Sunday, November 16, 2014

मैं हूँ मंजिल...मैं ही मुसाफिर

अप्रैल २००७ 
सद्गुरु कहते हैं, मैं हूँ मंजिल, मैं ही सफर भी... मैं ही मुसाफिर हूँ..अर्थात हमारा मन व बुद्धि भी उसी आत्मा से निकले हैं, यानि वही हैं, तो जिसे आत्मा तक पहुंचना है वह मन रूपी यात्री भी आत्मा ही है और जिस साधन से वहाँ पहुंचता है वह भी तो उसी एक से ही निकला है. तो सफर भी वही है और लक्ष्य तो वह है ही, कितना सरल व सहज है अध्यात्म का रास्ता न जाने कितना पेचीदा बना दिया है इसे लोगों ने. सीधी सच्ची बात है कि हमारा मन जब अपना स्वार्थ साधना चाहता है, अपनी ख़ुशी चाहता है तो यह आत्मा से दूसरा हो जाता है और जब अपनी नहीं बल्कि समष्टि की ख़ुशी चाहता है, यह जान जाता है कि जगत एक दर्पण है, यहाँ जो हम करते हैं वही प्रतिबिम्बित होकर हमारे पास आता है तो यह खुशियाँ देना प्रारम्भ करता है, जिससे लौटकर वही इसके हिस्से में आती हैं. अहंकार को पोषने से सिवाय दुःख के कुछ हाथ नहीं आता क्योंकि अहंकार हमें अन्यों से पृथक करता है जबकि हम सभी एक ही विशाल सृष्टि के अंग हैं, एक-दूसरे पर आश्रित हैं, स्वतंत्र सत्ता का भ्रम पालने के कारण ही सुख-दुखी होते हैं, हम ससीम मन नहीं असीम आत्मा हैं !


3 comments:

  1. अनुपमा जी व उपासना जी, स्वागत व आभार !

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