Friday, March 31, 2017

सुख-दुःख सब स्वयं ही रच डाला

३१ मार्च २०१७ 
मानव के दुःख का हल उस क्षण से निकलने लगता है जब वह दुःख को दुःख रूप में जान लेता है. जब तक हम दुःख को जीवन का एक सामान्य अंग समझ कर स्वीकारते रहते हैं, दुःख भी साथ-साथ चलता रहता है. बीच-बीच में ख़ुशी के क्षण भी आते हैं और न भी हों तो एक उम्मीद भीतर लगी रहती है, कि एक न दिन सब ठीक हो जायेगा. जिस क्षण भी कोई यह तय कर लेता है कि आज के बाद जगत किसी भी बात के लिए दुखी नहीं कर सकता उसके जीवन से ऐसी परिस्थितियाँ ही विदा लेने लगती हैं. यह जगत हमारी ही प्रतिध्वनि है, हमारी भीतरी आकांक्षा ही जीवन में प्रतिफलित होती है. मन की गहराई से जिसको भी हम चाहते हैं वही जीवन में किसी न किसी माध्यम से प्रकट होने लगता है. भीतर यदि पीड़ा है, क्रोध है, लोभ है तो जीवन में वैसी ही घटनाएँ होने लगती  हैं. किसी ने सच कहा है हमारा भाग्य हमारे ही हाथों में है.

Thursday, March 30, 2017

तू छुप न सकेगा परमात्मा !

३० मार्च २०१७ 
आज आकाश ढका है बादलों से, पर बादलों के पार भी जो झांक सकता है, उसके लिए नीला शुभ्र आकाश उतना ही सत्य है जितना यह बदली भरा आकाश, बल्कि इससे भी अधिक सत्य क्योंकि यह बादल तो आज नहीं कल बरस कर रीते हो जायेंगे. इसी तरह जो देह के पीछे छिपे चिन्मय तत्व को देख सकता है उसके लिए देह का रहना  या न रहना अर्थहीन हो जाता है, क्योंकि जो सदा है वह उसकी दृष्टि से कभी ओझल ही नहीं होता,  जगत का कार्य-व्यवहार उसे क्रीड़ा मात्र ही प्रतीत होता है, और उसके पीछे छिपा निरंजन ही सत्य जान पड़ता है. बादल कितने भी घने हों एक न एक दिन समाप्त हो जायेंगे, इसी तरह भीतर का चैतन्य मन की धारणाओं, वासनाओं और कामनाओं से कितना भी क्यों न छिप गया हो, कभी मिटता नहीं. इस सत्य को स्वीकार करके उसे अपना अनुभव बनाना ही साधक का लक्ष्य है.  

Monday, March 27, 2017

भीतर का आकाश मिले जब

२८ मार्च २०१७ 
एक शिशु अपने भीतर खाली आकाश जैसा मन लेकर पैदा होता है. वह सहज ही प्रसन्न होता है, यदि रोता भी है तो किसी न किसी कारण वश और जब कारण दूर हो जाये तो वह पल में हँसने लगता है. जैसे-जैसे वह बड़ा होता है, उसका मन भरता जाता है. वस्तुओं, घटनाओं, सूचनाओं, संबंधों की एक कई परतें उसके अंतर आकाश को भरने लगती हैं, सहजता खोने लगती है. यदि घर का वातावरण सात्विक है, सुबह सवेरे भजन आदि कानों में पड़ते हैं, व्रत-उत्सव पर घर में ध्यान पूजा होती है, प्रकृति का सान्निध्य उसे प्राप्त होता है तो  मन को खाली होने का अवसर मिलता रहता है, और वह पुनः-पुनः नया होकर जीवन का अनुभव करता है. किन्तु आज के व्यस्त माहौल में किसी के पास आराम से बैठकर साधना करने का समय नहीं है.  मन को विसर्जित होने का समय  ही नहीं मिलता तब तनाव केअलावा क्या होगा. जिसे जीवन का सबसे सुंदर समय माना गया था, उस अध्ययन काल में  आज विद्यार्थी भी तनाव के शिकार हो रहे हैं, हम बड़ों को ही बैठकर  इसका समाधान खोजना होगा, जीवन में आत्मज्ञान को उसका स्थान देना होगा ताकि मन अपने मूल से जुड़ा रहे और हम बेवजह ही दुःख को अपना साथी न बनाएं.

Sunday, March 26, 2017

जग जैसा वैसा दिख जाये

२७ मार्च २०१७ 
जीवन के प्रति हमारा जैसा भाव होगा जीवन उसी रूप में हमें मिलता है. किसी ने कितना सत्य कहा है “जैसी दृष्टि वैसी सृष्टि”. हमारी धारणाएं व मान्यताएं ही जीवन में मिलने वाले अनुभवों को परखने का मापदंड बनती हैं. जिस क्षण हमारा मन किसी भी धारणा से मुक्त होता है जीवन अपने शुद्ध रूप में नजर आता है. सृष्टि की भव्यता, दिव्यता और विशालता से हमारा परिचय होता है. हर व्यक्ति अपने भीतर उस सम्भावना को छिपाए है जो उसे स्वयं के निर्भ्रांत स्वरूप से मिला सकती है. हम अपनी ही मान्यताओं के कारण जगत को बंधन बनाकर बंधे-बंधे अनुभव करते हैं. जबकि मुक्तता हमारा सहज स्वभाव है और हमारी मूलभूत आवश्यकता भी.

Saturday, March 25, 2017

निजता को जो पा जाये

२५ मार्च २०१७ 
हम जीवन को बाहर-बाहर से कितना सजाते हैं. सुख-सुविधा के साधन जुटाते हैं. धन, पद, संबंध और सम्मान में सुरक्षा खोजते हैं. किन्तु ऐसा करते समय हम यह भूल जाते हैं कि जीवन किसी भी क्षण बिखर सकता है. जीवन की नींव पानी की धार पर रखी है. हम अहंकार को जितना-जितना बढ़ाते जाते हैं उतना-उतना स्वयं से दूर निकल जाते हैं, स्वयं से दूर जाते ही हम जगत से भी दूर हो जाते हैं. अहंकार की परिणिति एक अकेलापन है और स्वय के पास आने का फल इस ब्रह्मांड से एकता का अनुभव होता है. हमें लगता है अहंकार हमें हमारी पहचान देता है, पर हमारी निजता उसी क्षण प्रकट होती है जब हम अहंकार से मुक्त हो जाते हैं. हमें हमारा वास्तविक परिचय तभी मिलता है जब भीतर परम का प्राकट्य होता है. उसी के प्रकाश में एक नये तरह के जीवन का स्वाद मिलता है, जिसमें न किसी अतीत का भार है न ही भविष्य की योजनायें. पल-पल हृदय वर्तमान के लघुपथ पर गुनगुनाता हुआ स्वयं को धन्य महसूस करता है. 

Thursday, March 23, 2017

नव जीवन पल पल मिलता है

२४ मार्च २०१७ 
हम जहाँ हैं वहाँ नहीं होते, तभी परम के दरस नहीं होते
जिन्दगी कैद है दो कल में, आज को दो पल मयस्सर नहीं होते

स्मृति और कल्पना इन दोनों के मध्य ही निरंतर हमारा मन डोलता रहता है. अतीत की स्मृति और भविष्य की कल्पना. हम वर्तमान में टिकते ही नहीं, हमारे वर्तमान के कर्म भी अतीत के किसी कर्म द्वारा पड़े संस्कार से प्रेरित होते हैं अथवा तो भविष्य की किसी कल्पना से. जीवन में कोई नयापन नहीं बल्कि एक दोहराव नजर आता है, जिससे नीरसता पैदा होती है, जबकि जीवन पल-पल बदल रहा है, जिसे देखने के लिए मन को बिलकुल खाली होना पड़ेगा, हर सुबह तब एक नया संदेश लेकर आएगी और हर रात्रि कुछ नया स्वप्न दिखाएगी. अभी तो हमारे स्वप्न भी वही-वही होते हैं. हमारे अधिकतर कर्म प्रतिक्रिया स्वरूप होते हैं, चाहे वे भौतिक हों या मानसिक.  

Wednesday, March 22, 2017

श्रम में ही विश्राम छुपा है

२३ मार्च २०१७ 
सृष्टि में जैसे दिन-रात का चक्र अनवरत चल रहा है, अर्थात श्रम और विश्राम के लिए नियत समय दिया गया है, वैसे ही साधक के लिए प्रवृत्ति और निवृत्ति का विधान किया गया है. ध्यान का समय ऐसा हो जब दोनों तरह की  इन्द्रियां अर्थात कर्मेन्द्रियाँ व ज्ञानेन्द्रियाँ  बाहरी विषयों से स्वयं को निवृत्त कर लें, मन में कोई इच्छा न रहे, बुद्धि हर जिज्ञासा को परे रख दे, आत्मा स्वयं में ठहर जाए. ध्यान में मिले पूर्ण विश्राम के पश्चात जब कार्य में प्रवृत्त होने का समय आये तो ऊर्जा स्वतः ही प्रस्फुटित होगी. कर्म तब फल की इच्छा के लिए नहीं होगा बल्कि जो ऊर्जा ध्यान में भीतर जगी है, उसके सहज प्रकटीकरण के लिए होगा. इसीलिए हमारे शास्त्रों में  सन्धया करने के विधान का  विवरण मिलता है, दिन में कम से कम दो बार साधक शान्त होकर बाहरी जगत से निवृत्त हो जाये, तो जिस तरह दिन-रात सहज ही बदलते हैं, कर्म और विश्राम सहज ही घटेंगे. 

Tuesday, March 21, 2017

होना भर ही जब आ जाये

२२ मार्च २०१७ 
हम स्वयं को उस क्षण सीमित कर  लेते हैं जब केवल उपाधियों को ही अपना होना मान लेते हैं.  आज हर कोई अपनी पहचान बनाने में लगा है, वह जगत के सामने स्वयं को कुछ साबित कर के अपनी पहचान बनाना चाहता है, मानव यह भूल जाता है यह पहचान उसे अपने वास्तविक स्वरूप से बहुत दूर ले जाती है. कोई अध्यापक तभी तक अध्यापक है जब तक वह कक्षा में पढ़ा रहा है, कोई वकील तभी तक वकील है, जब वह मुकदमा लड़ रहा है, किन्तु उसके अतिरिक्त समय में वह कौन है, हम कितनी भी उपाधियाँ एकत्र कर लें, भीतर एक खालीपन रह ही जाता है . बाहर की उपाधियाँ चाहे हमें  बौद्धिक व भावनात्मक सुरक्षा भी दे दें, किन्तु उसके बाद भी हमारी तलाश खत्म नहीं होती जब तक हमें अपनी अस्तित्त्वगत पहचान नहीं होती. जब हम स्वयं को मात्र होने में ही स्वीकार कर लेते हैं, उस क्षण भीतर एक सहजता का जन्म होता है, अब सारा जगत अपना घर लगने लगता है.

Monday, March 20, 2017

कौन यहाँ किसकी खातिर है

२० मार्च २०१७ 
हमने कितनी बार ये शब्द सुने हैं - 'कोई जीने के लिए आहार लेता है कोई खाने के लिए ही जीता है'. इसी तरह कोई कहता है आत्मा देह के लिए है और कोई कह सकता है देह आत्मा के लिए है. यदि हम यह मानते हैं कि भोजन देह धारण के लिए है तो हमारा भोजन संतुलित होगा, देह को आलस्य से नहीं भरेगा, स्वस्थ रखने में सहायक होगा. यदि हम भोजन के लिए ही जीते हैं तो सारा ध्यान भोजन के स्वाद पर होगा, आवश्यकता से अधिक भी खाया जा  सकता है. इसी तरह यदि हम यह मानते हैं देह आत्मा के लिए है तो हम आत्मा को पुष्ट करने वाले सात्विकआहार ही देह को देंगे, आहार में पाँचों इन्द्रियों से ग्रहण करने वाले सभी विषयों को लिया जा सकता है. अर्थात देखना, सुनना, खाना, सूँघना, स्पर्श करना सभी आत्मा का हित करने वाले होंगे. दूसरी ओर जब आत्मा को देह के लिए मानते हैं तो मन व इन्द्रियों को तुष्ट करना ही एकमात्र ध्येय रह जाता है. आत्मा की सारी ऊर्जा देह को सुखी करने में ही लगती रहती है और हम आत्मा के सहज गुणों को अनुभव ही नहीं कर पाते, 

Saturday, March 11, 2017

रंग चढ़े न दूजा कोई

१२ मार्च २०१७ 
होली का उत्सव मनों में कितनी उमंग जगाता है, सारा वातावरण जैसे मस्ती के आलम में डूब जाता है. प्रकृति भी अपना सारा वैभव लुटाने को तैयार रहती है. बसंत और फागुन की मदमस्त बयार बहती है और जैसे सभी मनों को एक सूत्र में बांध देती है. उल्लास और उत्साह के इस पर्व पर कृष्ण और राधा की होली का स्मरण हो आना कितना स्वाभाविक है. कान्हा के प्रेम के रंग में एक बार जो भी रंग जाता है वह कभी भी उससे उबर नहीं पाता. प्रीत का रंग ही ऐसा गाढ़ा रंग है जो हर भक्त को सदा के लिए सराबोर कर देता है. मन के भीतर से सारी अशुभ कामनाओं को जब होली की अग्नि में जलाकर साधक खाली हो जाता है अर्थात उसका मन शुद्ध वस्त्र पहन लेता  है तो परम  उस पर अपने अनुराग का रंग बरसा देता है. अंतर में आह्लाद रूपी प्रहलाद का जन्म होता है, विकार रूपी होलिका भस्म हो जाती है और चारों ओर सुख बरसने लगता है. होली का यह अनोखा उत्सव भारत के मंगलमय गौरवशाली अतीत का अद्भुत भेंट है.

Friday, March 10, 2017

जब जीवन उत्सव बन जाये

११ मार्च २०१७
आजतक न जाने कितने लेखकों, कवियों और विचारकों ने जीवन की परिभाषा की है, पर कोई उसे पूर्णतया परिभाषित नहीं कर पाया. संतों ने जीवन की एक नई परिभाषा दी है, जीवन एक उत्सव है, परिभाषा कोई भी हो, कितनी भी अच्छी हो,  जब तक वह हमारे लिए सत्य नहीं है, जीवन अपरिभाषित ही रह जाता है. एक सामान्य व्यक्ति के लिए जीवन एक संघर्ष है, विद्यार्थी के लिए जीवन सतत् श्रम है. भक्त के लिए जीवन पूजा है, ज्ञानी के लिए जीवन उत्सव है. उनके लिए उत्सव का अर्थ है, आनंदित होना व आनंद फैलाना. ऐसा आनंद जो कहीं से लाना भी नहीं है, स्वतः स्फूर्त है, जो सहज ही है उसे फैलाने का भी प्रयास नहीं करना है, वह फूल की खुशबू की तरह बिखरने ही वाला है. हम कोई उत्सव मनाते हैं तो कितना आयोजन करते हैं, अचछे वस्त्र, फल-फूल, मिठाई का प्रबंध कर मित्रों को बुलाते हैं, और तब परिणाम रूप में आनंदित होते हैं, लेकिन संत कहते हैं, जीवन उत्सव है तो ये सब आयोजन तो उसका परिणाम है, आनंदित व्यक्ति सबके साथ ऐश्वर्य बाँटना ही चाहता है. 

Thursday, March 9, 2017

ममेवांशो जीवलोका:

१० मार्च २०१७ 
कबीर ने कहा है, कोई सागर को स्याही बना ले और सारे वनों की कलम बना ले तब भी उस परमात्मा का बखान नहीं कर सकता. कृष्ण कहते हैं, मैं अपने एक अंश में इस सम्पूर्ण सृष्टि को धारण करता हूँ. आज के वैज्ञानिक भी कहते हैं जो दिखाई देता है वह उस न दिखाई देने वाले की तुलना में अति सूक्ष्म है. हमारी बुद्धि चकरा जाती है यह सोचकर कि अरबों, खरबों  गैलेक्सी भी उस अनंत के सामने कुछ नहीं. इस विशाल सृष्टि में मानव का स्थान कितना छोटा है पर उसके भीतर जो चैतन्य है वह उसी परमात्मा का अंश है, राजा कितना भी बड़ा हो, उसके पुत्र के लिए वह सदा सुलभ है, ऐसे ही परमात्मा कितना भी महान हो मानव के लिए वह हर क्षण उपलब्ध है. मानव जन्म का इसीलिए इतना गौरव गाया गया है. हमारा मूल बना है उसी तत्व से जिससे वह बना है. प्रेम, शांति, पवित्रता, ज्ञान, शक्ति, सुख और आनंद हमारा मूल स्वभाव है, तभी तो इससे विपरीत होते ही हम व्याकुल हो जाते हैं. जितना-जितना हम अपने मूल से दूर चले जाते हैं, दुःख को प्राप्त होते हैं. 

Wednesday, March 8, 2017

भीतर जब एकांत बढ़े

९ मार्च २०१७ 
शास्त्र व संत कहते हैं हमारे अस्तित्त्व  के सात स्तर हैं, शरीर, प्राण, मन, बुद्धि, संस्कार, अहंकार तथा आत्मा. एक-एक कर इन सोपानों पर चढ़ते हुए हमें परमात्मा तक पहुँचना है. समान ही समान से मिल सकता है इस नियम के अनुसार केवल आत्मा ही परमात्मा से मिल सकता है. इसका अर्थ हुआ पहले हमें आत्मा तक पहुँचना है, योग साधना के द्वारा पहले देह को स्वस्थ करना है, व्याधिग्रस्त देह के द्वारा समाधि का अभ्यास नहीं किया जा सकता. प्राणायाम के द्वारा प्राणों को बलिष्ठ बनाना है. स्वाध्याय तथा ज्ञान  के द्वारा मन व बुद्धि को निर्मल करना है, ध्यान के द्वारा संस्कारों को शुद्ध करना है. उस अहंकार को समर्पित कर देना है जो परमात्मा से दूर किये रहता है. इस तरह धीरे-धीरे भीतर एकांत बढ़ता जाता है जहाँ पहले पहल आत्मा स्वयं से परिचित होती है, और फिर जब वह अपने पार देखती है परमात्मा ही परमात्मा उसे चारों ओर से घेरे है. 

Tuesday, March 7, 2017

निज अनुभव जब उसे बना लें

८ मार्च २०१७ 
घोर अंधकार में जब हाथ को हाथ नहीं सूझता हो, अचानक तेज बिजली चमक जाये तो पल भर को सब कुछ साफ-साफ दिखाई देने लगता है. जीवन यात्रा में चलते समय भी जब कभी ऐसा समय आता है कि कुछ नहीं सूझता, तब अचानक किसी हृदय की गहराई से निकला हुआ कोई सूत्र  वस्तुओं को स्पष्ट दिखा देता है. सत्य ऐसा ही होता है, वह राह दिखाता है, समाधान करता है, सत्य का अभ्यास नहीं करना होता, सत्य को अनुभव करना होता है और वह तब तक नहीं होता जब तक अनुकूल परिस्थिति न आ गयी हो. उसके पहले हम बौद्धिक रूप से कितना ही दोहराते रहें पर जब तक कोई सत्य हमने स्वयं अनुभव नहीं किया हमारे लिए वह सार्थक नहीं हो पाता. हम सभी कहते हैं जीवन क्षणिक है, यहाँ सब कुछ पल-पल बदल रहा है, पर ऐसे जिए चले जाते हैं जैसे सदा के लिए यहाँ रहना हो, संग्रह करने की प्रवृत्ति हमें देने के अतुलनीय सुख से वंचित रखती है. देह मिटने वाली है यह कहते हुए भी सुबह से शाम तक हम देह का ही ध्यान रखते हैं, जैसे कोई व्यक्ति कार का ही ध्यान रखे पर ड्राइवर को उपेक्षित  रखे, ऐसे ही हम देह को तो पूरा आराम देते हैं पर मन को विश्राम नहीं देते. ज्ञान का सम्मान करने से ही जीवन उस ज्ञान का साक्षी बनता है. 

Monday, March 6, 2017

बनें साक्षी हर द्वंद्व के

७ मार्च २०१७ 
जीवन द्वंद्वों से गुंथा है, दिन-रात, सुबह-शाम, धरा-आकाश, स्वर्ग-नर्क, सुख-दुःख, अपना-पराया कितने सारे जोड़े हैं जिनसे हम प्रतिदिन दो-चार होते हैं. हमारी कठिनाई यही है कि हम सुख चाहते हैं, दुःख नहीं, स्वर्ग के गीत गाते हैं नर्क से मुँह फेरते हैं, अपनों के लिए आँखें  बिछाते हैं, पराये से कोई मतलब नहीं, पर जीवन ऐसा होने नहीं देता, वह सदा जोड़ों में ही मिलता है. हर सुख की कीमत दुःख के रूप में देर-सवेर चुकानी ही है. स्वर्ग का मार्ग नर्क से होकर ही गुजरता है. कोई अपना कब पराया बन जायेगा पता ही नहीं चलता. क्या  इसका अर्थ हुआ कि जीवन हमें छल रहा है ? नहीं, जीवन हमें द्वन्द्व से पार जाने का  एक अवसर दे रहा है, क्योंकि  उसके पार ही ही है वह महाजीवन जिसे कोई परमात्मा कहता है कोई, खुदा ! जब तक हम सुख-दुःख, गर्मी-सर्दी के साक्षी बनकर उनसे प्रभावित होना त्याग नहीं देते, सहज आनंद की धारा में, जो अनवरत अस्तित्त्व बहा रहा है भीगने से हम वंचित ही रह जाते हैं.

Sunday, March 5, 2017

योग सधेगा जब जीवन में

६ मार्च २०१७ 
योग के साधक का अंतिम लक्ष्य होता है सदा के लिए भीतर समाधान को प्राप्त होना, अर्थात बाहर की परिस्थिति कैसी भी हो मन के भीतर समता बनी रहे, समता ही नहीं समरसता भी.  इस लक्ष्य को पाने के लिए वह अपनी रूचि के अनुसार एक पथ का निर्धारण करता है. यदि उसमें तर्कबुद्धि है तो ज्ञानयोग, भावनाबुद्धि है तो भक्ति योग और दोनों का सम्मिलन तो कर्मयोग के द्वारा वह अपने पथ पर आगे बढ़ता है. सत्य के प्रति निष्ठा और श्रद्धा तीनों के लिए प्रथम आवश्यकता है. योग का साधक वही तो हो सकता है जिसके भीतर स्वयं के पार जाने की आकांक्षा जगी हो, जो स्वयं से ही संतुष्ट नहीं हो गया है, जो जानता है कि उसके पास उन सवालों के जवाब नहीं है जो इस जगत को देखकर उसके मन में उठते हैं. जो अपने मन में निरंतर उठने-गिरने वाली लहरों के जाल से स्वयं को बचा नहीं सकता. वह देखता है जो व्यक्ति, वस्तु, परिस्थिति आज सुखद है वही कल दुःख का कारण हो जाती है. जीवन को गहराई से देखने वाला हर व्यक्ति एक न एक दिन अपने पार जाने की कला सीखना चाहेगा. निज बुद्धि के पार उस विवेक को पा लेगा जो हर कठिनाई को एक अवसर बना देता है.

Thursday, March 2, 2017

देह बने देवालय जब

३ मार्च २०१७
पंच तत्वों से बना है हमारा शरीर, तो जाहिर है पंच तत्वों के सारे गुण उसमें भी होंगे. पृथ्वी का सा अपार धैर्य और उसकी जैसी शक्ति भी, जिसे अनुभव करना चाहें तो धावकों अथवा खिलाडियों को देख सकते हैं, जो अकल्पनीय कारनामें कर लेते हैं. प्राणमय देह वायु तत्व से बनी है, गति उसका स्वभाव है प्राण के ही कारण सारी गतियाँ देह में होती हैं. प्राणायाम के द्वारा हम इसे पुष्ट कर सकते हैं. प्राण ऊर्जा यदि कम हो तो देह व्याधियों से जल्दी ग्रस्त हो जाती है और प्राण ऊर्जा यदि बढ़ी हुई हो तो देह में स्फूर्ति बनी रहती है. मन विचारों, भावनाओं, कामनाओं, आकांक्षाओं का केंद्र है. स्वाध्याय और ध्यान इसे सही दिशा देते हैं. मन यदि बहते जल सा प्रवाहमान रहता है तो ताजा रहता है. काम, क्रोध, लोभ मन को बांधते हैं तथा अंततः दैहिक व मनोरोगों के कारण होते हैं. भावमय देह हमारे आदर्शों पर आधारित होती है, यदि जीवन में हम किन्हीं मूल्यों को महत्व देते हैं, सहानुभति, सद्भावना और सेवा के भाव भीतर पल्लवित होने लगते हैं. अग्नि की भांति हम आगे-आगे बढ़ना चाहते हैं. यह सब जिस आकाश तत्व में होता है वैसा ही है आत्मा का वास्तविक स्वरूप, जो होकर भी नहीं सा लगता है किन्तु जो सब कारणों का कारण है.

Wednesday, March 1, 2017

स्वयं से जुदा रहे न कोई

 २ मार्च २०१७ 
एक व्यक्ति ने किसी संत से पूछा, सत्य क्या है ? उन्होंने कहा, नेत्र बंद करो और अपने भीतर कुछ ऐसा खोजो जो सदा एक सा है, जो आजतक नहीं बदला, न ही जिसके बदलने की सम्भावना है. वह व्यक्ति कुछ देर बाद नेत्र खोल कर बोला, ऐसा तो भीतर कुछ भी नहीं मिला, शरीर का अनुभव हुआ, पर वह तो कितना बदल गया है,  विचार निरंतर बदल रहे हैं, भावना भी बदल रही है. संत ने कहा, जो यह परिवर्तन देख रहा है वह तुम कौन हो ?  हमारे भीतर हम स्वयं ही अपरिवर्तित रह जाते हैं, किन्तु स्वयं से अपरिचित होने के कारण हम इसे देख ही नहीं पाते. दर्पण में देखने पर हम स्वयं को देह मानकर उसके साथ एकत्व का अनुभव करते हैं, सिर पर श्वेत केशों के झलकते ही उदास हो जाते हैं. नाटक देखते समय मन के साथ एकत्व कर लेते हैं और पल-पल सुखी-दुखी होते रहते हैं. किसी ने हमारे प्रतिकूल कुछ कह दिया तो भावनाओं के साथ एक हो जाते हैं और व्यर्थ ही स्वयं को आहत कर लेते हैं. ध्यान में जब हमे स्वयं के साथ जुड़ते हैं तो ही सहजता का अनुभव करते हैं, सहजता आत्मा का स्वाभाविक गुण है, जो आज का व्यक्ति खोता जा रहा है. 

खिले सदा मुस्कान लबों पर

१ मार्च २०१७ 
संत कहते हैं सदा प्रसन्न रहना भगवान की सबसे बड़ी पूजा है. प्रसन्न रहने का अर्थ है एक ऐसी मुस्कुराहट का मालिक बनना जिसे संसार की कोई भी परिस्थिति मिटा न सके, ऐसी प्रसन्नता किसी व्यक्ति, वस्तु या परिस्थिति पर निर्भर नहीं रहती, वह स्वाभाविक सहजता से उत्पन्न होती है. प्रतिपल यदि हम सजग रहते हैं और अस्तित्त्व से निरंतर झरती हुई ऊर्जा से एकत्व का अनुभव करते हैं तब ही इसका अनुभव किया जा सकता है. अतीत जो जा चुका, पश्चाताप या क्रोध के रूप में हमारी ऊर्जा को व्यर्थ न जाने दे और भविष्य जो अभी आया नहीं हमें आशंकित न करे तो जीवन को उसके समग्र सौन्दर्य के साथ जीने का अनुभव प्राप्त होता है. हमारे चारोंओर जो सृष्टि का इतना बड़ा आयोजन चल रहा है, उसके पीछे छिपे अज्ञात हाथों का स्पर्श हम भी महसूस करने लगते हैं. आकाश हमारा मित्र बन जाता है और हवाएँ सहयोगी.