२३ सितम्बर २०१७
जीवन कितना अबूझ है और कितना
सरल भी. हरियाली का आंचल ओढ़े माँ के समान पोषण करती यह धरती, जिसका अन्न और जल
पाकर हमारा तन बनता है. पिता के समान प्राण भरता आकाश जिससे यह काया गतिशील होती
है. अन्न और प्राण के संतुलन का नाम ही तो जीवन का आरम्भ है. इसके बाद वह पुष्पित
और पल्लवित होता है शब्दों और विचारों में, वाणी का अद्भुत वरदान मानव जीवन को
विशिष्ट बनाता है. वाणी के भी पार है वह परम तत्व जिसे जानकर जीव पूर्णता का अनुभव
करता है. साधक पहले तन को साधता है, फिर मन को, पश्चात वाणी को, जिसके बाद चेतना
स्वयं में ठहर जाती है. स्वयं के पार जाकर ही परम चैतन्य का अनुभव होता है.
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