Friday, January 30, 2015

भक्ति करे कोई सूरमा

जनवरी २००८ 
भक्तियोग साधन भी है और साध्य भी, अध्यात्म का लक्ष्य है हमारे भीतर परमात्मा के प्रति प्रेम जगे. इस लक्ष्य को पाने का पहला कदम है हम शांत रहना सीखें. भक्त कभी विचलित नहीं होता, वह ईश्वर के अतिरिक्त कुछ भी नहीं चाहता. वह प्रेम के लिए जीता है और प्रेम के लिए मर भी सकता है. वह व्यर्थ के विवादों में नहीं उलझता, उसके पास इसके लिए समय ही नहीं है. वह उच्चतम को चाहता है, तुच्छ से उसका कोई प्रयोजन नहीं. वह अनदेखे के प्रति समर्पित है, उसको हर रूप में देखता है. 


Thursday, January 29, 2015

मिटकर ही आकाश मिलेगा

जनवरी २००८ 
साधक यदि चाहे तो स्वयं का कल्याण कदम-कदम पर कर सकता है. हर क्षण हमारे सम्मुख है ख़ुशी का आकाश, अंतहीन आकाश ! पर हम हर बार धरा को चुन लेते हैं, डरते हैं कहीं आकाश में गुम न हो जाएँ, पर गुम हुए बिना क्या कोई अपने को पा सका है. एक बार तो मरना ही होता है, खोना ही होता है, सहना ही होता है नितांत अकेलापन ! जिसके बाद मिलता है निरंतर सहचरी का भाव, उस परमात्मा से एकता का अभिन्नता का अपार भाव ! वह अस्त्तित्व जो हर पल हमारा साथी है, पर अभी मौन है, तब मुखर हो उठता है ! हम जो भीतर कटुता छिपाए हैं, छल, वंचना तथा ईर्ष्या छिपाए हैं वह तब प्रकट हो जाती है. हम उसे अपने से भिन्न देखते हैं जैसे कोई अपने को देखे और अपने कपड़ों को, जिन पर मेल लगी है, वैसे ही हम अपने मन को देखें और मन पर लगे धब्बों को. वह परमात्मा हमें उसके साथ ही कबूल करता है. वह हमें चाहता है, उसके साथ हमारे सम्बन्ध में कोई छल न हो बस वह यही चाहता है.    

Wednesday, January 28, 2015

मोह मिटे तो चैन मिले

जनवरी २००८ 
मोह के कारण दुनिया में सारे दुःख हैं. मोह तभी टूटता है जब स्वयं का ज्ञान होता है. परमात्मा की कृपा से ही यह सम्भव होता है, उसकी कृपा का कोई विकल्प नहीं. लेकिन कोई यदि इस बात का भरोसा न करे तो उसे धीरे-धीरे ही समझाना होगा. अध्यात्म का मार्ग धैर्य का मार्ग है. सभी के भीतर वही एक ही सत्ता है, सभी उस कृपा के पात्र हैं. कृपा के अधिकारी होना भी कृपा है, अधिकारी बनने के लिए जो पुरुषार्थ करते हैं वह भी कृपा से ही सम्भव है. हम दूसरों को सुधारना चाहते हैं, यह भी मोह के ही कारण है. हमारा आचरण देखकर यदि कोई बदलने का प्रयत्न करे तो ही हम किसी के जीवन में परिवर्तन ला सकने में समर्थ हैं, अन्यथा नहीं. हमें जीवन में जिस किसी भी स्थिति का सामना करना पड़ता है वह हमने स्वयं ही उत्पन्न की है, केवल हम ही उसके लिए जिम्मेदार हैं. ज्ञान को हमने केवल ओढ़ा हुआ है यदि हर किसी को हम उसे ओढ़ाते चलेंगे. सभी के भीतर वह आत्मा है तथा सही वक्त की प्रतीक्षा कर रही है. जागने का सही वक्त सभी के जीवन में आता ही है, आयेगा ही, तब तक उसे हर दौर से गुजरना होगा. हमारी जागृति का पूरा लाभ हम स्वयं उठा लें, सजग रहें, स्वस्थ रहें, भोजन के प्रति सावधान रहें, वाणी के दोषों से बचें, स्वाध्याय करें, मनन करें, भीतर रहें, कृतज्ञता अनुभव करें, प्रशंसा करें, स्वाध्याय करें, सकारात्मक सोचें, कहें, करें, ज्ञान में तभी हम दृढ़ रहेंगे.

Tuesday, January 27, 2015

कर्मशील हो पल पल अपना

जनवरी २००८ 
सम्बंध ही वह दर्पण है जिसमें हम अपना वास्तविक रूप देखते हैं. हमारे संबंधों की नींव में यदि मोह नहीं है तो उनमें कभी कटुता नहीं आती. भीतर जब एक क्षण के लिए भी विचलन न हो, सदा समता ही बनी रहे तो मानना चाहिए कि ज्ञान में स्थिति है. वाणी, समय व शक्ति का अपव्यय न हो तो इन हाथों से कितना कार्य हो सकता है. हमारे कर्मों के अनेक साक्षी हैं. सूर्य, चन्द्र, अनल, अनिल, आकाश, भूमि, यमराज, हृदय, रात्रि तथा दिवस, संध्या तथा धर्म ये सभी कर्मों के साक्षी हैं, हमारी आत्मा साक्षी है. परमात्मा रूपी सद्गुरु का हाथ सदा हमारे सिर पर है, हमारे मस्तिष्क पर उसकी पकड़ है, बुद्धि को वही प्रेरणा देता है, वही सद्विचारों से हमें भर देता है. साधना के समय जब मन दूसरी ओर चला जाता है तो वही इसे श्वास पर टिकाने में सहायक होता है.  

Monday, January 26, 2015

एक आँख भीतर को खोलें


जो निकट से भी निकट है उसे जानना कठिन है, पर क्यों कठिन है ? जो हम स्वयं हैं, उससे विस्मृति कैसे हो गयी? हम स्वप्न में जी रहे हैं. स्वप्न में ही मिथ्या संबंध जोड़ लेते हैं तभी वास्तविक संबंध को पहचान नहीं पाते, वह संबंध जो हमारा अपने साथ है. इसी को अध्यास कहते हैं. हम देह को ही मैं मानते हैं क्योंकि हम इसे बाहर से ही देखते हैं, जब हम इसे भीतर से देखते हैं तत्क्षण आसक्ति छूट जाती है. वह आँख हमें पैदा करनी है जिससे हम भीतर झाँक सकें, देह का ठीक-ठीक बोध होते ही देह पर पकड़ ढीली होने लगती है तब दृष्टि चैतन्य की ओर जाती है. सत्य जानने से ही हम मुक्ति का अनुभव करते हैं. जब देह से दूरी बढ़ने लगती है तो परमात्मा से निकटता होने लगती है.


Friday, January 23, 2015

तू ही है जमीं तू ही आसमां

2007 
हम ईश्वर का ध्यान तभी तो कर सकते हैं जब हम उसे पहचान लें, उसकी पहचान तो सद्गुरु ही कराते हैं और एक बार उसकी पहचान हो जाये तो फिर कभी वह ध्यान से उतरता नहीं है. पहला परिचय खुद का होता है और तब लगता है जिन्हें हम दो मान रहे थे वे दो थे ही नहीं, एक ही सत्ता थी, वही आत्मा, वही परमात्मा, वही सद्गुरु वही संसार ! कहीं कोई भेद नहीं, किसी को भी छोड़ना नहीं ! जो भी सहज प्राप्य हो, हितकर हो, मंगलमय हो, इस जगत के लिए और स्वयं के लिए शुभ हो वही धारण करने योग्य है. तब सारे संशय भीतर से दूर हो जाते हैं, अंतर्मन खाली हो जाता है. कोई आग्रह नहीं, कोई चाह भी नहीं, जैसे नन्हा बालक सहज प्रेरणाओं पर जीता हुआ, अस्तित्व तब माँ हो जाता है, ब्रह्मांड पिता होता है. सारे वृक्ष, पर्वत, आकाश तब सखा हो जाते हैं और सारे लोग भी एक अनाम बंधन में बंधे अपने ही लगते हैं !

Thursday, January 22, 2015

तोरा मन दर्पण कहलाये

अक्तूबर २००७ 
मन के पीछे  छिपी चेतना निर्मल है, उसके सामने जो भी आता है उसको उतनी ही देर के लिए वह ग्रहण करती है उसके बाद वह पुनः पहले की तरह निर्मल हो जाती है. भीतर की वह चेतना दर्पण है, मन में जो इकठ्ठा हुआ है वह उसमें झलकता है तो हमें लगता है कि वह चेतना का ही अंग है ! चैतन्य में केवल चित्र झलकता है और इतने समय से झलक रहा है कि भ्रान्ति  हो जाती है कि यह उसी का भाग है, उसी में है ! मन की छाया लगातार आत्मा पर पडती है, यही गांठ है, उसे खोलने का उपाय है कि हम कुछ देर के लिए मन से परे हो जाएँ, मन से मुक्त हो जाएँ. जिस क्षण हम कामना से रहित होते हैं, मन नहीं रहता, उसी क्षण आत्मा में टिक जाते हैं. यही क्षण मुक्ति का क्षण है और ऐसे क्षण जीवन में कई बार आते रहे हैं.


Tuesday, January 20, 2015

साहेब मेरा एक है

सितम्बर २००७ 
एक में होना ही स्वर्ग में होना है. दो बनाना ही नर्क में होना है. हम कहाँ रहें यह सवाल नहीं है, हम कैसे रहें यह सवाल है. देखने की कला आए तो संसार के भीतर ही परमात्मा मिलेगा. जब हम नहीं होते तभी परमात्मा होता है. हम तो न जाने कितने-कितने जन्मों में होते आये हैं, परमात्मा कभी-कभी सद्गुरु की कृपा से ही प्रकट होता है. हमारा मिटना भी उसी की कृपा से सम्भव है. हम स्वयं मिटना चाहें तब भी खुद को किसी न किसी रूप में बचा लेते हैं. जीवन को पूरी तरह जानना हो तो उससे ऊपर उठना होगा, उससे पृथक होना होगा. हम मिटे क्षण भर को और वह प्रकट हुआ. पार्थक्य ही तीर की तरह भीतर एक निशान छोड़ जाता है. अपनी सुगंध छोड़ जाता है, प्रेम छोड़ जाता है. एक होने की इच्छा भी एक परम शांति का अनुभव कराती है, एक होने की प्रक्रिया भी आनंद देती है.


Monday, January 19, 2015

झूठे हैं ये सारे बंधन

सितम्बर २००७ 
हम स्वयं ही अपने दुखों का विस्तार करते हैं. यदि हम संसार को छोड़ने पर राजी हो जाएँ तो मुक्त तो हैं ही. हमें भ्रम होता है कि जगत ने बाँध रखा है, यदि एक बार तोड़ दें उस काल्पनिक बंधन को तो हम मुक्त हो सकते हैं. हमें डर लगता है कि संसार को छोड़ दें तो कहाँ जायेंगे. हमें पकड़े रहने में जगत को प्रयोजन भी क्या है, हम क्या इतने मूल्यवान हैं कि दुःख हमारी ओर आयें. यह जगत की व्यवस्था हमारे लिए तो नहीं चल रही है, भ्रान्ति है और यह भ्रान्ति होती है मानव को. मानव शिशु जब जन्मता है कमजोर होता है, माँ-बाप तथा परिवार के सभी सदस्य उसके आगे-पीछे घूमते हैं. इस बच्चे को सिखाना पड़ता है, संस्कार देने पड़ते हैं. उस पर सभी ध्यान देते हैं तो उसके भीतर एक भ्रम पैदा हो जाता है कि वही केंद्र है. सारी व्यवस्था उसके ही लिए रची गयी है, लेकिन बड़े होने तक यही भ्रान्ति चलती रहती है. यही अहंकार है. अहंकार को छोड़ने पर ही आत्मज्ञान पाया जा सकता है. जो एक झूठे केंद्र को मानकर चलता है वह भीतर के सच्चे केंद्र को पाने से वंचित रह जाता है. अहंकार दूसरों पर आधारित है, दूसरों का मत उसका ही संग्रह हमारी अस्मिता है. दूसरे कभी अच्छा कहते हैं, कभी बुरा, अहंकार वश हम जीते चले जाते हैं.


होश बने स्वभाव हमारा

सितम्बर २००७ 
सतत् होश रखने की जरूरत है, उस समय तक रखने की जरूरत है जब तक जरा सा भी घास-पात या शैवाल भीतर रह जाये, जब जरा सा भी घास-पात भीतर न रहे तो होश स्वभाव बन जाता है और यह होश हमें मुक्त अवस्था में ला देता है. यही जीवन मुक्ति है, इच्छा गति है, इच्छा भविष्य में है, हम तभी वर्तमान में आते हैं जब कोई इच्छा नहीं रहती. इच्छा काल पर आधारित है. हम वर्तमान में नहीं रहते, समय को बांटते रहते हैं. इच्छा ही भविष्य है और स्मृति ही भूत है. समय केवल वर्तमान में है. हम कल्पना और स्मृति में रहकर वर्तमान को खोते रहते हैं, अपने आप को खो देते हैं. इच्छा हमें अपने आप से दूर कर देती है. 

Thursday, January 15, 2015

मुक्त हुआ सो मन निर्मल

अगस्त २००७ 
जब साधक को अपने भीतर एक ऐसे तत्व का पता चल जाता है, ‘जो है’ पर दिखायी नहीं देता, जो सारे शब्दों से भी परे है तो वह शेष नहीं रहता, जो रहता है वह इतना सूक्ष्म है कि उसकी तुलना में मन, बुद्धि आदि इतने स्थूल मालूम पड़ते हैं कि शरण में जाने की बात भी बेमानी लगती है. जो शरण में जायेगा वह स्थूल है और जिसकी शरण में जायेगा वह अति सूक्ष्म है. मन जब तक सूक्ष्म नहीं हो जाता, निर्मल नहीं हो जाता, सारे आग्रहों से मुक्त नहीं हो जाता. सारे द्वन्द्वों से मुक्त नहीं हो जाता, तब तक शरण नहीं हुआ. जब वह इतना सहज हो जाये, इतना पारदर्शी की सबके आर-पार निकल जाये, कोई भी अवरोध उसके सामने अवरोध न रहे, वह जैसे यहाँ रहकर भी यहाँ का न हो, उस सूक्ष्म में तभी प्रवेश हो सकता है. यह निरंतर अभ्यास की बात है, लेकिन धीरे-धीरे यह स्वभाव ही बन जाये, तभी वास्तव में शरणागति घटित होगी, अभी तो हम पल-पल शरण में और पल-पल अशरण में आ जाते हैं.    


गरिमा मय है मानव का पद

अगस्त २००७ 
सर्वोत्तम पद है मानव का पद ! क्या हमने इस पद की शपथ ग्रहण की है ? इस शपथ में हमें नकारात्मक भाव से मुक्त रहना, कटु वचन नहीं कहना तथा सभी को प्रेम देना इन तीनों बातों को शामिल करना है. हमें इस शपथ रूपी संकल्प की छत बनानी है ताकि कोई विकार प्रवेश न कर सके. व्रत लेने से मन खाली रहता है, यह व्यर्थ की बातों से नहीं भरता. नया कार्य, नई कल्पना, नया चिन्तन तभी मन में आ सकती है जब पुराना वहाँ न हो. जगह हो. जब मन ख़ाली होता है तो आत्मा मुखरित हो जाती है. मन बाह्य संसार से ही विकारों को ग्रहण करता है यदि व्रत रूपी छत या आवरण रहे तो विकारों की वर्षा से हम बच सकते हैं. अनावश्यक बातों को त्याग कर आवश्यक को ही हम ग्रहण करें तो कितनी ऊर्जा बचा सकते हैं फिर वही ऊर्जा भीतर जाने में सहायक होती है और हम मनुष्यत्व के पद की प्रतिष्ठा तभी बनाये रख सकते हैं.




Monday, January 12, 2015

होश भी विश्राम भी

अगस्त २००७ 
भूख, प्यास से पहले, उनके बाद, भय, कुतुहल, युद्ध से भागते समय तथा छींक से पूर्व दुखद स्थितियों का भी उपयोग स्वयं को जानने के लिए कर लेना चाहिए. दुःस्वप्न नींद को तोड़ने के लिए होता है. शास्त्र कहते हैं क्यों न हम दुखद स्थितियों का उपयोग जागने के लिए कर लें. दुःख में हम पूर्ण जागरूक होते हैं, सुख में बेहोश होते हैं. उपवास इसलिए है कि हम स्वयं के पास रहें, जागे रहें, सम्पूर्ण रहें. शरीर के कष्ट के समय हम जागरूक रहते हैं. छींक के समय जब हम जागरूक होते हैं तो छींक नहीं आती. खाड़ी-खड्ड के मुहाने पर भी हम सचेत होने का उपयोग कर सकते हैं. तेज गति में हम निर्विचार हो जाते हैं. खतरे की घड़ी में हम गहन जागरूकता को प्राप्त होते हैं, जीवन की हर परिस्थिति का साधन के रूप में उपयोग किया जा सकता है. सतत् बोध रखना है कि ‘मैं हूँ’ ! होशपूर्वक विश्रांति, परिधि पर कुछ न हो रहा हो पर केंद्र पर सब कुछ हो रहा है, यही ध्यान है !

मन के पार ही वह मिलता है

अगस्त २०१४ 
शरीर प्रत्यक्ष है और आत्मा परोक्ष है. जगत प्रत्यक्ष है और परमात्मा परोक्ष है. हम प्रत्यक्ष की तरफ सहज ही आकर्षित हो जाते हैं. जो आत्मा में रमता है उसके भीतर मौन उतर आता है, गहरा मौन. विचार आते हैं पर वे जैसे ऊपर-ऊपर तैरते हैं. नीचे की झील साफ दिखायी देती है, बस चुपचाप इस झील की तलहटी में बिछी ठंडी गीली रेत पर पड़ी सीपियों में से किसी एक पर उसका ध्यान रहता है. सद्गुरु कहते हैं, संसार को किसी का मन नहीं चाहिए, सेवा चाहिए, बस उनका काम होता रहे, मन की किसी को जरूरत नहीं है और यह मन न ही परमात्मा के किसी काम का है, वह तो मन से परे है. ध्यान और प्रेम के मार्ग पर इस मन को विगलित होने देना है. यह अहम् है जो इस मन के बल पर जीता है. ‘मैं’ हूँ तो इच्छा है, डर है, सुख है, दुःख है यदि मैं ही नहीं तो इनमें से कोई भी नहीं और तब मन भी नहीं.


Thursday, January 8, 2015

कारण में ही कार्य छुपा है


ज्ञान तो मिल जाता है सद्गुरु से, पर उसमें टिकने के लिए आसक्ति का त्याग करना पड़ता है. हमारा भौतिक शरीर और मन ही हमें गुलाम बना देता है. हम जो आत्मा का आनंद लेना चाहते हैं, इन तामसिक सुखों की आसक्ति का त्याग नहीं कर सकते. परमात्मा का ज्ञान जीव को ब्रह्म पद प्रदान करता है और परमात्मा का प्रेम ब्रह्म को जीव बना देता है. धीरे-धीरे जब ज्ञान और प्रेम बढ़ते जाते हैं तब जीव और ब्रह्म में एकता होने लगती है. शब्द में जैसे अर्थ बताने की शक्ति है वैसे ही कार्य में, कारण में जाने की शक्ति है. आनंद दायिनी चेतना की सत्ता ही कण-कण में व्याप्त है. हरेक में वही छुपा है. जो दूसरों के भीतर परमात्मा के दर्शन कर सकता है वही कण-कण में व्याप्त सत्ता, चेतनता और आनंद अनुभव कर सकता है. 


Tuesday, January 6, 2015

एक प्रकाश छिपा है भीतर

अगस्त २००७ 
सद्गुरु तो एक पल में झोली भर देता है, हमारे भीतर जिज्ञासा तीव्र होनी चाहिए ! जब गुरुकृपा से भीतर परमात्मा प्रकट हो जाता है तो हर पल, हर घड़ी साधक प्रकाशमान हो जाते हैं, रहते हैं. हर घटना तब शुभ ही होती है, तब बाहरी वातावरण का कोई प्रभाव नहीं पड़ता. जिधर भी देखें परमात्मा ही नजर आता है, मन जैसे खो जाता है, अहम विगलित हो जाता है, भीतर कुछ द्रवित होता है, सारा ठोसपना खत्म हो जाता है. प्रेम का अनुभव होता है तो सारा जगत एक उसी का रूप दिखाई देता है. भीतर-बाहर एक ही सत्ता का दर्शन होता है, वह दर्शन चौबीस घंटे होता है. अब न कोई दिन है न रात है. आज हुई न कल है, न स्थान न समय के सापेक्ष है वह दर्शन. वह तो गुरू का प्रसाद है, एक जगी हुई आत्मा ही दूसरी आत्मा को जगा सकती है. एक जला हुआ दीपक ही दूसरी ज्योति जल सकता है. जब मन शुद्ध होता है तो परमात्मा उस मन का हरण कर लेता है, उसे परमात्मा के सिवाय कुछ भी नहीं भाता और उसे खोजने निकल पड़ता है. सद्गुरु ऐसे में परमात्मा के दूत बनकर आते हैं और भीतर ही उस तत्व का दर्शन करा देते हैं ! सद्गुरु के रूप में परमात्मा ही आते हैं. एक ही चेतना है, वही तो सबके भीतर भी है. !



Monday, January 5, 2015

मिटकर ही जीवन खिलता है

अगस्त २००७ 
मैं निर्गुणिया गुण नहीं जाना
एक धनी के हाथ बिकाना
मैं कायर मेरा सद्गुरु सूरा
मैं ओछा मेरा सद्गुरु पूरा
मैं मूरख सद्गुरु सयाना
एक धनी के हाथ बिकाना

जब तक साधक अपनी सारी वृत्तियों को इष्ट के चरणों पर विलीन नहीं कर देता तब तक जीवन में विशेषता नहीं होती. एक बार अन्न का दाना अंधकार में दब जाता है तो हजार गुना होकर वापस आता है. समर्पण इसी को कहते हैं, जो वह करवाए वही करना. जो वह चाहे उसी में हाँ मिलानी ही सच्चा समर्पण है. सद्गुरु को जब साधक समर्पित हो जाते हैं तो जीवन से सारा विषाद चला जाता है. इसके बाद तो केवल भगवान ही भगवान जीवन में रहते हैं ! नया दृष्टिकोण, नई विचार धारा, नया जीवन मिलता है ! उसे भीतर से रस मिल जाता है और वह एकाग्र हो जाता है ! यही एकाग्रता फिर सजगता में बदलती है और सजगता ही ध्यान है, सुरत है, प्रेम है, भक्ति है, ज्ञान है ! 

Sunday, January 4, 2015

जब उसकी ओर मुड़े मुखड़ा

अगस्त २००७
हमें वीतराग बनना है, धीरे-धीरे मूर्छा को तोड़ना है, राग-द्वेष से मुक्त होना है. साधना का यह सर्वोतम लक्ष्य है. वीतरागता हमें दृढ़ बनाती है, सक्षम करती है. आत्मनिर्भर बनाती है. पदार्थ से हटाकर विचार पर दृढ करती है. हम अस्थिर, क्षणभंगुर जगत का आलम्बन लेना छोड़कर उस स्थायी शाश्वत परम सत्ता, चेतना या आत्मा पर निर्भर करते हैं. वह परम सत्ता हमारे अंग-संग सदा ही रहती है पर हम ही बेखबर रहते हैं. विमुख रहते हैं, सन्मुख होते ही वह हमें दिखाई देती है.

Friday, January 2, 2015

मन उसकी छाया बन जाये

अगस्त २००७ 
शरीर, श्वास, मन, प्राण, भाव ये पांच मिलकर हमारा जीवन है. भाव वे सूक्ष्म स्पंदन हैं जो भीतर से आकर स्थूल देह को संचालित करते हैं. देह प्राण ऊर्जा से ही बलवान बनती है. प्राण ऊर्जा कम होने पर ही मन बेचैन रहता है. श्वास भी अनियमित हो जाती है. इस प्राण ऊर्जा को बढ़ाने के तरीके ही धर्म हमें सिखलाता है. प्राणायाम, ध्यान साधना आदि इसे बढ़ाने के साधन हैं. भाव भी शुद्ध तभी होते हैं जब प्राण ऊर्जा सबल हो. भाव के अनुसार ही विचार होंगे. मन तब मित्र होगा, कृतज्ञ होगा, जगत में सुख बांटने वाला होगा. वर्तमान में रहेगा. हर पल आत्मा की सुगंध से भरा होगा. उससे आती शीतल हवा की छुअन को महसूस करेगा. इस जगत की वास्तविकता को जानने वाला होगा. 

Thursday, January 1, 2015

चलो आत्मलोक में जाएँ

अगस्त २००७ 
आत्म निरीक्षण करने से यह ज्ञात होता है कि जो कुछ हमें मिला है वह समपर्ण के कारण ही मिला है. गुरू अथवा परमात्मा को जब हम सच्चे हृदय से समर्पण करते हैं तब उनकी कृपा का अनुभव होता है. हमरे भीतर दृढ संकल्प जगे कि अगले वर्ष में आत्मा को और ज्यादा उजागर करना है, हमने अपने आप को परमात्मा का सच्चा वारिस बनाना है. मन को शुद्धतर तथा शुद्धतम करते जाना है, नहीं तो आत्मा हमारे पास होते हुए भी हम उससे दूर ही रह जायेंगे. भीतर एक ऐसा स्थान है जहाँ जाकर हमें चैन मिलता है तथा वह शांति व चैन बाहर भी झलकने लगता है. जो बाहर है वही भीतर है पर हम जब तक देह से ऊपर नहीं उठते हमने भिन्नता लगती है. मन, इन्द्रियों के पार जाने पर ही एकता का अनुभव होने लगता है. वहाँ दो नहीं हैं. वही हमारा असली धाम है, जो सच खंड है, सत्य लोक है. आज की भाषा में कहें तो जहाँ मस्ती है, चिल है.