Tuesday, April 29, 2014

मोती सी अनमोल हैं सांसें

जनवरी २००६ 
अब न सम्भले तो रोना पड़ेगा...नर्क में गर्क होना पड़ेगा. जन्म हीरा गंवाने के काबिल नहीं है, साँस का अनमोल मोती लुटाने के काबिल नहीं है...न जाने कितनी बार ये वचन हम सुनते, पढ़ते हैं, पर इनका वास्तविक अर्थ तभी समझ में आता है जब पहली बार गुरू कृपा से भीतर उस परमात्मा की झलक मिलती है, और तब साधक की यात्रा आरम्भ होती है. उस झलक को पुनः पाने के लिए वह अपने भीतर जाता है, साधना करता है. उसे सदा यह लगता है जो प्रेम उसे अपने भीतर अनुभव हो रहा है, वह वास्तविक तो है. क्या विकार नष्ट हो रहे हैं, अहंकार घट रहा है, क्रोध, लोभ, मोह मान से ऊपर उठ रहा है या नहीं, वाणी का अपराध तो नहीं होता, प्रेम का पौधा जो अपने अंतर में पनप रहा है उस पर कांटे तो नहीं हैं, अभिमान के कांटे. पल-पल भीतर की खबर रखता हुआ वह फंक-फूंक कर कदम रखता है, अभी परमात्मा को जन्मने में समय है, समय नाजुक है, उसे उस माँ की तरह सजग होना है जो गर्भ में पल रहे अपने शिशु की रक्षा करती है.   

Monday, April 28, 2014

रहें भीतर जियें बाहर

जनवरी २००६ 
भगवान की निकटता का अनुभव करना ही भक्त का धर्म है और मन जब उससे दूर जाये तो वही अधर्म है. भगवान के वियोग में बहे आंसू ही भक्त की सम्पत्ति है, अर्थ है. भगवान की कामना ही काम है. उसका सुमिरन ही मोक्ष है. उसकी निकटता का अनुभव गुरू कृपा से होता है, तब धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष के अर्थ ही बदल जाते हैं. जीवन का उत्थान ही हमारा ध्येय हो जाता है. सन्त कहते हैं, “रहो भीतर, जीओ बाहर”, उनके अनुसार विपरीत तत्व जन्म से मृत्यु तक हमारे साथ रहते हैं. जीवन के हर पहलू पर वे हमें चिन्तन करना सिखाते है. टुकड़ों में बंटी जिन्दगी से दूर एक पूर्ण दृष्टिकोण प्रदान करते हैं. सद्गुरु व परमात्मा के आश्रय में हम कितने सुरक्षित हैं. उनकी कृपा का जल मन की सूखी धरती को हरा-भरा कर देता है.   

गुणातीत ही उसको भजते

जनवरी २००६ 
पुराणों में कथा है अत्रि व अनसूया के यहाँ तीनों देव प्रकट हुए. अत्रि वह है जो तीनों गुणों से अतीत है, अथवा जो तीनो तापों से परे है. अनसूया वह है जो असूया अर्थात ईर्ष्या से रहित हो, उनके यहाँ ईश्वर का प्राकट्य होता है. जैसे समाधि के लिए साधना होती है वैसे ही भीतर भगवान के प्रकटीकरण के लिए भक्ति की आवश्यकता है. भक्ति से गुणातीत अवस्था का अनुभव होता है, तीनों ताप नहीं सताते तथा दोष दृष्टि का नाश होता है तब भीतर शांति का प्रकाश छा जाता है. वृत्तियाँ तब बाहर से भीतर की ओर मुड़ने लगती हैं. यह जगत प्रतिबिम्ब मात्र है, इस वास्तविकता का भान होते ही जीवन एक खेल लगने लगता है.  

Thursday, April 24, 2014

कबिरा मन निर्मल भयो

जनवरी २००६ 
आत्मा रूपी कश्यप का संयोग जब अदिति से होता है तो सद्गुणों का जन्म होता है. अदिति अभेद मति है, उससे आदित्यों की सृष्टि होती है. आदित्य प्रकाश रूप हैं, देव रूप हैं. जब अभेद बुद्धि से आत्मा मिलती है तो प्रेम, विश्वास, करुणा, सत्य तथा विनय का जन्म होता है. दिति भेद मति है, इससे दुर्गुण ही उत्पन्न होते हैं. स्वार्थ, लोभ, अहंकार, द्वेष, ईर्ष्या तथा मोह सब दिति की संतानें हैं. हमारी बुद्धि की निर्मलता ही सुख-दुःख का कारण है. सद्गुण जब भीतर विकसित हों तब उसे कृपा मानना चाहिए और ईश्वर ने बुद्धियोग प्रदान किया है ऐसा मानने से अहंकार मिटने लगता है. जब तक अभेद नहीं होगा द्वंद्व बने ही रहेंगे तब तक जीवन से दुःख मिट नहीं सकते. अभेद ही अद्वैत है, जहां एक ही सत्ता है. वही सत्ता विभिन्न रूप लेकर प्रकट हो रही है. सभी अपनी जगह श्रेष्ठ हैं, हर कोई अपने आप में पूर्ण हैं, पर पूर्णता अभी दबी हुई है. किसी के भीतर पूर्णता प्रकट हो जाये तो वह कभी अपूर्णता को देखेगी ही नहीं. इसीलिए सन्त इस जगत को निर्दोष ही देखते हैं.

मन माया के पार है वह

जनवरी २००६ 
‘जो फैलता है वही जानने योग्य है’. मन जब फैलता है तो वह माया के पार चला जाता है, वह आत्मा ही हो जाता है, पर वही मन जब सिकुड़ जाता है तो माया हो जाता है. हमारा मन ही संकल्प-विकल्प गढ़ता है और स्वयं ही उसके द्वारा सुखी-दुखी होता है, मन से पार जाने पर ही वह मिलता है जो फैलता है. मन की माया ही संसार से संबंध जोड़ती है, संसार में जाते ही मन एक से अनेक हो जाता है. जैसे एक पेड़ हमें भिन्न अवसरों पर भिन्न तरह से दिखाई देता है. मन जब भीतर जाता है तभी वह एक हो पाता है, तभी वह शरण में जाता है. मन से धीरे-धीरे पीछे पीछे हटना ही भीतर जाना है और तभी हम माया के पार जाते हैं. 

Friday, April 11, 2014

शुभकामनायें

प्रिय ब्लागर मित्रों, आने वाले त्योहारों के लिए आप सभी को हार्दिक शुभकामनायें ! अगले दस-बारह दिनों के लिए मैं वाराणसी की यात्रा पर जा रही हूँ. गंगा के घाटों के कुछ चित्रों तथा किसी नई रचना के साथ पुनः आपसे भेंट होगी, तब तक के लिए विदा.

Thursday, April 10, 2014

एक अनोखा खेल चल रहा

जनवरी २००६ 
ईश्वर की ओर चलना आरम्भ तो करें सारी सृष्टि सहायक हो उठती है. जो जगत का नियामक है, नियंता है, आधार है उसे अपना मान लें तो जगत का विरोध स्वतः समाप्त हो जाता है, भीतर यदि विश्वास हो तो सारे मार्ग सुगम हो जाते हैं. ईश्वर से की गयी कोई भी प्रार्थना विफल नहीं जाती, वह तत्क्ष्ण उत्तर देता है. वह जो हमारे भीतर है, साक्षी है, वह जो हमें हमसे भी अधिक जानता है. हम क्या हैं, उसी के अंश हैं, उसी ने हमें रचा है, कारीगर जैसे अपने खिलौने को जानता है वैसे ही ईश्वर हमारी रग-रग से वाकिफ है. जब हम सारा अहंकार ( अहंकार करने लायक कुछ भी नहीं है हमारे पास) उसकी शरण में जाते हैं तो वह जो पहले से ही हाथ फैलाये बैठा है, हमें स्वीकार लेता है. हम जैसे हैं वैसे ही. उसे हमसे कोई अपेक्षा नहीं, वह हमसे कोई शिकायत भी नहीं करता, लेकिन हम उसके पास जाने से डरते हैं, हमें स्वयं पर विश्वास नहीं है, उस पर भी विश्वास नहीं करते. न जाने कितने काल से हम यह खेल खेलते आये हैं, न जाने कितनी बार हम उसके द्वार पर जाकर लौट आये हैं. हम अपने हर दुःख के लिए स्वयं ही जिम्मेदार हैं. यह जगत अद्भुत है, अद्भुत है ईश्वर की व्यवस्था भी, हम सत्य को जानते नहीं तभी व्यथा के शिकार होते हैं. सद्गुरु की कृपा से जब भीतर ज्ञान होता है, संशय मिट जाते हैं, मन खाली हो जाता है तब यह जीवन उत्सव बन जाता है. हर घड़ी, हर पल एक नवीन उत्साह का अनुभव होता है. 

Wednesday, April 9, 2014

जिसने सूरज चाँद बनाया

जनवरी २००६ 
जीवन कितना अद्भुत है, कितना सुंदर तथा कितना भव्य ! नीला आकाश, हरे-भरे बगीचे, मधु से युक्त पवन तथा शीतल जल. किसी को भी इसे बिगाड़ने का कोई अधिकार नहीं. जीवन की कद्र करनी है, जीवन को खत्म करने का हमें क्या अधिकार है. इसे देखकर मन कभी आश्चर्य से खिल जाता है कभी मुग्ध हो जाता है. उस अनदेखे परमात्मा की स्मृति आते ही उसके लिए श्रद्धा से भर जाता है. यह अद्भूत संसार उसने उन सबके लिये रचा है, जो इसकी खुशबू को अपने अंदर समोते हैं, इसके रस को पीते हैं, इसकी नरमाई-गरमाई को महसूसते हैं. हम मानव कितने भाग्यशाली हैं, हमें ईश्वर की बनाई इस सृष्टि में रखा गया है उसकी महिमा का गान करने के लिए, उसके गुणों को धारण करने के लिए. उसके आनंद का अनुभव करने के लिए. उसकी लीला में सहभागी बनने के लिए.

Tuesday, April 8, 2014

स्वप्नों सा ही है संसार

दिसम्बर २००५ 
जब ध्याता और ध्येय एक हो जाते हैं तभी ध्यान होता है. सारा दुःख दो के कारण है, द्वंद्व ही दुःख का कारण है, जहाँ अभेद हो वहाँ कोई विकार नहीं रहता, एक ही सत्ता रहती है. यह तभी घटित होता है जब कोई कामना शेष नहीं रहती, जगत के सारे कार्य तब स्वतः होते हैं, कर्तृत्व का अभिमान नहीं होता, कर्ता भाव नष्ट हुआ तो भोक्ता भाव भी अपने आप नष्ट हो जाता है. कोई भी कर्म हमें तब बंधन में डालता है जब करने के बाद देर तक उसकी स्मृति बनी रहती है, यदि उससे विच्छेद हो जाये तो हम उसके फल के भागी नहीं होते. हमारे कारण यदि किसी को दुःख पहुंचता है तो हमारा कर्म उसी क्षण बंधा जाता है, तुरंत प्रायश्चित करना चाहिए. यदि हम किसी को प्रसन्न करते हैं तो पुण्य कर्म बंधा जाता है. तटस्थ रहकर किया गया कर्म बंधन में नहीं डालता. यह जगत एक स्वप्न ही तो है, यहाँ कुछ भी स्थायी नहीं है, हर किसी को एक न एक दिन तो जाना ही है, यह हम यदि याद रखें तो कभी किसी को पीड़ा नहीं पहुंचा सकते. 

Sunday, April 6, 2014

सदा नया पन हो जीवन में

दिसम्बर २००५ 
शास्त्र पढ़ना इसलिए भी आवश्यक है कि जैसा-जैसा शास्त्रों में लिखा है साधक को जब वैसा अनुभव होता है तो उसका उत्साह बढ़ जाता है. सत्य एक ही है वह जिसके भीतर प्रकट होगा समान रूप से होगा, साधक वही है जिसका मन सदा जीवंत रहता है. सदा तृप्ति और उछाह से भरा. पता नहीं कब कौन सा सत्य किस रूप में आकर रास्ता दिखा जाये. जो सीखना चाहता है, हर पल उसके लिए नई सम्भावनाओं के द्वार खोल देता है. जीवन नित नया हो रहा है, इस नूतनता को अनुभव करना ही आनंदी भाव में स्थित होना है. यह सृष्टि कितनी पुरानी है पर हर नव शिशु के लिए सब कुछ एक बार फिर नया हो जाता है, साधक का मन भी बालवत् होता है. 

Friday, April 4, 2014

एक बूंद तेरी कृपा की जो बरसे

दिसम्बर २००५ 
परमात्मा की कृपा की एक झलक भी यदि मिल जाये तो भीतर एक उत्सव छाने लगता है. तब लगता है इस जगत में जिस क्षण भी जो भी हो रहा है, वही होना था. वही ठीक है, ऐसा ही लगता है, कोई शिकायत नहीं, जब कोई कामना ही नहीं तो शिकायत का प्रश्न ही पैदा नहीं होता. भीतर एक रस की धारा प्रकट होती है जिसने सब कुछ ढक लिया है, वही अब प्रमुख है. ईश्वर की अनुभूति की रस धार, वह निकट है, वही सुगंध बनकर समाया है, वही संगीत बनकर समाया है, वही प्रकाश बनकर और वही तरंग रूप में भीतर समाया है, वही अमृत बनकर भीतर रिस रहा है अनवरत...

अद्वैत ही साधना है

दिसम्बर २००५ 
योग वशिष्ठ में लिखा है, इस जगत का कारण मन ही है, मन ही दृश्य है और मन ही द्रष्टा भी, एक न रहे तो दूसरा भी नहीं रहेगा, तब स्वयं ही स्वयं में स्थित रहेगा. हमारी सारी परेशानियों, चिंताओं का कारण मन ही है. मन के पार कोई दुःख नहीं और यह मन वास्तव में कुछ नहीं एक परछाई है, इसे जानकर उससे पार हुआ जा सकता है वरना यह हम पर हावी हो जाता है और हम इसके कहे अनुसार चलते रहते हैं. जब भी हम दूसरे का दोष देखते हैं, हममें भेद बुद्धि आ जाती है. हम भेद करते हैं, जबकि यहाँ दो हैं ही नहीं, सब उसी एक का पसारा है. जो हम हैं वही अन्य भी हैं, तो कोई भी गलत नहीं है, सभी निर्दोष हैं, अपनी-अपनी जगह पर सही. हमें अद्वैत साधना है तभी हमारी साधना आगे बढ़ेगी.


Thursday, April 3, 2014

जिन्दगी धूप वह घना साया


अहंकार को प्रश्रय न ही मिले तो अच्छा है क्योंकि हमारी सारी साधना ही इस अहंकार को खत्म करने की है. यदि साधना में सफल होने का अहंकार भीतर भर गया तो हम वहीं आ गये जहाँ से चले थे. फिर हम सफल हुए यह भी एक भ्रम ही है, आत्मा के तल पर सभी सदा सफल हैं, वहाँ पहुंच कर तो हम सारे संशयों से दूर हो जाते हैं, पर व्यवहार जगत में जब हमें देह, मन, बुद्धि का आश्रय लेना पड़ता है तब हम समता बनाये रख पाने में सदा ही सफल होते हैं यह जरूरी तो नहीं. जरूरी यह है कि भीतर की शांति का बोध हमें हो जाये और सजग होते ही हम उसकी शरण में चले जायें. वह शांति हमें परमात्मा से मिली है. संसार रूपी धूप में जब खड़ा होना कठिन हो तब आत्मा की छाँव में लौट-लौट कर आना होता है तभी भीतर शीतलता छाई रहेगी, ऐसी शीतलता जो अलौकिक है, प्रेम से पूर्ण है, दिव्य है.  


  

Tuesday, April 1, 2014

भव सागर से पार हों ऐसे

नवम्बर २००५ 
परमात्मा रूपी सागर की लहरें मचल रही हैं, हमें कुछ देने के लिए. वह तो हमें सहज प्राप्य है, हम यदि उसमें अपना पात्र डालते हैं, वह डालते ही भर जाता है. वह हमसे दूर रह सकता ही नहीं, हम स्वयं ही उसके व अपने मध्य दूरी कर लेते हैं. कभी अज्ञान वश, कभी प्रमाद के कारण, अज्ञान में ही अहंकार होता है. हमें विनम्र होकर एक बार उसे पुकारना ही है, वह उसे अनसुनी नहीं करता, वह तो तैयार है. वह तभी मिलता है जब केवल उसी के लिए उसे पुकारें, जगत के लिए उसे पुकारना ही अज्ञान है, जगत के लिए जगत की शरण में ही जाना चाहिए. और परमात्मा के प्रेम, आनन्द, शांति का अनुभव करने के लिए उसके पास जाना चाहिए. वह हमें भर देता है. फिर जगत की ओर हम याचक की दृष्टि से नहीं देखते, दाता की दृष्टि से देखते हैं. हम सारे दुखों से मुक्त हो जाते हैं. संसार तब हमें बांधता नहीं, सहज ही उसके पार हम उतर जाते हैं. संसार को दोष दृष्टि से नहीं देखते बल्कि ईश्वर की कृति देखते हैं.