Tuesday, September 27, 2016

भीतर एक अजब दुनिया है

२८ सितम्बर २०१६ 
सुख, शांति, प्रेम और आनन्द का खजाना भीतर है और हम उन्हें बाहर ढूँढ़ते हैं. वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति से हमें सुख मिलता हुआ प्रतीत होता है, पर है सब उधार का, उसका हिसाब चुकता करना ही पड़ेगा. कभी सेहत की कीमत पर कभी रिश्तों की कीमत पर. यहाँ हर मुस्कान की कीमत आंसू से देनी ही पडती है. यह जगत द्वन्द्वों के बिना टिक ही नहीं सकता. तभी तो कहते हैं संत के लिए यह होकर भी नहीं होता क्योंकि वह द्वन्द्वातीत हो जाता है. उसने भीतर वे स्रोत ढूँढ़ लिए हैं जहाँ बेशर्त बिना किसी कीमत के सुख के झरने फूटते रहते हैं. मीरा कहती है, राम रतन धन पायो..कबीर गाते हैं, पानी विच मीन पियासी, मोहे सुन-सुन आवे हांसी.. 

जरा जाग कर जग को देखें

२७ सितम्बर २०१६ 
जीवन को यदि जागकर नहीं जीया तो कदम-कदम पर बंधन की प्रतीति होगी. जागकर देखना क्या है, यही कि इतना बड़ा संसार किसी अनजाने स्रोत से आया है, यह सारी सृष्टि किसी एक बड़े नियम से संचालित हो रही है. हम भी इसी सृष्टि का एक अंग हैं, प्रकृति में सब कुछ अपने आप ही हो रहा है, हमारे भीतर भी श्वास निरंतर चल रही है, रक्त का प्रवाह हो रहा है, भूख का अहसास हो रहा है, भोजन पच रहा है. भीतर जो प्रेम आदि के भाव उठते हैं, उन्हें भी तो हमने नहीं सृजा है, सुख-दुःख के भाव भी तो प्रकृति से मिले हैं. हमने जो कुछ भी पाया है सब यहीं से मिला है. हम इसके साक्षी बनकर आनंद का अनुभव करें अथवा स्वयं को कर्ता मानकर सुख-दुःख के भोक्ता बनें.

Monday, September 26, 2016

नित नूतन हो ज्ञान हमारा

२६ सितम्बर २०१६ 
शिशु जन्मता है और इक्कीस वर्ष की आयु तक उसके शरीर का विकास होता रहता है, किन्तु बुद्धि के विकास की कोई सीमा नहीं है. एक सामान्य व्यक्ति व्यस्क होने तक जिस ज्ञान को अपनाता है, उसी के आधार पर सारा जीवन बिता देता है. वह कभी भी रुककर अपने स्वभाव, अपनी आदतों, मान्यताओं, धारणाओं तथा पूर्वाग्रहों की जाँच नहीं करता, और बेवजह दुःख उठाता रहता है. भूतकाल में लिए गये जो निर्णय वर्तमान में गलत साबित हो रहे हैं, यदि महज स्वभाव वश हम उन्हें दोहराए चले जाते हैं तो भविष्य के लिए भी दुःख के बीज बो रहे हैं. साधक होने का अर्थ यही है कि हम सजग होकर स्वयं का निरंतर आकलन करें, और एक सूक्ष्म दृष्टि से मन को भेदकर सही-गलत का निर्णय करें और किसी भी क्षण जीवन में फेरबदल करने में पल भर भी न झिझकें.

Sunday, September 18, 2016

भीतर इक मुस्कान छिपी है

१९ सितम्बर २०१६ 
संत हमें बतलाते हैं कि आत्मा की शक्ति अपार है, हम उसी अखंड, अनंत परमात्मा का अंश हैं. जीवन संघर्ष नहीं सुखमय क्रीड़ा है. यहाँ हमें किसी के साथ मुकाबला नहीं करना है, अपने को श्रेठतर बनते हुए देखने का आनंद मात्र लेना है. हमारे सिवा कोई भी हमरा मूल्यांकन कर ही नहीं सकता. अपने मन की गहराई में हर आत्मा जानती है उसे क्या चाहिए, बस वह यह नहीं जानती कि उसके आपने पास ही वे सारे खजाने भरे हैं, जगत में थोड़ा घूमघाम कर, भटक कर जब वह अपने घर लौटती है तो पाने का आनंद बढ़ जाता है, और तब जो मुस्कान अधरों पर खिलती है उसे दुनिया की कोई हलचल मिटा नहीं सकती.

वर्तमान गर जाये संवर

१८ सितम्बर २०१६ 
जीवन में अगले पल क्या घटने वाला है, हमें इसकी खबर नहीं है. यही अनिश्चितता इसे अनुपम बनाती है. वास्तव में जो कुछ भी हमें मिलता है कभी न कभी हमने ही उसकी तैयारी की थी. समय के भेद के कारण हम उस वक्त समझ नहीं पाते और भाग्य मानकर कभी ख़ुशी-ख़ुशी और कभी मन मसोसकर स्वीकार कर लेते हैं. क्या ही अच्छा हो आज के बाद हम स्वयं अपने भविष्य की तस्वीर गढें, और अपनी आँखों के सामने उसे सच होता हुआ देखें. सारा अस्तित्त्व हमारी राह देख रहा है इसमें हमारा सहयोगी बनने के लिए. हर अगला पल पिछले पल से ही उपजा है हर कल आज से ही उपजने वाला है. आज इतना मधुर बना लें कि कल मधुमास बन कर सामने आये.

Saturday, September 17, 2016

चलें मूल की ओर

१७ सितम्बर २०१६ 
जीवन के लिए जो भी अति आवश्यक है, प्रकृति ने उसे सहज ही दिया है. हवा, पानी, धूप के बिना हम अपने जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकते. प्रातःकाल की शुद्ध वायु में भ्रमण, जब सूर्य की किरणें भी धरा का स्पर्श करती हों तथा जब भी सम्भव हो सके सागर, नदी अथवा खुले जल स्रोत के निकट शीतल जल का सान्निध्य, तन और मन को प्रफ्फुलित कर देता है. प्राणायाम के रूप में वायु एक औषधि भी है, जल और धूप भी प्राकृतिक चिकित्सा में अत्यंत महत्वपूर्ण हैं. आज शहरी सभ्यता के दुष्प्रभाव अनेक बीमारियों के रूप में हमारे सामने आ रहे हैं, जिनका समाधान प्रकृति के द्वारा   किया जा सकता है.    

Wednesday, September 14, 2016

सत्यं शिवं सुंदरं

१५ सितम्बर २०१६ 
जीवन हजार रूपों में हमारे सम्मुख आता है और हर रूप एक से बढ़कर एक होता है. अभी धूप खिली थी और न जाने कहाँ से बादलों का हुजूम चला आता है, बरसने लगता है. प्रकृति भरपूर है, वह अपनी नेमतें हर पल लुटा रही है. जीवन का आधार इस सौन्दर्य के पीछे छिपा है. वही हर कृत्य को अर्थ से भर देता है, मनसा, वाचा, कर्मणा हमारा हर छोटा-बड़ा कृत्य उसी से उपजा है और उसी के लिए है जब यह सत्य उद्घाटित होता है तब मानो हर तरफ जीवन खिलता हुआ प्रतीत होता है. 

कुदरत के संग जीना है

१४ सितम्बर २०१६  
सद्गुरू कहते हैं एक ही तत्व से यह सारा अस्तित्त्व बना है ! सारा खेल ऊर्जा का ही है ! मन भी ऊर्जा है और तन भी ! सब चेतना ही है, जो ऊर्जा बहती रहे वही सफल है. भोजन, जल, सूर्य, नींद तथा श्वास सभी तो ऊर्जा के स्रोत हैं, हम जिनसे लेते ही लेते हैं, लेकिन जब तक देना शुरू नहीं कर देते तब तक ऊर्जा भीतर दोष पैदा करना शुरू कर देती है. रचनात्मकता तभी तो हमें स्वस्थ बनाये रखती है. यदि हम एक माध्यम बन जाएँ जिसमें से प्रकृति प्रवाहित हो और अपना काम करती जाये, हम उसके मार्ग में कोई बाधा खड़ी न करें, तो हम जीवन के साथ एकत्व का अनुभव करते हैं.

Tuesday, September 13, 2016

द्वैत मिटेगा जब भीतर से

१३.९.२०१६ 
शिशु अबोध होता है, उसे अपने पराये का बोध नहीं होता, वह सभी को सहज ही अपनी ओर आकर्षित कर लेता है. वयस्क होने पर उसे भेद का बोध होता है, वह जगत को बाँट कर देखता है. राग-द्वेष जगाता है. उसका निर्दोष स्वभाव खो जाता है. उसे यदि पुनः अपने सहज स्वरूप को पाना है तो प्रतिक्रमण करना होगा. पुनः द्वैत की दुनिया के पार जाना होगा. उस ‘एक’ में गये बिना मुक्ति नहीं. साधना होगा मन को ताकि भीतर उस 'अबोधता' को पा सके जो एक शिशु के रूप में उसे सहज ही प्राप्त थी.