Thursday, June 29, 2017

पहला सुख निरोगी काया

३० जून २०१७ 
बचपन में हम सबने एक कहानी सुनी है, एक व्यक्ति अपनी निर्धनता से तंग आकर मरना चाहता है, एक साधु उससे कहते हैं, तुम्हारे पास तो लाखों रूपये हैं, यदि तुम अपनी एक आँख ही दे दो तो राजा तुम्हें एकम लाख रूपये दे देंगे. इसी तरह वह हर अंग की एक कीमत बताता है. निर्धन व्यक्ति किसी भी कीमत पर अपने अंग बेचना नहीं चाहता. उसे अपनी भूल का अहसास हो जाता है और वह किसी भी तरह मेहनत करके अपना जीवन यापन करने का प्रण लेता है. हम सभी अपने शरीर की अच्छी तरह देखभाल करते हैं, भरसक उसे उचित आहार, व्यायाम तथा विश्राम देकर स्वस्थ रखने का प्रयत्न करते हैं. इसके बावजूद हम रोगों के शिकार होते हैं, क्योंकि हम अपने भीतरी अंगों का उतना ध्यान नहीं रखते, वे दृष्टि से परे हैं सो हम जैसा चाहे उनके साथ व्यवहार करते हैं. जितनी बार हम क्रोध करते हैं, मस्तिष्क और हृदय पर इसका बुरा प्रभाव पड़ता है. अति ठंडा अथवा अति गर्म भोजन लेने पर दोनों ही स्थति में हमारा पेट प्रभावित होता है. आलस्य और प्रमाद का असर हड्डियों और मांसपेशियों को भुगतना पड़ता है. लोभ और ईर्ष्या का कुप्रभाव हमारी आँतों पर पड़ता है. न जाने कितने व्यर्थ के भय हम पाले रहते हैं, जिसका असर रक्त वाहिनियों पर पड़ता है. 

ईशावास्यमिदं सर्व जगत्यां जगत

२९ जून २०१७ 
उपनिषद कहते हैं, यह सारा जगत परमात्मा से आच्छादित है. जड़-चेतन सभी कुछ उसी का है, उसी से है. हमें त्याग भाव से इसका भोग करना चाहिए, जैसे हम किसी होटल अथवा किसी के घर जाते हैं तो सभी सामानों का उपयोग करते हैं, वहाँ दिया भोजन भी ग्रहण करते हैं पर किसी भी वस्तु पर अपना अधिकार नहीं जताते. इस जगत में हमें वैसे ही मेहमान बनकर रहना है क्योंकि यह निश्चित है कि किसी भी क्षण इसे छोड़ना पड़ेगा. यदि आसक्ति वश हमने इसे अपना माना तो छोड़ते समय उतना ही दुःख होगा. त्याग भाव से भोगने का एक अर्थ यह भी हो सकता है कि हम मांगे नहीं, देने वाले बनें. देने का भाव यदि भीतर बना रहता है तो जीवन में कभी भी किसी वस्तु का अभाव नहीं रहेगा. 

Wednesday, June 28, 2017

भाव बनें जब पावन अपने

२८ जून २०१७ 
हमारी पूजा और प्रार्थना मन के किस स्तर से आती हैं, साधक को इसका ध्यान रखना होगा. यदि पूजा से हम कुछ पाना चाहते हैं और प्रार्थना हम इसलिए करते हैं कि लोग हमें धार्मिक कहें, तो दोनों व्यर्थ हैं. पूजा को अहंकार बढ़ाने का नहीं उसे नष्ट करने का साधन बनाना है. जब तक मन पूर्ण संतोष व विश्राम का अनुभव नहीं कर लेगा उसे कुछ न कुछ बनने अथवा पाने का रोग लगा ही रहता है. ध्यान के बिना पूर्ण विश्राम सम्भव नहीं, अथवा तो मन जब श्रद्धा से ओतप्रोत हो जाये. भावशुद्ध हों तभी ध्यान घटता है. देह को पूर्ण शांत अवस्था में बैठाकर गहरी लम्बी श्वासें लेते हुए जब साधक स्वयं को परम के सम्मुख छोड़ देता है तब वही शांति और संतोष बनकर उसके मन व देह पर आच्छादित हो जाता है. 

Tuesday, June 27, 2017

भीतर एक विराट छिपा है

२७ जून २०१७ 
हमारा छोटा मन कभी भी संतुष्ट नहीं होता, उसे जितना मिले उस पर वह अपना अधिकार ही मानता है. कृतज्ञता की भावना उसमें नहीं होती. उसे प्रेम भी मिलता है तो वह उसे अपनी योग्यता मानता है अथवा तो उसके प्रति उदासीनता दिखाता है. जीवन में जितने भी दुःख अथवा कष्टों का अनुभव हमें होता है वह इसी छोटे मन के कारण. हमारे ही भीतर एक विराट मन भी है, जहाँ कोई अपूर्णता नहीं, जो सदा तृप्त है, जो सृष्टि की हर वस्तु के प्रति हर क्षण कृतज्ञ है. जिसे देह, मन, बुद्धि आदि भी ईश्वर का एक उपहार लगता है, जिसके माध्यम से वह जगत को देख, सुन सकता है. साधना के द्वारा हम छोटे मन से ऊपर उठकर विराट से जुड़ते हैं. हम देने के भाव से भर जाते हैं. उत्साह, सृजनात्मक शक्ति, उदारता, प्रेम, कृतज्ञता, अभय, सजगता और आनंद हमारे स्वभाव में झलकने लगते हैं.

Thursday, June 22, 2017

सहज मिले अविनाशी

२३ जून २०१७ 
हमारे मन की गहराई में एक अवस्था ऐसी भी है जहाँ किसी भी बाहरी घटना का कोई प्रभाव नहीं पड़ता. जो आदि काल से एकरस है और जो अनंत काल तक ऐसी ही रहेगी. सूक्ष्म से भी अति सूक्ष्म है मन की वह अवस्था, जो जीवन का स्रोत है. विचार का भी स्रोत है. जब तक मन अपनी उस स्थिति से एक नहीं हो जाता, वह अभाव का अनुभव करता ही रहेगा. योग का उद्देश्य मानव को उसी स्थिति का अनुभव कराना है. उस अवस्था तक पहुँचने के लिए ही हम साधना के पथ पर कदम रखते हैं, और जो पहले वहाँ पहुंचा हुआ है वह गुरू ही हमें वहाँ तक ले जा सकता है. उसने वह मार्ग भली प्रकार देखा है, वह मन को भीतर-बाहर से अच्छी तरह समझ गया है. उसके निर्देशन में साधना करते हुए हम सहजता से अपने मूल तक पहुंच जाते हैं. गुरू के प्रति श्रद्धा और ईश्वर के प्रति प्रेम हमारे मार्ग को रसमय व सुंदर बना देते हैं.

Wednesday, June 21, 2017

उसके आने के ढंग अजब

२२ जून २०१७ 
हमारा मन कभी वर्तमान में रहता नहीं और परमात्मा को अतीत या भविष्य में मिला नहीं जा सकता, सो कभी मिलन घटता ही नहीं. जैसे कोई किसी के पड़ोस में रहता है, पर जब वह काम पर जाता है, दूसरा सो रहा होता है और पहले के वापस आने तक उसकी शिफ्ट आरम्भ हो चुकी होती है, तो महीनों क्या वर्षों तक वे दोनों एक—दूसरे से नहीं मिल सकते. परमात्मा भी हमारा निकटतम है, पर क्यों कि जब वह मिल सकता है, हम वहाँ होते ही नहीं, जीवन बीत जाता है हम अजनबी ही बने रहते हैं. जब कोई किसी कार्य में तत्परता से लगा है, अतीत या भावी की कोई स्मृति या कल्पना तो दूर उसे यह भी ख्याल नहीं कि वह है, तब चुपके से परमात्मा आ जाता है और उसके काम में सहयोग करता है, तभी तो तल्लीनता में एक अपरिमित सुख का अनुभव होता है. 

योगी बनें उपयोगी बनें

२१ जून २०१७ 
हमारे अस्तित्त्व के कई स्तर हैं, कोई भी व्यक्ति अंतिम स्तर तक भी जा सकता है और केवल पहले पर ही रह कर पूरा जीवन बिता सकता है. देह के स्तर पर अन्य जीवों और मानवों में ज्यादा भेद नहीं है, मन के स्तर पर मानव मनन चिंतन कर सकता है जो अन्य प्राणी नहीं कर सकते. आत्मा के स्तर पर मनुष्य अपने भीतर आनंद और शांति के स्रोत से जुड़ सकता है. उसे पूर्ण स्वाधीनता और प्रसन्नता का अनुभव इसी स्तर पर होता है. योग ही इसका एकमात्र उपाय है. योग का अर्थ है जुड़ना, व्यष्टि का समष्टि से जुड़ना अथवा तो मन का आत्मा से जुड़ना. इसका आरम्भ देह से होता है, फिर श्वास की सहायता से मन की गहराई में जाकर व्यक्ति को जगत के साथ एकत्व का अनुभव होता है. योग को केवल कुछ आसनों तक ही सीमित कर देना ऐसा ही है जैसे शिक्षा का उपयोग मात्र जीविकापार्जन के लिए करना. 

Sunday, June 18, 2017

जिन खोजा तिन पाइयाँ

२० जून २०१७ 
जीवन वास्तव में एक खोज का ही नाम है. बाहर की हर खोज के माध्यम से वास्तव में मानव को अपनी ही खोज करनी है. यह सृष्टि कितनी पुरानी है, कोई नहीं जानता. यहाँ कुछ भी नया नहीं है, फिर भी सब कुछ हर पल नया सा जान पड़ता है. वास्तव में सब कुछ मानव पहले कितनी ही बार अनुभव कर चुका है, पर हर बार एक शिशु जब आँख खोलता है तो उसके लिए यह जगत कितने रहस्यों से भरा होता है. पहले परिवार फिर विद्यालय उसकी जिज्ञासाओं को शांत करता है, जिन्हें यह अवसर नहीं मिल पाता, वे बच्चे अविकसित ही रह जाते हैं, उन्हें अपने भीतर की सम्भावनाओं को खोजने का अवसर ही नहीं मिल पाता. हर किसी के भीतर एक न एक प्रतिभा छिपी है, जिसे अवसर की तलाश है, किन्तु उसका भान किसी–किसी को ही हो पाता है. हम स्वयं से ही अपरिचित रह जाते हैं, और यही पीड़ा विभिन्न रूपों में जीवन में कितनी बार नये-नये रूप लेकर आती है. 

Saturday, June 17, 2017

खोज मूल की होगी जब

१८ जून २०१७ 
हमारा मूल स्वभाव शांति, प्रेम और आनंद है, किसी को भी अशांत रहना पसंद नहीं, कोई उससे नफरत करे यह भी कोई नहीं सह सकता और दुःख से बचने की सहज ही हरेक के भीतर प्रवृत्ति होती है. नन्हा शिशु सहज ही प्रसन्न होता है, उसके प्रति अपने-पराये सभी का प्रेम उमड़ता है और छोटा सा दुःख आने पर वह रो-रोकर उससे छुटकारा पाने के लिए गुहार लगता है. जैसे-जैसे हम बड़े होते जाते हैं, छोटी-छोटी बातों पर अशांत होना सीख जाते हैं, प्रेम का अर्थ हर समय दूसरों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करना मानने लगते हैं, अपनी ख़ुशी के लिए वस्तुओं का आश्रय लेने लगते हैं. समय के साथ-साथ हमारा मूल स्वभाव कहीं नीचे दब जाता है, वस्तु, व्यक्ति अथवा परिस्थिति से ये चीजें मिल ही नहीं सकतीं, इसका ज्ञान जब तक होता है तब तक तो हम अपने स्वभाव को भूल ही चुके होते हैं. अब शांति, प्रेम, आनंद के लिए हम परमात्मा से गुहार लगाते हैं. जीवन में सत्य की खोज आरम्भ होती है. 

Friday, June 16, 2017

सुख-दुःख का कारण निज कर्म

१७ जून २०१७ 
सुबह से शाम तक हम जो भी कार्य करते हैं, उसका लक्ष्य एक ही होता है, हमारा व हमारे प्रियजनों का जीवन सुखमय हो. किन्तु इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए हम कभी-कभी ऐसे कार्य कर देते हैं जो दुःख का कारण बनते हैं. इस दुःख से कैसे बचा जाये, शास्त्र व संत इसका मार्ग बताते हैं. किसी भी  कार्य को करने से पहले उसके फल का विचार कर लेना चाहिए. यदि वह कार्य दीर्घकाल तक दुःख देने वाला है और करते समय अल्प सुख देने वाला है तो उसे नहीं करना चाहिए. इसके विपरीत यदि वह कार्य अल्पकाल के लिए कठिन लगता है पर उसका फल दीर्घकाल तक सुख देता है तो उसे शीघ्र ही कर लेना चाहिए. उदाहरण के लिए योग साधना करने में आरम्भ में श्रम करना होता है पर उसके कारण जीवन में स्वास्थ्य व आनंद के जो पुष्प खिलते हैं उनकी तुलना में वह दुःख कुछ भी नहीं. देर रात तक जगना व सुबह देर से उठाना तात्कालिक रूप से सुख देता प्रतीत होता है पर देह में तमस व रोग का कारण बनता है. 

Thursday, June 15, 2017

अति सर्वत्र वर्जयेत्


मन को नकारात्मकता से मुक्त करने लिए पहला कदम है उचित श्रम और दूसरा एकाग्रता. यदि समय अधिक है और करने के लिए काम कम है तो जाहिर है मन व्यर्थ की चहलकदमी करेगा ही. जितनी समय मन किसी काम में एकाग्र रहता है, कोई अनचाहा भाव या विचार उसमें नहीं आता. यदि काम सीमा से अधिक है तो मन थका रहेगा और सकारात्मक विचारों को ग्रहण नहीं कर पायेगा. जीवन में एक अनुशासन साधना के पथ पर चलने के लिए पहली सीढ़ी है. एकाग्र मन अपनी ऊर्जा को बचाता है और यही ऊर्जा ध्यान में प्रवेश करने के लिए उपयोगी होती है. ध्यान हमें अपने भीतर की गहराई में ले जाता है जहाँ जाकर हम सहज ही प्रसन्नता व शांति का अनुभव कर सकते हैं.

Wednesday, June 14, 2017

कभी छुप न सकेगा परमात्मा

१५ जून २०१७ 
परमात्मा से हमारा मिलन क्यों नहीं होता, इसका सबसे बड़ा कारण है हमारी नकारात्मकता. परमात्मा सकारात्मकता का पुंज है. जैसे प्रकाश का अँधेरे से मिलन नहीं हो सकता वैसे ही परमात्मा का द्वेषपूर्ण मन से मिलन नहीं हो सकता. रेत और चीनी के कण कभी नहीं मिलते, मगर जल और चीनी मिल सकते हैं, ऐसे ही आत्मा व परमात्मा मिल सकते हैं, मन और परमात्मा नहीं. मन आत्मा के सागर पर उठी लहरों का ही नाम है, कुछ पल के लिए मन यदि शांत हो जाये तो परमात्मा की शांति का अनुभव हमें होता है. ध्यान, साधना के द्वारा जब हम मन को नकारात्मकता से मुक्त करते हैं, हमारे भीतर परमात्मा का सूर्य जगमगाने लगता है. 

तू ही दाता तू ही विधाता

१४ जून २०१७ 
सुबह से शाम तक न जाने कितनी बार हम जाने-अनजाने भगवान का नाम लेते रहते हैं. किसी कठिनाई में फंस जाएँ तब तो उसके नाम का जप भी शुरू हो जाता है. कुछ अच्छा हो जाये तो उसको धन्यवाद देते हैं और न हो तो उससे शिकायत भी करते हैं, किंतु कभी बैठकर उसकी नहीं सुनते. एकतरफा संवाद ही चलता रहता है और हम अपनी मर्जी से जीवन को जीये चले जाते हैं. इसका अर्थ हुआ जिस भगवान के बिना हमारा जीवन चल ही नहीं सकता, वह हमारी कल्पना में ही है. बचपन से जो भी हमने सुना है, किताबों में पढ़ा है और कुछ हमारी स्वयं की धारणाओं के अनुसार एक छवि हमने गढ़ ली है और भगवान व हम स्वयं दो समानांतर रेखाओं की तरह चलते चले जाते हैं, जिनके मिलन की कोई गुंजाइश ही नहीं है. 

Tuesday, June 13, 2017

भगवद् गीता किञ्चिदधीता

13 jun 2017 
भगवद गीता पूजा की पोथी नहीं है, ग्रंथालय की शोभा नहीं है. भगवान का गीत है, ब्रह्म और जीव का अद्भुत संवाद है. ज्ञान रूपी अनंत अलौकिक खजाना है. निज स्वरूप में अवस्थित होकर जीवन जीने की कला है. चैतन्य का बहता हुआ झरना है यह, शब्दों के जंजाल से मुक्त होकर यदि कोई इस प्रवाह का अनुभव कर सके तो वह चैतन्य के साथ एकत्व का अनुभव कर सकता है. हजारों वर्ष पूर्व यह ज्ञान कृष्ण ने अर्जुन को दिया था पर यह नित नवीन है. सदियाँ बीत जाती हैं पर ज्ञान नहीं बदलता. यह मोक्ष शास्त्र है.

Saturday, June 10, 2017

मार्ग वही जो घर पहुँचाये

११जुन २०१७ 
जीवन हमें श्रेय और प्रेय दो मार्ग सुझाता है. पहला श्रेय मार्ग सदा ही कल्याण की ओर लेकर जाने का मार्ग है और दूसरा प्रेय मार्ग संसार के आकर्षणों का अनुभव कराते हुए सुख-दुःख के मार्ग पर भटकाने वाला है. हमारे सम्मुख अस्तित्त्व हर क्षण चुनाव का अवसर प्रस्तुत करता है. हम लगभग सदा ही प्रेय का चुनाव कर लेते हैं, यह आरम्भ में सुख देने वाला प्रतीत होता है, इसमें ज्यादा श्रम भी नहीं करना पड़ता, यह हमारी रुचियों के अनुकूल पड़ता है और हमें लगता है हम अपनी स्वतंत्र इच्छा से इस मार्ग पर चल रहे हैं. जबकि हमारे संस्कार विवश करते हैं और हम बने बनाये रास्तों पर ही चलते रहते हैं, जो बार-बार उन्हीं पर घुमाते रहते हैं, पहुंचना कहीं होता ही नहीं. दूसरी तरफ कल्याण का मार्ग आरम्भ में कष्टपूर्ण लग सकता है, इस पर प्रयास पूर्वक चलना होता है, पर अंत में यही मार्ग हमें ऐसे जीवन की ओर ले जाता है जो सहज है, आनंदपूर्ण है और जिसको पाने के लिए संत सदा से कहते आये हैं.  

भीतर का जब दिखे गगन

१० जून २०१७ 
मन हर पल कल्पनाओं अथवा स्मृतियों के गलीचे बुनता रहता है. इसी व्यस्तता में वह आत्मा का निर्मल स्पर्श चूक जाता है. हमारे चारों ओर वह अव्यक्त सत्ता हर पल विद्यमान है. किन्तु मन के पर्दे पर अनवरत खेल चलता रहता है तो वह पर्दा कभी खाली ही नहीं होता और उसका होना छिपा ही रहता है. जैसे आकाश पर यदि सदा ही बादल बने रहें तो कोई आकाश को कैसे देखेगा, आत्मा के आकाश पर मन के बादल कभी विलीन ही नहीं होते. मन का होना आत्मा पर ही निर्भर है पर यह उसके अस्तित्त्व से ही बेखबर है, इसी को संतों ने माया कहा है. नींद में जब चेतन मन सो जाता है तब आत्मा का स्वाद मिलता है, तभी नींद इतनी प्रिय होती है. किन्तु नींद में उससे मुलाकात नहीं हो पाती, यह तो ध्यान में ही सम्भव है, जब मन भी न रहे और बुद्धि का सीधा साक्षात्कार आत्मा से हो सके.

Wednesday, June 7, 2017

बन सुवास जब मन बिखरे

७ जून २०१७ 

बादल बरस रहे हैं जैसे, कृपा बरसती प्रभु की वैसे
भीगा जैसे घर का आँगन, भीगे वैसे अंतर उपवन !

परमात्मा की कृपा का अनुभव साधक को हर घड़ी होता है, पर उस कृपा को सुवास बनाकर बाहर बिखेरना भी तो आना चाहिए. जैसे धरती जल लेकर सुवास देती है, वैसे ही कृपा के जल से भीगा हुआ मन प्रेम के गीत रचे. सुनहले शब्दों की चादर बुने, मोती से वचन कहे, जिसे हंस चुगें. धरा देती है, गगन देता है, प्रकृति देती है और मानव भरे जाते हैं भीतर. पाना ही उनका लक्ष्य है, पाकर वे उसे व्यर्थ कर देते हैं.  

Sunday, June 4, 2017

पर्यावरण बचाएं हम

५ जून २०१७ 
पृथ्वी को हम माँ कहते हैं. उसी से हम जन्मे हैं और एक दिन उसी में हमारे भौतिक अवशेष लीन हो जाने वाले हैं. पृथ्वी के उपकारों को याद करना आरम्भ करें तो उनका अंत ही नहीं आएगा. हमारे वस्त्र, मकान, भोजन सभी कुछ तो उसी से मिला है. जल को भी वही धारण करती है और अग्नि को भी अपने उदर में वही धारण किये हुए है. हजारों तरह के जीव-जन्तु, पेड़-पौधे, हीरे-जवाहरात और खनिज लवण क्या नहीं है उसके आश्रय में. मानव ने पृथ्वी के साथ कैसा अमानवीय व्यवहार किया है, यह किसी से छिपा नहीं है. जंगल नष्ट किये जा रहे हैं, हवा को प्रदूषित किया जा रहा है, जल को भी पीने योग्य नहीं छोड़ा है. मानव का अज्ञान उसे किस ओर ले जा रहा है वह अपनी बेहोशी में यह भी नहीं देख पा रहा है. विश्व पर्यावरण दिवस हमें जागने के लिए मजबूर करता है, यदि हम अब नहीं चेते तो आने वाली पीढ़ी को जन्म से ही रोगों का सामना करना पड़ेगा. आज भी प्रदूषण के कारण रोगों की संख्या बढती जा रही है. योग युक्त जीवन शैली अपना कर हम पुनः इस धरा को हरा-भरा बना सकते हैं.  

Saturday, June 3, 2017

बँटती रहे ऊर्जा पल-पल

४ जून २०१७ 
जीवन प्रतिदिन एक नई सुबह का वरदान देता है. हर रात अपने साथ सारी थकान ही नहीं ले जाती, विश्राम के पलों में नई ऊर्जा से मन को भर देती है. जिसने हँसकर सुबह का स्वागत किया वह अपनी दोपहर में कुछ रचने ही वाला है, और उसकी संध्या भी अनंत के प्रति आभार से भर जाएगी. रात्रि का स्वागत भी वह एक तृप्त हृदय के साथ करेगा. जिसने आपने आनन्द को प्रकृति के साथ साझा करना सीख लिया प्रकृति भी उसके मार्ग में चमत्कार बुन देती है. प्रकृति पल-पल अपना सब कुछ बाँट रही है, हमें भी इस जीवन में जो कुछ भी मिला है, उसी से मिला है, उसी की भांति देने की कला जब किसी को आ जाये तो जीवन का हर पल नया लगता है. 

Friday, June 2, 2017

भाग्य सदा हम स्वयं ही रचते

३ जून २०१७ 
यह जगत हमें अपनी आशाओं और आकांक्षाओं के अनुरूप ही मिलता है. मन की गहराई में जैसा हम चाहते हैं, यह सृष्टि वैसा ही रूप धर कर हमारे सामने प्रस्तुत होती रहती है. हर आत्मा के पास यह क्षमता है किन्तु मानव योनि में आकर ही वह इसका लाभ उठा सकती है. भाग्य का अर्थ बस इतना सा ही है कि अतीत में हमने कुछ चाहा था, वर्तमान में वह हमें मिल रहा है.