Monday, December 22, 2014

इतनी शक्ति हमें देना दाता


हमारे मस्तिष्क का आधा हिस्सा भी हम इस्तेमाल नहीं कर पाते, कोई कहता है कि हम दस प्रतिशत से भी कम उस क्षमता का प्रयोग करते हैं जो प्रकृति ने हमें दी है. उस दस प्रतिशत में से भी कितनी तो व्यर्थ ही नष्ट हो जाती है जैसे, व्यर्थ बोलना, नकारात्मक चिन्तन, नकारात्मक दृष्टिकोण आदि. शक्ति का पूर्ण उपयोग हो सके इसका पहला साधन है पवित्रता ! शुद्ध बुद्धि में शक्ति टिकती है. उस शक्ति का जब हम प्रयोग करते हैं तो और प्रकटती है. यह सृष्टि न जाने कितनी बार बनी और नष्ट हुई और कितनी बात मानव ऊंचाइयों पर पहुँचा है और कितनी बार गिरा है. हम आगे बढ़ें यही हमारी नियति है.  

Sunday, December 21, 2014

झूठा है हर बंधन

जुलाई २००७ 
जब जड़ व चेतन मिलते हैं तभी अहंकार उत्पन्न होता है, जब यह ज्ञान हो गया कि दोनों कभी मिले ही नहीं, मिलने का भ्रम मात्र होता है तो अहंकार कैसे उत्पन्न होगा. अहंकार के न रहने पर न कोई कर्ता है न भोक्ता है. जो कुछ हो रहा है वह होना था किन्हीं कारणों वश, जैसे प्रकृति में सारे काम हो रहे हैं, वैसे ही इन्द्रियां अपने-अपने विषयों में बरत रही हैं. मन अपना काम कर रहा है, बुद्धि अपना, फिर व्यर्थ ही स्वयं को बंधन में क्यों मानें.

Friday, December 19, 2014

जब जागो तभी सवेरा

जुलाई २००७
 “जब जागें तभी सवेरा” हम सोये हुए हैं, स्वप्न ही देखकर अपना जीवन बिता रहे हैं. शास्त्र व गुरू कहते हैं हर पल सजग रहना है. मन, वचन, काया से हमसे किसी को उद्वेग न हो. यदि कभी किसी का दिल दुःख ही जाये तो प्रायश्चित करना चाहिए, जैसे हर दिन तन को स्वच्छ करते हैं वैसे ही हर रात सोने से पूर्व दिन भर की भूलों का स्मरण करके मन को धो डालना चाहिए. हर परिस्थिति में सम भाव में रहने का तप करने से भी विकार नष्ट हो जाते हैं.


Thursday, December 18, 2014

जीवन चलने का नाम

जुलाई २००७ 
जीवन में चुनौतियाँ परिवर्तन के लिए आवश्यक हैं, क्योंकि परिवर्तन के बिना हम आगे ही नहीं बढ़ सकते. परिवर्तन आये बिना हम अपनी शक्तियों से परिचित नहीं हो पाते. हम सोचने की शक्ति भी खो बैठते हैं. इस परिवर्तन के पीछे कोई सत्ता है जो सदा एक सी है तभी परिवर्तन का भान भी होता है. जो जरा भी बदलाव को स्वीकार नहीं करता वह स्वयं से परिचित नहीं है. वह चीजों को जैसी वे हैं वैसी नहीं देख सकता. यह संसार नित नये अनुभव देकर हर पल कुछ न कुछ सिखा रहा है. हर चुनौती का सामना करते हुए हम आगे बढ़ते हैं तो पहले से कहीं अधिक ज्ञान व शक्ति के साथ. 

Wednesday, December 17, 2014

एक उसी की चाहत सबको

जुलाई २००७ 
परमात्मा का मिलना कठिन नहीं है, जो वस्तु हमारे पीछे है उसको देखने के लिए कहीं जाना नहीं है, बल्कि उसके सम्मुख होने की आवश्यकता है. हम अनुष्ठान, जप, तप आदि के द्वारा उसे पाना चाहते हैं, पर सद्गुरु हमें अहंकार तजने की कला सिखाते हैं, शरणागत होना सिखाते हैं और भीतर ही वह प्रकट हो जाता है जो सदा से ही वहाँ था. वह आत्मा के प्रदेश में हमारा प्रवेश करा देते हैं. आत्मा के रूप में परमात्मा सदा मन को सम्भाले रहता है, उसे रोकता है, टोकता है और परमात्मा के आनंद को पाने योग्य बनाता है, उसको पाने के बाद कुछ पाना शेष नहीं रहता. वह सुह्रद है, हितैषी है, वह नितांत गोपनीय है उसे गूंगे का गुड़ इसीलिए कहा गया है. वह आनंद जो साधक को मिलता है सभी को मिले ऐसे प्रेरणा भी तब भीतर वही जगाता है.

Tuesday, December 16, 2014

सोच वही जो उसको भाए

जुलाई २००७ 
साधना के द्वारा मन की शक्तियाँ जब बढती हैं तो दैवीय सत्ता भीतर जगने लगती है. पहली बार जब हम इस धरा पर आये थे, तो भीतर देवत्व था, वह ढक गया है पर भीतर वह पूर्ण जाग्रत है, रह-रह कर वह अपनी सत्ता से परिचित कराता है. हमें उसे बाहर निकालना है. हम देवताओं के वंशज हैं, अमृत पुत्र हैं. सद्विवेक हमारा स्वभाव है. व्यर्थ के विचारों को यदि सार्थक विचारों में बदल दें तो हमारी क्षमता पांच गुणी बढ़ जाएगी. जब मन शांत होता है तब परमात्मा के प्रति भीतर सहज प्रेम जगने लगता है. उससे एक संबंध बनने लगता है. उसके प्रेम से हम सशक्त हो जाते हैं और वह हमें राह दिखाता है. तब हम संसार के लिए उपयोगी बनने लगते हैं. परमात्मा हमारे द्वारा काम करने लगता है. 

Monday, December 15, 2014

जब जैसा तब वैसा रे

जुलाई २००७ 
जो नश्वर को जानता है, वह शाश्वत है. वही हम हैं. हम अपने तन में होती संवेदनाओं को देखते हैं जो देखते-देखते नष्ट हो जाती हैं, क्योंकि वे नश्वर थीं. हमारे मन में उठने वाली प्रत्येक भावना, कल्पना, विचार नश्वर है, हम जो उनके साक्षी हैं, शाश्वत हैं. हम व्यर्थ ही मन की इन कल्पनाओं को सत्य मानकर स्वयं को सुखी-दुखी करते रहते हैं. हमें तो इन्हें ये जब जैसी हैं, वैसी मानकर आगे बढ़ जाना चाहिए. ये तो जाने ही वाली हैं !

Sunday, December 14, 2014

भीतर बाहर एक वही तो

जुलाई २००७ 
भक्ति का आरम्भ वहाँ है जहाँ हमें ईश्वर में जगत दिखता है और चरम वह है जहाँ जगत में ईश्वर दिखता है. पहले पहल ईश्वर के दर्शन हमें अपने भीतर होते हैं, फिर सबके भीतर उसी के दर्शन होते हैं. ईश्वर कण-कण में है पर प्रेम से उसका प्राकट्य होता है. सद्गुरु हमें वह दृष्टि प्रदान करते हैं जिससे हम परम सत्ता में विश्वास करने लगते हैं. ईश्वर का हम पर कितना उपकार है यह तो कोई सद्गुरु ही जानता है और बखान करता है. शब्दों की फिर भी कमी पड़ जाये ऐसा वह परमात्मा आनंद का सागर है. 

Friday, December 12, 2014

एक नूर ते सब जग उपज्या

जुलाई २००७ 
हमारी साधना इस जन्म में जहाँ तक पहुंचती है, अगले जन्म में वहीं से आरम्भ हो जाती है. हमारी साधना का एक मुख्य भाग है किसी को भी दोषी नहीं देखना, यदि हम किसी को दोषी मान लें तो फौरन मन को निर्मल कर लेना चाहिए ! हर पल हमारी ऊर्जा रिस रही है क्योंकि हम अज्ञानावस्था में रहते हैं, स्वयं को देह मानते हैं. जब ज्ञान होता है और स्वयं को आत्मा मानते हैं तब हमारी ऊर्जा नहीं घटती. जिसकी भाव शुद्धि हो गयी है उसको मृत्यु का भय नहीं सताता. 

Thursday, December 11, 2014

भीतर जिसको मिला ठिकाना

जुलाई २००७ 
रहो भीतर, जीओ बाहर’ यह ध्यान का सूत्र है. आत्मज्ञान होने पर साधक भीतर रहना सीख जाता है. ‘भीतर’ हमें सारे दुखों से मुक्त करके आश्रय देता है. जब तक भीतर कोई केंद्र नहीं है, कोई वहाँ टिके भी तो कैसे. हम वास्तव में परमात्मा का अंश हैं इसे भुलाकर मन, बुद्धि तथा देह को ही सत्य मानकर उनके सुख-दुःख में लिप्त होते रहते हैं. वे हमें साधन रूप में मिले हैं, पर हम इन्हें ही साध्य मान लेते हैं, उनको संतुष्ट करना ही अपना लक्ष्य बना लेते हैं. जबकि आत्मा ही साध्य है. इस संसार में जो कुछ भी हमें मिला है, कर्मों के अनुसार ही मिला है, उनमें राग-द्वेष करने से हम नये कर्म बांधेंगे, यदि समता में रहेंगे तो शांति से उन कर्मों को करेंगे जो हमारे प्रारब्ध में हैं तथा नये कर्म करने पर कर्ता भाव से मुक्त रहेंगे. 

Wednesday, December 10, 2014

तुम्हीं हो बन्धु सखा तुम्हीं हो

जुलाई २००७ 
परमात्मा के नाम के सिवा सभी कुछ नश्वर है, इसका बोध होते ही सारा दृश्य बदल जाता है. अस्तित्त्व मुखर हो जाता है. ऐसा बोध आत्मा की गहराई से उपजता है. भीतर जो सत्य, आनंद का स्रोत है वहाँ से. जो चमत्कार कर सकता है, अभाव व प्रभाव से निकाल कर वह हमें स्वभाव में लाता है. सहज ही अकर्ता भाव सधने लगता है. परमात्मा हमारा सुहृदय है, सखा है, आत्मीय है, मीत है और ऐसा हितैषी जो कभी राह से भटकने नहीं देता. उससे विमुखता ही असजगता है. असजग होकर हम अपने स्रोत से दूर हो जाते हैं, आत्मा के पद से हट जाते हैं. ऐसा होते ही दुःख हमें घेर लेता है.

Tuesday, December 9, 2014

योग साधना है मन का

जून २००७ 
जो बोलना चाहिए, वह बोलें. जो धारण करना चाहिए उसे ही धारें. वही कर्म करें जो करणीय हो. हमारा मन तन से जुड़ा है, तन की यदि हमने सही देखभाल नहीं की तो अस्वस्थता मन पर भी छा जाएगी. लेकिन मन यदि आत्मा से जुड़ा हो, समाहित हो, तृप्त हो और भीतर शांति का साम्राज्य हो तो मन तन पर प्रभाव डालकर उसे भी स्वस्थ कर सकता है. मन अनंत का ही प्यासा है, जगत का कितना ही सुख उसे मिले वह तृप्त नहीं होगा. मन लेकिन तभी परमात्मा से जुड़ेगा, जब वह खाली हो अर्थात कामनाओं से मुक्त हो. अलौकिक सुख की चाह भी चाह ही है, ख़ाली होते ही स्वयं ही आनंद का अनुभव होता है. जीवन जब तक है इस तन में उस आत्मबोध को पा लेना है. यही साधना है.

Monday, December 8, 2014

घूँघट के पट खोल रे

जून २००७ 
चंचल मन रोके नहीं रुकता और हम हेय को भी ग्रहण कर लेते हैं, उपादेय को छोड़ देते हैं, किन्तु जब मन यह जान लेता है कि अब उसकी दाल नहीं गलने वाली तो वह सारी कामनाओं का त्याग कर देता है. मन उसी क्षण खो जाता है, जब हम जाग जाते हैं. आत्मा का जन्म मन का अमन होना है. यूँ आत्मा सदा से ही थी पर मन का पर्दा पड़ा था. पर्दा हटा तो तो वह प्रकट हो जाती है.  जब हमें एक बार अपना पता चल जाता है तो मन का पर्दा रहने पर भी जब चाहे हम उसे हटा कर आत्मा के देश में प्रवेश कर सकते हैं.


तुझ संग ही नाते हों सारे

जून २००७ 
अद्वैत का अनुभव ध्यान में होता है जब आत्मा और परमात्मा के मध्य कोई अंतर नहीं रहता, दोनों एक हो जाते हैं. जीवात्मा के रूप में हम मन, बुद्धि, चित्त व अहंकार के साथ होते हैं, तब हम परमात्मा के अंश हैं. जब हम चिन्तन-मनन करते हैं अथवा मौन रहते हैं तब द्वैत होता है. मन लहर है तो आत्मा सागर है, मन बादल है तो आत्मा आकाश है. व्यवहार काल में हम उस परमात्मा के दास हैं. वह साकार भी है और निराकार भी. उसकी मूर्ति भी उसका साकार रूप है और उसकी बनाई ये चलती-फिरती मानव मूर्तियाँ भी. हमारा कर्त्तव्य है इन्हें किसी भी प्रकार का दुःख न देना. सेवक को अपना सुख-दुःख नहीं देखना है, उसका अहंकार भी मृत हो गया है, क्योंकि वह तो परमात्मा का अंश है. ऐसा हमें हर पल स्मरण रहे तो सदा हम परमात्मा के साथ हैं !

Friday, December 5, 2014

मन भीजे जब रस पावन में

जून २००७ 
हमें स्थूल से सूक्ष्म की ओर जाना है, जहाँ कोई भेद नहीं है, वहाँ अद्वैत है. स्थूल में भेद है, वहाँ सारे विकार हैं. सूक्ष्म निर्विकार है, वह सारे दुखों से परे है. उस सूक्ष्म को पाना हो तो पहले तन रूपी घट को तपना होगा, मन रूपी दूध को जमाना होगा तब आत्मा रूपी नवनीत प्रकट होगा. तन से निष्काम कर्म, मन से समता को जो साध ले वही आत्मा को जान सकता है. अहंकार ही हमें आत्मा से दूर रखता है. अहंकार भीतर के रस को सुखा देता है. मात्र बौद्धिक ज्ञान कब तक हृदय को हर-भरा रखेगा, उसे तो भक्ति का पावन जल चाहिए. आत्मा का आनंद भक्ति के सहारे मिल सकता है. जिसकी प्रज्ञा जगे तो विनम्रता आ ही जाती है.  

किससे नजर मिलाऊँ तुझे देखने के बाद

जून २००७ 
किससे नजर मिलाऊँ तुझे देखने के बाद” जिसे एक बार अपने भीतर उस आनंद की झलक मिल जाये, वह खुद को ही भूल जाता है, संसार की तो बात ही और है. कवि कहता है, “अपना पता न पाऊं तुझे देखने के बाद” और ऐसा मन स्वालम्बी होता है, वह एक का शैदाई होता है, उसे जो चाहिए उसके लिए वह अपने ही दिल का द्वार खटखटाता है, वह जो चाहता है वह भीतर ही मिल जाता है. वह अनुभव अनोखा है, वह इस ब्रह्मांड की सबसे कीमती शै है !


Wednesday, December 3, 2014

मुक्त हुआ जो द्वन्द्वों से

जून २००७ 
साधक को कभी भी संतोषी नहीं होना चाहिए. कभी-कभी ऐसा होता है जिस अनुभव को वह उच्च मानता है वह तो भूमिका से भी पूर्व की स्थिति होती है. भीतर इतने द्वंद्व होते हुए भी कोई स्वयं को ज्ञानी मानने की भूल कर सकता है. आनंद और शांति की प्राप्ति ही साधक का लक्ष्य नहीं है, बल्कि मन को सारे द्वन्द्वों से मुक्त करना है. मन, वाणी तथा कर्म से कोई ऐसा कृत्य न हो जिससे स्वयं को या किसी अन्य को रंचमात्र भी दुःख पहुँचे. करुणा, मुदिता, स्नेह तथा उपेक्षा इन चारों में से परिस्थिति के अनुसार किसी एक का प्रयोग करके हम मुक्त रह सकते हैं. अपने से श्रेष्ठ को देखकर मुदिता, हीन को देखकर करुणा, दुष्ट के प्रति उपेक्षा तथा समान के प्रति स्नेह, यही व्यवहार का आधार होना चाहिये. हरेक को यह जीवन एक महान लक्ष्य की प्राप्ति के लिए मिला है, जब तक वह न मिले, एक क्षण के लिए भी प्रमादी नहीं होना है. दुःख हमें सजग करते हैं, आँखें खोलते हैं, हम दुखों का कारण खोजने पर विवश होते हैं तो अपने भीतर के विकारों को स्वच्छ करने की प्रेरणा मिलती है. हम न तो अहंकारी बनें न ही अन्याय के सामने झुकें. एक विनम्र प्रतिरोध की आवश्यकता है. प्रेम भरी दृढ़ता तथा सत्य के लिए कुछ भी सहने की क्षमता !


Tuesday, December 2, 2014

हर बाधा को पार करे मन

जून २००७ 
साधना के पथ पर आगे बढने में कुछ बाधायें हैं – व्याधि, आधि, प्रमाद, आलस्य, उत्साह हीनता, विषयों में रूचि, अनुभव में न टिक पाना, कर्मों का असर ! सबसे पहले तो मानव जन्म मिले, साधना में रूचि मिले, गुरू मिलें, अनुभव भी हों, साधना करने की सुविधा मिले, इसका शुक्रिया अदा करना चाहिए. जीवन साधना के पथ पर चलने के लिए ही है ऐसा दृढ निश्चय हो जाये. गुरू पर अगाध श्रद्धा हो और जीवन की कद्र हो. सच्ची संतुष्टि हो, सत्य के प्रति भक्ति हो जो तभी मिलेगी जब भीतर कोई कामना न हो, स्पर्धा न जगे, देने का भाव हो, न दे सके तो भी असंतोष न हो. जीवन में प्रमाद न हो. शरण में गये बिना  इससे छुटकारा नहीं. जप भी इन दोषों से मुक्त करा सकता है. मन में जप चलता रहे तो मन प्रमादी नहीं होगा. 

सच्चा मोती एक वही है

जून २००७ 
राम ब्रह्म हैं, वह मानव रूप लेकर धरती पर आते हैं. हर मानव ब्रह्म की शक्तियों को लेकर ही आता है, पर वे उसके भीतर निष्क्रिय पड़ी रह जाती हैं. हम सूक्ष्म की ओर चलें तो ये शक्तियाँ जागृत होने लगती हैं. जीवन में वरदान घटते हैं, प्रेम पहला वरदान है जो तब घटता है जब हमारा स्वयं से परिचय होता है, जो परिचय सद्गुरु कराते हैं. जब तक हम मन के किनारे पर बैठे रहते हैं तब तक स्वयं से परिचय नहीं होता, एक बार जब गहरी डुबकी लग जाती है तो आत्मा का मोती हाथ लगता है, जिससे ज्ञान, प्रेम औए आनंद का प्रकाश फूटता है. संस्कारों से मुक्ति मिलती है, मन पावन बनता है.