Tuesday, March 31, 2015

पोथी पढ़ पढ़ जग मुआ

सितम्बर २००८ 
परमात्मा से हमारे मिलन में सबसे बड़ा बाधक हमारा ज्ञान है. परमात्मा प्रकृति के सौन्दर्य में झलकता है, पवित्रता में झलकता है. यह अस्तित्व जो इतना निकट है, इतना प्यारा है, पर हम अपने तथा कथित ज्ञान के कारण उसे सराहते नहीं, उस पर न्योछावर नहीं होते. हम जीवित हैं यही अहसास हमें परमात्मा के साथ एक कर सकता है. हम चेतन हैं, वह भी चेतन है. हम प्रेम चाहते हैं, प्रेम करते हैं, वह भी प्रेम स्वरूप है. हम आनंद चाहते हैं वह आनंद ही है. यह ज्ञान ही है जो सहज आनंद को भी ढक लेता है. अहंकारी बना देता है. सौभाग्यशाली हैं वे जो अज्ञानी होने का सुख अनुभव कर लेते हैं.

Monday, March 30, 2015

उससे मिलना होगा इक दिन

अगस्त २००८ 
जो बाहर है वही भीतर भी है. हमारे भीतर भी एक सृष्टि है, परमात्मा को प्रेम करना उस सृष्टि में प्रवेश करने का पवेश पत्र है, न जाने कितने जन्मों से वह परमात्मा हमारी बाट जोह रहा है. पुकार रहा है. आत्मा को जीने की इच्छा है, वह सुख-दुःख का संसार खड़ा कर लेती है, तब भी उस के भीतर परम प्रेम ज्यों का त्यों रहता है, अछूता और निर्मल, उस प्रेम को पाने की शर्त यही है कि आत्मा स्वयं ही वह प्रेम बन जाए, जैसे लोहा आग बन जाता है और बीज वृक्ष बन जाता है. वे पुनः अपने रूप को पाते हैं पर बदला हुआ रूप. उस क्षण तो उन्हें मिटना ही होता है. आत्मा यदि स्वयं को क्षण भर के लिए भी असीम सत्ता में लीन कर दे तो वह क्षण उसके जीवन को बदल सकता है. ऐसे भी वह पल-पल मिट रही है, बदल रही है. यह परिवर्तन उसके न चाहने पर भी होते हैं. यदि वह इस सत्य को स्वीकार ले कि जीवन क्षण भंगुर है, इसमें कोई सार नहीं है. जन्म भर की कमाई मृत्यु के एक झटके में समाप्त हो जाती है. जबकि आत्मा का विकास कभी पतन में नहीं बदलता, वह उन्नति की ओर ही अग्रसर होता है. कैसा विरोधाभास है यहाँ, लेकिन परमात्मा के क्षेत्र में संसार के सारे नियम टूट जाते हैं. यहाँ का गणित ही उल्टा है. प्रेम, शांति, सुख, आनंद, ज्ञान, शक्ति और पवित्रता से बना परमात्मा ही हमारी असली पहचान है. न जाने वह कौन सा पल रहा होगा जब उसे भूलकर हमने यह आवरण ओढ़ा होगा. धीरे-धीरे हम इसमें फंसते गये. उसकी स्मृति आते ही वह हमें अपनी ओर आकर्षित करता है. 

Saturday, March 28, 2015

रामराज्य हो अपने भीतर

अगस्त २००८ 
ओशो ने कहीं कहा है सतयुग और और कलियुग दोनों साथ-साथ चलते हैं, हमारे ऊपर निर्भर है कि हम किस युग में रहना चाहते हैं. हमारा जीवन अंधकार से भरा है अथवा प्रकाश से यह हमारे ऊपर निर्भर है. राम, कृष्ण, बुद्ध, महावीर आदि आज इसलिए पूजे जाते हैं क्योंकि उन्होंने सतयुग में रहना चुना, उनके साथ ही रावण, कंस तथा अँधेरे में रह रहे लोग भी थे. यदि कलियुग न हो तो सतयुग का क्या महत्व रहेगा ? नजीर की एक कविता है ‘आदमीनामा’, यह कविता आदमी की फितरत को बयाँ करती है. आदमी कितने रंग बदलता है, रक्षक भी वही है, भक्षक भी वही. कभी वह प्रेम का पुतला बन जाता है तो कभी क्रोध का अंगार. कभी द्वेष से भर जाता है तो कभी ऐसा अनुरागी कि उसे देखकर फरिश्ते भी शरमा जाएँ ! यह मानव के हाथ में है कि वह किस मार्ग पर चले. 

Friday, March 27, 2015

देने में ही वह मिलता है

अगस्त २००८ 
हम जिनसे प्रेम करते हैं, प्रेम करने का दावा करते हैं, उनसे शिकायत नहीं होनी चाहिए, अन्यथा वह दावा ही झूठा है. प्रेम में न कोई शिकायत है न उलाहना, न कोई चाह. वह तो सिर्फ देने का नाम है. प्रेम असीम है सो इसकी तो कोई चिंता ही न करे कि यदि सभी को प्रेम बांटते रहे तो हमारे पास कम हो जायेगा और यदि बदले में हमें कोई प्रेम न दे तो हम खाली हो जायेंगे. जब हम प्रेम देंगे किसी को तो वह अपने आप पुनः भर जायेगा. परमात्मा ही तो प्रेम है, वही तो ज्ञान है, वही तो शक्ति है, वही तो सुख है, वही तो पावनता है तो जब इनमें से किसी का भी प्रयोग करते हैं तत्क्षण वह जगह भर जाती है ! 

Thursday, March 26, 2015

जब भीतर का छंद जगे

जुलाई २००८ 
जब बुद्ध को ज्ञान हुआ तो वृक्षों में असमय फूल आ गये. हमें भी अपने भीतर इतनी संवेदनशीलता जगानी है कि फूलों की गुफ्तगू सुन सकें. प्रकृति के धीमे-धीमे स्वर हमें सुनाई दें. जब कोई भीतर के छंद को पा लेता है तो चारों ओर से परमात्मा उसे सहारा देने के लिए आ  जाता है. वह तो हर पल साथ है ही, हम ही बचते फिरते हैं, छिटके रहते हैं. जब हम प्रार्थना करना सीखते हैं, झुकना सीखते हैं, अहंकार को छोड़ देते हैं तब भीतर यह भाव पैदा होता है कि जो है वही होना चाहिए था. अहंकार हारता है पर लड़ने की प्रेरणा दिए जाता है. सम्मान की आकांक्षा ही अपमान को जन्म देती है. यदि हम कुछ होने की, कुछ पाने की जिद छोड़ दें तो जो है, जैसा है, वही प्रसाद सा लगने लगता है ! 

Wednesday, March 25, 2015

प्रेम ध्यान का बीज है

जुलाई २००८ 
प्रेम ही वह सूत्र है जिसे पकड़कर हम ईश्वर तक पहुंच सकते हैं. तभी हम जानते हैं कि हम अस्तित्व की उर्मियाँ हैं. इससे हमारा विरोध नहीं है. प्रेमपूर्ण होते ही हम ध्यानपूर्ण हो जाते हैं, और ध्यानपूर्ण होते ही प्रेमपूर्ण ! जब हम स्वयं को आँख भर कर देखते हैं तो पाते हैं कि हम हैं ही नहीं, और तभी पता चलता है परमात्मा है. ‘मैं’ हूँ यह हमारा सोचना ही आँखों पर पड़ा पर्दा है, ध्यान में वही मिटता है, जो है ही नहीं, जो है वह कभी मिटता ही नहीं. जब तक मन अशांति से ऊबे नहीं तब तक मन झूठ-मूठ ही खुद को बनाये रखना चाहता है. अहंकार की यात्रा जब तक तृप्त नहीं होती तब तक ‘मैं’ नहीं मिटता. 

Tuesday, March 24, 2015

पार सभी के जाना होगा

जुलाई २००८ 
चेतना पूरे शरीर में जग जाये तो वह ज्ञान है और वह ज्ञान फिर झुक जाये वही भक्ति है. भक्ति समय सापेक्ष नहीं है, वह जिम्मेदारी लेना सिखाती है. भक्त पहले भगवान को भीतर देखता है, फिर सारा संसार प्रभुमय देखता है. भक्ति चेतना की पूर्णता है, जहाँ भी हम झुके वहीं भक्ति का आरम्भ होता है. ईश्वर ने हमने यह मानव तन दिया है, सद्गुरु इस में सत्यता का बोध कराता है. जो इन्द्रियों का रस, विचार का रस, भावना का रस, आनंद का रस इन तनों से लेता रहता है तो ऐसे ही तन मिलते है, पर इनसे पार जब शुद्द सुख व शुद्ध रस मिलने लगे तब प्रेमाभक्ति का रस मिलता है.


Tuesday, March 17, 2015

इक दिन उससे मिलना होगा

जुलाई २००८ 
ईश्वर हमारे भीतर है, जब हम तय करें उससे मिल सकते हैं, लेकिन जब तक हम अहंकार से ग्रस्त हैं तब तक हम उसे पा नहीं सकते. मन से मुक्त होना असम्भव है ऐसा जब तक लगता है इसका अर्थ है मन में इच्छाएं अतृप्त हैं. जब तक इनको स्वीकार करके उन्हें असार नहीं जान लेते, तब तक लौटना नहीं होता. जीवन में सब जानने जैसा है. जीवन से भागना नहीं है, जीवन के सारे अनुभवों से गुजर जाना ही मुक्ति का उपाय है. विचार की सीढ़ियों से चढ़कर ही निर्विचार तक पहुँचा जा सकता है. संसार एक चुनौती है, एक आयोजन है परमात्मा तक पहुंचने का. जीवन की पाठशाला में कक्षा दर कक्षा चढ़ कर ही हमें वे उत्तर प्राप्त होते हैं जो समाधान बनते हैं. जीवन हमें तीन सीढ़ियाँ देता है, इनसे चढ़कर ही चौथी अवस्था तक पहुँचा जा सकता है. जीवन के सभी रूप शुभ है. उन्हें सहज स्वीकारना होगा. जीवन में क्षुद्रताओं को उच्चताओं से लड़ाने जायेंगे तो उच्चता ही हारेगी. 

Monday, March 16, 2015

बीत न जाये फिर बसंत यह

जुलाई २००८ 
हम जो पाना चाहते हैं वह ठीक है लेकिन जिस राह से चल कर पाना चाहते हैं, वह राह गलत है. हमारी हर खोज व्यर्थ हो जाती है क्योंकि जिसे हम खोज रहे हैं वह संसार दे नहीं सकता. हमरा मन कहीं बैठना ही नहीं चाहता क्योंकि वह हर वक्त किसी न किसी तलाश में रहता है. परमात्मा के बिना उसका कोई ठौर नहीं, वह संसार में भी उसी को खोज रहा है, पर संसार के पार ही वह मिलता है.  हम जिसे फूल बनकर चाहते हैं वह काँटा बनकर चुभने लगता है. भक्त संसार के सौन्दर्य को भी परमात्मा का ही मानता है. यह जीवन तो बसंत है और सारा जगत उल्लास से भरा है, पर हम सो रहे हैं. एक बार यदि हम जग जाएँ तो वह बसंत जीवन में आ सकता है जो परम है. साधना में कुछ नया नहीं करते, बस दिशा बदलनी है. हम जिस प्रेम भरी नजर से इस संसार को देखते हैं उसी नजर को हमें परमात्मा को देखने में भी लगाना है. हमारे भीतर प्रेम का जो छोटा सा झरना है उसी को एक दिन सागर से मिलाना है. जीवन कब गुजर जायेगा पता ही नहीं चलेगा, हमारी असली सफलता इसी में है कि भीतर के अमृत से जुड़ जाएँ, अपने असली प्रियतम को रिझा लें. हमारे चित्त का पंछी उसी अमृत का पान करना चाहता है, उसी सखा से मिलना चाहता है, हम संसार में लगाने के लाख उपाय करें यह वहाँ नहीं लग सकता. यह तो शाश्वत को ही चाहेगा. चित्त की बेचैनी का अर्थ है कि वह अपने घर जाना चाहता है. 

Friday, March 13, 2015

मुक्त हुए को मिलता है सुख


कृष्ण कहते हैं, सुख-दुःख, गर्मी-सर्दी इन्द्रियों द्वारा अनुभव किये जाते हैं. आत्मा पर इनका असर नहीं होता. पर हमारा अनुभव है कि जैसे ही कोई नकारात्मक भाव जगता है, भीतर तक सब तपने लगने लगता है. ध्यान में जाते ही यह तल्खी समाप्त हो जाती है. संस्कारों के वशीभूत होकर ही ऐसा होता है. मुक्त आत्मा तो प्रेम व शांति से भरी है. जब भी भीतर असहजता का अनुभव हो तो यह पाप है. जब भी भीतर दुःख हो, क्रोध हो तो अहंकार ही इसका कारण है. जब भीतर शांति हो, सुख हो, प्रेम हो तो मानना होगा कि आत्मा में स्थिति है. जब भीतर ताप होता है तो देह की कोशिकाओं पर इसका असर होता है. चेहरे पर क्रोध के भाव जितनी बार भी पड़ते हैं, अपनी छाप छोड़ते चले जाते हैं. तभी तो संतों का मुखड़ा कितना प्यारा लगता है और अहंकार से भरा व्यक्ति दुखी प्रतीत होता है.


Thursday, March 12, 2015

समरसता हो भीतर बाहर

मई २००८ 
त्याग पर भोग हावी होता रहा तो पर्यावरण को संतुलित बनाये रखना बहुत कठिन होगा. अनावश्यक भोग भी न हो तथा अनावश्यक कर्म भी न हों, कहीं तो हमें विकास के लिए भी सीमा रेखा खींचनी होगी. जीने का सीधा सरल रास्ता हमें ढूँढ़ निकलना होगा, ऐसा रास्ता जो हमें कल्याण की ओर ले जाये. वह परम सुख ही हमारी मंजिल है. आज हम सब होने के बावजूद हम प्रेम से वंचित रह जाते हैं. प्रेम बाँटने में कंजूसी करते हैं और प्रेम स्वीकारने में भी झिझकते हैं. वास्तव में अहंकार कुछ है ही नहीं, प्रेम का अभाव ही अहंकार है और प्रेम का कभी अभाव होता ही नहीं. जैसे ही हम सजग होते हैं, दूरी मिट जाती है. वातावरण में एक समरसता भर जाती है. सारा जगत तब अपना लगता है, वस्तुओं को भी उपभोग करना छोड़कर उनका उपयोग करना सीखते हैं.  

Wednesday, March 11, 2015

जहाँ मिले विश्राम वही घर

मई २००८ 
बाहर हमें जो भी मिलता है वही हमारा प्राप्य है पर भीतर का क्षेत्र हमारा अपना है, जहाँ हम जो चाहे पा सकते हैं. वहाँ आत्मा का साम्राज्य है, वह कल्पतरु है, जो माँगो उससे मिलता है. वहाँ मौन है, शांति है, आनंद है, प्रेम है, सुख है, ज्ञान है और शक्ति है. भीतर की दुनिया अनोखी है, जहाँ विश्रांति है, जहाँ मन ठहर जाता है, बुद्धि शांत हो जाती है, जहाँ चित्त डूब जाता है. जहाँ कोई उद्वेग नहीं है, कोई लहर नहीं है, जहाँ अनोखा संगीत गूँजता है, जहाँ प्रकाश ही प्रकाश है. जहाँ जाकर लौटने की इच्छा नहीं होती. वह हमारा अंतरस्थल ही हमारा आश्रय स्थल है. वही हमारा घर है. बाहर तो जैसे कुछ देर के लिए हम घूमने जाएँ या बाजार जाएँ या किसी से मिलने जाएँ अथवा तो दूसरे शहर या दूसरे देश जाएँ !

Tuesday, March 10, 2015

भीतर का प्रकाश जगे जब

अप्रैल २००८ 
अनेकांत हमें कहीं उलझने नहीं देता. जीवन के बारे में सच्चाई हो तो दुःख का कोई कारण नहीं. जीवन की परिस्थितियाँ बदल रही हैं, हमारे हाथ में समता में रहना है, नहीं तो प्रवाह बहा ले जा सकता है. दृष्टिकोण यदि सही हो तो मन एक समता में टिका रह सकता है. जब-जब हम प्रमाद में जाते हैं, तो संवेग नियन्त्रण की शक्ति कमजोर हो जाती है. हमारे किसी भी व्यवहार से यदि किसी को थोड़ा सा भी दुःख पहुँचे तो हमने कर्म बाँध ही लिया. हम अध्यात्म में टिके रहते हैं तो दूसरों के दोष देखना अपने आप छूट जाता है. यदि अब भी दोष दीखते हैं तो आत्मा में स्थिति दृढ़ नहीं है. परमात्मा हर जीव के भीतर है, वह सभी ओर है, सभी उसके भीतर हैं और फिर भी वह अप्रकट है, छिपा है. सभी को उसकी माया ने ढका हुआ है. वेद का ऋषि कहता है, मेरे भीतर जो परमात्मा रूपी प्रकाश है उसका आवरण हटा दो, वह उस प्रकाश से ही प्रार्थना करता है. हम इस जगत में प्रेम बांटने ही आये हैं अथवा तो सेवा करने. शरीर द्वारा सेवा व मन द्वारा प्रेम देना ही हमारा लक्ष्य है ! 



Monday, March 9, 2015

नहीं बने मन आग्रही

अप्रैल २००८ 
हमें स्मृति के साथ-साथ धृति का विकास करना है. धृतिं का अर्थ है धारणा, धैर्य ! यह मन की क्रिया है, मन के टिकने की क्रिया. एक वस्तु पर टिककर यदि मन का चिन्तन चले तो मन का समाधान हो जाता है. धारणा दृढ़ होना साधक के लिए अति आवश्यक है. सहनशक्ति की कमी से ही हम जगत में दोष देखते हैं. यदि किसी में दोष दिख भी रहे हों फिर भी उसे निर्दोष देखना होगा क्योंकि अपने दृष्टिकोण से वह सही है. खुद को सही मान रहा है. साधक को आग्रह शील नहीं होना है. इस जीवन में सभी को अपनी यात्रा अपने ढंग से करनी है. कोई जिन आदर्शों का पालन सहज रूप से करता है या करना चाहता है, हो सकता है अन्यों के लिए वे निरे व्यर्थ हों या अति कठिन हों या उन्होंने उनके बारे में कभी सोचा भी न हो, तो किसी को कोई हक नहीं कि अन्यों को भी वैसा करने पर बाध्य करे, शुद्ध चेतना कभी आग्रह नहीं करती, वह सबका सम्मान करती है, वह सारे जगत को निर्दोष देखती है. वह अपना मत थोपती नहीं.  

Friday, March 6, 2015

चल चला चल ...ओ राही चल चला चल

मार्च २००८ 
शक्ति यदि शांत चेतना से उत्पन्न हुई हो तभी कल्याणकारी होती है. ज्ञान शक्ति, क्रिया शक्ति था इच्छा शक्ति, ये तीनों शक्तियाँ हमारे भीतर हैं जीवन तभी अर्थमय होगा जब इन शक्तियों का सदुपयोग हम कर सकें, अन्यथा ये शक्तियाँ विनाशकारी भी हो सकती हैं. अपने भीतर की शांति, सौम्यता, सहजता, सरलता तथा प्रेम का विनाश तथा अपने बाहर की समरसता का विनाश. हर पल सजग रहने की आवश्यकता है, जीवन का कीमती समय पल-पल कर यूँ ही बीत रहा है. हाथ में कुछ भी नहीं आ रहा. कभी लगता है कि जिस परम खजाने की तलाश थी वह यहीं तो है. पूर्ण तृप्ति का अहसास होता है, फिर जरा सा चूके नहीं कि वह तृप्ति कहीं खो जाती है. फिर तलाश....सम्भवतः यही साधना की नियति है. अनवरत खोज..मंजिल सदा दूर चली जाती है. यदि खोज समाप्त हो जाये तो जीवन रुक जाता है. जीवन तो सदा ही चलते रहने का नाम है.


Thursday, March 5, 2015

प्रीत हुई जो उस प्रियतम से

मार्च २००८ 
परमात्मा से प्रेम हो जाये तो यह जगत होते हुए भी नहीं दिखता, वह प्रेम इतना प्रबल होता है कि सब कुछ अपने साथ बहा ले जाता है. शेष रह जाता है निपट मौन, एक शून्य, एक खालीपन लेकिन उस मौन में भी एक नये तरह का संगीत गूँजता है. वह खालीपन भी भरा हुआ है, कुछ खास ही तत्व से. वह तत्व जो अविनाशी है, कल्याणकारी है, अजन्मा है, अनंत है, हमारी आत्मा से परे है.


Wednesday, March 4, 2015

एक तू न मिला

फरवरी २००८ 
भक्त स्थूल जगत को तो आनंदित करता ही है, सूक्ष्म जगत को भी प्रभावित करता है. उसके आस-पास रहने वाले लोग भी धीरे-धीरे इसी रंग में रंग जाते हैं. आखिर कोई कब तक परमात्मा से दूर रह सकता है. हम अपना जीवन तभी तो प्रेममय तथा शांतिमय बना सकते हैं जब विकारों से दूर हों, और विकारों से दूर होने की शक्ति परमात्मा से मिलती है, जब उसके प्रेम का अहसास होता है. यह जगत अनित्य है इसे हम अपने अनुभव से प्रतिपल जानते हैं. यह स्मरण रहे तो आसक्ति नहीं होती. इस जगत में हमारी कोई शरणस्थली नहीं है. जब तक पुण्य हैं तभी तक शरण है, वरना अशरण ही है. दस की गिनती में हम एक को न लगायें तो शून्य ही शेष रहता है, एक परमात्मा न हो तो संसार शून्य है. उसी एक की शरण में जाना है. 

Tuesday, March 3, 2015

मिट कर ही मंजिल मिलती है

फरवरी २००८ 
अगर बीज अपने को बचाए तो बचता नहीं और मिटाए तो अमर हो जाता है. जो मिटेगा वही बचेगा, जो बचाएगा वह मिट जाता है. जिस दिन यह ‘मैं’ जान लेता है, मेरे होने में ही बंधन है उस दिन यह मन को सूक्ष्म करने की क्रिया आरम्भ करता है. यह ‘मैं’ का पर्दा मखमल से मलमल का करना है, जिस दिन यह मन पूरा मिट जाता है उस दिन परमात्मा ही बचता है. अभी तो मोटा लोहे का पर्दा है मन, जिस दिन ‘मैं’ नहीं रहता उस दिन वह महा अतिथि आता है. अभी मन खाली नहीं है, भीतर कोलाहल है, इसे शांत करके ही मन महीन किया जा सकता है. सूक्ष्म करते करते शून्य की यात्रा शुरू करनी है जो पूर्ण पर समाप्त होती है. हमारे भीतर सूक्ष्म भी है स्थूल भी. देह बर्फ जैसी है, मन पानी जैसा, आत्मा भाप जैसी है. जो स्वयं को देह मानता है वह मृत्यु से डरेगा. जो स्वयं को मन मानता है वह काव्य, संगीत तथा कला में रूचि रखता है और जो स्वयं को आत्मा मानता है वह सर्वव्याप्त है, वह उड़ान भर सकता है. वह मुक्त है. वह नष्ट नहीं हो सकता. वह सूक्ष्म है, जो जितना सूक्ष्म है उतना ही शक्तिशाली होता जायेगा. वह चट्टान सा दृढ़ भी होगा और फूल से भी कोमल. वह होकर भी नहीं होगा और उसके सिवा भी कुछ होगा भी नहीं, सारे द्वंद्व उसमें आकर मिट जायेंगे. वह होने के लिए कुछ करना नहीं है. वह तो है ही, केवल उसे जानना भर है. मन को खाली करना ऐसा तो नहीं है कि कोई बर्तन ख़ाली करना हो. कामना को त्यागते ही या समर्पण करते ही मन ठहर जाता है, ठहरा हुआ मन ही ख़ाली मन है !


अमन हुए को वह मिलता

फरवरी २००८ 
जो स्वरूप को प्रकट करे वह कला है, और जो ब्रह्म को जान ले वही कलाकार है. ऐसा कोई बिरला ही होता है, और कोई जान भी ले तो दूसरों को जना नहीं सकता, वह तो और भी बिरला है. सभी ब्रह्म होने का बीज लिए आते हैं पर बीज लिए ही चले जाते हैं, ऐसे बीज और कंकर में अंतर ही क्या ? बीज जब अंकुरित हो और फूल खिलाये तभी परमात्मा के दरबार में जा सकता है. जैसे बीज को मिटना होता है वैसे ही मन को भी मिटना होता है, तभी ब्रह्म का फूल खिलाना सम्भव होता है. ब्रह्म की झलक मिल भी जाती भी है पर उसे टिकाये रखना कठिन है. ‘मैं’ भाव छोड़ने को जो तैयार हो जाये वही मन से अमन में चला जाता है. जिन्होंने त्यागा उन्होंने भोगा. ऋषियों ने इस सत्य को जाना और पाया कि परमात्मा के सिवा और कुछ यहाँ है ही नहीं !  



Sunday, March 1, 2015

समता भाव साधना है

फरवरी २००८ 
प्रतिकूल संयोग हमारे लिए विटामिन है और अनुकूल संयोग हमारे लिए भोजन है. हम अपने जीवन में जो कुछ भी अच्छा-बुरा पाते हैं, हमारे कर्मों का फल है यदि ऐसी हमारी दृढ़ मान्यता है तो दुखों के आने पर हमें प्रसन्न होना चाहिए कि एक बुरा कर्म कट रहा है. भीतर समता बनाये हुए जब हम परिस्थिति को झेल जाते हैं तो भविष्य के लिए कोई कर्म बंध नहीं बांधते. इसी प्रकार सुख के मिलने पर किसी पुण्य कर्म का उदय हुआ है यह मानकर समता भाव बनाये रखना है, अन्यथा वह सुख भी बंधन बन जायेगा. 

एक ललक उससे मिलने कीं

जनवरी २००८ 
खुश रहना या न रहना हमारे मन पर ही निर्भर है, मन बुद्धि पर, बुद्धि विवेक पर, विवेक सत्संग पर, सत्संग गुरू से मिलता है और गुरू भगवान की कृपा से... तो अंततः भगवान ही कारण हुए, पर भगवान ने तो हमने पूर्ण स्वतन्त्रता दी है, हम यदि ठान लें तो खुश रहने से कौन रोक सकता है, यह ठानना ही तो विवेक है न ? ध्यान से हमें भीतर एक ऐसे स्थान का पता चलता है जहाँ सहज ही ख़ुशी बसती है. ध्यान से भीतर की दुनिया की झलक मिलती है. जीवन तभी तो जीवन कहलाने योग्य है जब तक उसमें कुछ नया-नया अनुभूत होता रहे. नये फूल खिलते रहें, एक प्रतीक्षा बनी रहे भीतर, इस प्रतीक्षा में कितना आनंद है, प्रियतम से मिलने की ललक है, कुछ नया घटने वाला है, कुछ ऐसा मिलने वाला है जो आज तक नहीं मिला, जो अमूल्य है. परमात्मा की राह पर चलो तो हर क्षण उपहार मिलते जाते हैं और हर अगला उपहार पहले से बेहतर होता है.