Sunday, March 2, 2014

मन निस्पंद हुआ जिस पल

अगस्त २००५ 
जैसे-जैसे हम सरल होते हैं, सहज होते जाते हैं, कोई छल-कपट हमारे भीतर नहीं रहता, कोई चाह हमें पीड़ित नहीं करती. हमारी सारी आवश्यकताएं अपने-आप पूरी होने लगती हैं, हम उस हाकिम के, उस खुदा के, अल्लाहताला के, परवरदिगार के हाथों में कितने सुरक्षित हैं, कोई भय हमें नहीं सताता, वर्तमान में ही रहने की कला हम सीखते जाते हैं, यह जीवन तब फूल से भी हल्का हो जाता है, जैसे हम हवा में तैर रहे हों, कोई भार नहीं, न मन पर न तन पर, तन हल्का हो तो कार्य भी आनन्द का स्रोत हो जाते हैं. तब कुछ करने के बाद सुखी होंगे अथवा कुछ न करके सुखी होंगे, यह भ्रमणा मिट जाती है. हम बिना कुछ किये या करके हर हाल में ही आनन्द की स्थिति का अनुभव कर सकते हैं. ऐसा तभी होता है जब इस सत्य का पता चल जाता है, इस सत्य का कि हमारे मन का सुख-दुःख एक भ्रम ही है जो हम स्वयं ही खड़ा कर  लेते हैं और जगत को जिम्मेदार ठहराते हैं जबकि ऐसा है नहीं, जगत में हमें वही दीखता है जो हमारे मन में होता है. मन यदि शुद्ध स्फटिक के समान हो निर्मल हो तो उसमें सुंदर छवि ही दिखेगी, और वह छवि आत्मा की होगी, आत्मा जो परमात्मा में स्थित है, वही ब्रह्म है, उसके सिवा कुछ है ही नहीं, एक वही चेतना कण-कण में व्याप्त है, जगत तो मन का स्पंदन ही है, जब कोई स्पंदन नहीं तो मात्र उसी की सत्ता रह जाती है.

3 comments:

  1. सरलता ही तो साधुता है ।

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  2. मन यदि शुद्ध स्फटिक के समान हो निर्मल हो तो उसमें सुंदर छवि ही दिखेगी....

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  3. शकुंतला जी व राहुल जी, स्वागत व आभार !

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