३ अक्तूबर २०१७
जीवन प्रतिपल नया हो रहा है,
जो नदी सागर से वाष्पीभूत होकर ऊपर उठती है वही पर्वत शिखर पर हिम के रूप में घनीभूत
होकर नये कलेवर में प्रकटती है, वही फिर द्रवित होकर बहती है. जल के रूप में वह
जगत का कितना कल्याण करती है. जीवात्मा अदृश्य है, वाष्प की भांति, वही देह धारण
करती है और फिर फिर मन के रूप में जगत में प्रवाहित होती है. संवेदनशील मन के
द्वारा ही जगत में कितने उपकार होते हैं, नये-नये आविष्कार, नित नये साहित्य का
सृजन मन के द्वारा ही सम्भव है. ऐसा मन जो निरंतर प्रेम और विश्वास की सुगंध से
भरा होता है आस-पास के वातावरण को भी सुवासित कर देता है.
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