Monday, March 30, 2015

उससे मिलना होगा इक दिन

अगस्त २००८ 
जो बाहर है वही भीतर भी है. हमारे भीतर भी एक सृष्टि है, परमात्मा को प्रेम करना उस सृष्टि में प्रवेश करने का पवेश पत्र है, न जाने कितने जन्मों से वह परमात्मा हमारी बाट जोह रहा है. पुकार रहा है. आत्मा को जीने की इच्छा है, वह सुख-दुःख का संसार खड़ा कर लेती है, तब भी उस के भीतर परम प्रेम ज्यों का त्यों रहता है, अछूता और निर्मल, उस प्रेम को पाने की शर्त यही है कि आत्मा स्वयं ही वह प्रेम बन जाए, जैसे लोहा आग बन जाता है और बीज वृक्ष बन जाता है. वे पुनः अपने रूप को पाते हैं पर बदला हुआ रूप. उस क्षण तो उन्हें मिटना ही होता है. आत्मा यदि स्वयं को क्षण भर के लिए भी असीम सत्ता में लीन कर दे तो वह क्षण उसके जीवन को बदल सकता है. ऐसे भी वह पल-पल मिट रही है, बदल रही है. यह परिवर्तन उसके न चाहने पर भी होते हैं. यदि वह इस सत्य को स्वीकार ले कि जीवन क्षण भंगुर है, इसमें कोई सार नहीं है. जन्म भर की कमाई मृत्यु के एक झटके में समाप्त हो जाती है. जबकि आत्मा का विकास कभी पतन में नहीं बदलता, वह उन्नति की ओर ही अग्रसर होता है. कैसा विरोधाभास है यहाँ, लेकिन परमात्मा के क्षेत्र में संसार के सारे नियम टूट जाते हैं. यहाँ का गणित ही उल्टा है. प्रेम, शांति, सुख, आनंद, ज्ञान, शक्ति और पवित्रता से बना परमात्मा ही हमारी असली पहचान है. न जाने वह कौन सा पल रहा होगा जब उसे भूलकर हमने यह आवरण ओढ़ा होगा. धीरे-धीरे हम इसमें फंसते गये. उसकी स्मृति आते ही वह हमें अपनी ओर आकर्षित करता है. 

2 comments:

  1. प्रेम, शांति, सुख, आनंद, ज्ञान, शक्ति और पवित्रता से बना परमात्मा ही हमारी असली पहचान है.

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  2. स्वागत व आभार राहुल जी..

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