्ञात होता है कि चित्त ही काया बनता जाता है, हम देखते हैं जैसे ही चित्त पर कोई तरंग उठती है वैसे ही काया पर भी तरंगे उठती हैं. विकारों से मुक्ति तभी होती है, अनुभूति के स्तर पर जब हम विकार को गिरते हुए देखते हैं तो उसकी शक्ति खत्म होती जाती है. सत्य यही है कि भीतर जाकर ही हम विचारों से परे एक मुक्त अवस्था का अनुभव कर सकते हैं. 

Sunday, February 2, 2014

मुक्त रहें जो कर्तापन से

जुलाई २००५ 
हमारा सारा जीवन कर्मों की एक श्रृंखला ही तो है. मन जब निज केंद्र में रहना सीख जाता है, स्वयं में स्थित रहकर परमात्मा को पूर्ण समर्पित अनुभव करता है, तब कर्त्ता भाव से मुक्त होता है और तब वह भी उसी तरह सम्पूर्ण कार्यों को होते हुए देखता है जैसे कोई अन्य व्यक्ति. जब हम कर्तापन के भाव से दब जाते हैं तभी दुःख के भोक्ता बनते हैं. गुण-गुणों में बरत रहे हैं यह जानकर जब हम अलिप्त रहते हैं हमारे भीतर आनन्द की अजस्र धारा निरंतर बहती रहती है. एक क्षण का भी व्यवधान उसमें हुआ तो साधक को सहन नहीं होता.