Tuesday, April 8, 2014

स्वप्नों सा ही है संसार

दिसम्बर २००५ 
जब ध्याता और ध्येय एक हो जाते हैं तभी ध्यान होता है. सारा दुःख दो के कारण है, द्वंद्व ही दुःख का कारण है, जहाँ अभेद हो वहाँ कोई विकार नहीं रहता, एक ही सत्ता रहती है. यह तभी घटित होता है जब कोई कामना शेष नहीं रहती, जगत के सारे कार्य तब स्वतः होते हैं, कर्तृत्व का अभिमान नहीं होता, कर्ता भाव नष्ट हुआ तो भोक्ता भाव भी अपने आप नष्ट हो जाता है. कोई भी कर्म हमें तब बंधन में डालता है जब करने के बाद देर तक उसकी स्मृति बनी रहती है, यदि उससे विच्छेद हो जाये तो हम उसके फल के भागी नहीं होते. हमारे कारण यदि किसी को दुःख पहुंचता है तो हमारा कर्म उसी क्षण बंधा जाता है, तुरंत प्रायश्चित करना चाहिए. यदि हम किसी को प्रसन्न करते हैं तो पुण्य कर्म बंधा जाता है. तटस्थ रहकर किया गया कर्म बंधन में नहीं डालता. यह जगत एक स्वप्न ही तो है, यहाँ कुछ भी स्थायी नहीं है, हर किसी को एक न एक दिन तो जाना ही है, यह हम यदि याद रखें तो कभी किसी को पीड़ा नहीं पहुंचा सकते. 

5 comments:

  1. यह जगत एक स्वप्न ही तो है, यहाँ कुछ भी स्थायी नहीं है, हर किसी को एक न एक दिन तो जाना ही है.......

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  2. सुन्दर सटीक यथार्थ जीवन का

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  3. बहुत ही सुंदर...जैनदर्शन का मूल परिलक्षित होता है इन पंक्तियों से।।।

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  4. ब्रह्म सत्यम् जगन्मिथ्या ।

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  5. राहुल जी, वीरू भाई, अंकुर जी तथा शकुंतला जी आप सभी का स्वागत व आभार !

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